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वास्तुशास्त्र और आरोग्य

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        ~> पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य’

वास्तु’ शब्दका अर्थ है-निवास करना। जिस भूमिपर मनुष्य निवास करते हैं, उसे ‘वास्तु’ कहा जाता है. वास्तुशास्त्रमें गृह-निर्माण सम्बन्धी विविध नियमोंका प्रतिपादन किया गया है। उनका पालन करनेसे मनुष्यको अन्य कई प्रकारके लाभोंके साथ-साथ आरोग्यलाभ भी होता है।

      वास्तुशास्त्रका विशेषज्ञ किसी मकानको देखकर यह बता सकता है कि इसमें निवास करनेवालेको क्या- क्या रोग हो सकते हैं। इस लेखमें संक्षिप्त रूपसे ऐसी बातोंका उल्लेख करनेकी चेष्टा की जाती है, जिनसे पाठकोंको इस बातका दिग्दर्शन हो जाय कि गृह-निर्मागमें किन दोषोंके कारण रोगोंकी उत्पत्ति होना सम्भव है।

भूमि-परीक्षा भूमिके मध्यमें एक हाथ लंबा, एक हाथ चौड़ा और एक हाथ गहरा गड्डा खोदे। खोदनेके बाद निकाली हुई सारी मिट्टी पुनः उसी गड्ढेमें भर दे। यादि गड्डा भरनेसे मिट्टी शेष बच जाय तो वह उत्तम भूमि है। यदि मिट्टी गड्डेके बराबर निकलती है तो वह मध्यन भूमि है और यदि गड्ढेसे कम निकलती है तो वह अधम भूमि है।

    दूसरी विधि-उपर्युक्त प्रकारसे गड्डा खोदकर उसमें पानी भर दे और उत्तर दिशाकी ओर सौ कदम चले, फिर लौटकर देखे। यदि गड्डेमें पानी उतना ही रहे तो वह उत्तम भूमि है। यदि पानी कम (आधा) रहे तो वह मध्यन भूमि है और यदि बहुत कम रह जाय तो वह अधम भूमि है। अधन भूमिमें निवास करनेसे स्वास्थ्य और सुखकी हानि होती है।

   ऊसर, चूहोंके बिलवाली, बाँबीवाली, फटी हुई, ऊबड़-खाबड़, गड्डोंवाली और टीलोंवाली भूमिका त्याग कर देना चाहिये।

   जिस भूमिमें गड्डा खोदनेपर कोयला, भस्म, हड्डी, भूसा आदि निकले, उस भूमिपर मकान बनाकर रहनेसे रोग होते हैं तथा आयुका ह्रास होता है।

   भूमिकी सतह पूर्व, उत्तर और ईशान दिशामें नीची भूमि सब दृष्टियोंसे लाभप्रद होती है। आग्रेय, दक्षिण, नैर्ऋत्य, पश्चिम, वायव्य और मध्यमें नीची भूमि रोगोंको उत्पन्न करनेवाली होती है।

  दक्षिण तथा आग्नेयके मध्य नीची और उत्तर एवं वायव्यके मध्य ऊँची भूमिका नाम ‘रोगकर वास्तु’ है, जो रोग उत्पन्न करती है।

   गृहारम्भ-वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष और फाल्गुनमासमें करना चाहिये। इससे आरोग्य तथा धन-धान्यकी प्राप्ति होती है।

    नींव खोदते समय यदि भूमिके भीतरसे पत्थर या ईंट निकले तो आयुकी वृद्धि होती है। यदि राख, कोयला, भूसी, हड्डी, कपास, लोहा आदि निकले तो रोग तथा दुःखकी प्राप्ति होती है।

    वास्तुपुरुषके मर्म-स्थान- सिर, मुख, हृदय, दोनों स्तन और लिङ्ग – ये वास्तुपुरुषके मर्म-स्थान हैं। वास्तुपुरुषका सिर ‘शिखी’ में, मुख ‘आप’ में, हृदय ‘ब्रह्मा’ में, दोनों स्तन ‘पृथ्वीधर’ तथा ‘अर्यमा’ में और लिङ्ग ‘इन्द्र’ तथा ‘जय’ में है (देखें- वास्तुपुरुषका चार्ट)। वास्तुपुरुषके जिस मर्म- स्थानमें कील, खम्भा आदि गाड़ा जायगा, गृहस्वामीके उसी अङ्गमें पीडा या रोग उत्पन्न हो जायगा।

     वास्तुपुरुषका हृदय (मध्यका ब्रह्म-स्थान) अतिमर्मस्थान है। इस जगह किसी दीवार, खम्भा आदिका निर्माण नहीं करना चाहिये। इस जगह जूठे बर्तन, अपवित्र पदार्थ भी नहीं रखने चाहिये। ऐसा करनेपर अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं।

    गृहका आकार- चौकोर तथा आयताकार मकान उत्तम होता है। आयताकार मकानमें चौड़ाईकी दुगुनीसे अधिक लम्बाई नहीं होनी चाहिये। कछुएके आकारवाला घर पीडादायक है। कुम्भके आकारवाला घर कुष्ठरोग- प्रदायक है। तीन तथा छः कोनवाला घर आयुका क्षयकारक है। पाँच कोनवाला घर संतानको कष्ट देनेवाला है। आठ कोनवाला घर रोग़ उत्पन्न करता है।

    घरको किसी एक दिशामें आगे नहीं बढ़ाना चाहिये। यदि बढ़ाना ही हो तो सभी दिशाओंमें समानरूपसे बढ़ाना चाहिये। यदि घर वायव्य दिशामें आगे बढ़ाया जाय तो वात-व्याधि होती है। यदि वह दक्षिण दिशामें बढ़ाया जाय तो मृत्यु-भय होता है। उत्तर दिशामें बढ़ानेपर रोगोंकी वृद्धि होती है। 

   गृहनिर्माणकी सामग्री – ईंट, लोहा, पत्थर, मिट्टी और लकड़ी- ये नये मकानमें नये ही लगाने चाहिये। एक मकानमें उपयोग की गयी लकड़ी दूसरे मकानमें लगानेसे गृहस्वामीका नाश होता है।

मन्दिर, राजमहल और मठमें पत्थर लगाना शुभ है, पर घरमें पत्थर लगाना शुभ नहीं है।

  पीपल, कदम्ब, नीम, बहेड़ा, आम, पाकर, गूलर, रीठा, वट, इमली, बबूल और सेमलके वृक्षकी लकड़ी घरके काममें नहीं लेनी चाहिये।

   गृहके समीपस्थ वृक्ष – आग्नेय दिशामें वट, पीपल,सेमल, पाकर तथा गूलरका वृक्ष होनेसे पीडा और मृत्यु होती है। दक्षिणमें पाकर-वृक्ष रोग उत्पन्न करता है। उत्तरमें गूलर होनेसे नेत्ररोग होता है। बेर, केला, अनार, पीपल और नीबू – ये जिस घरमें होते हैं, उस घरकी वृद्धि नहीं होती।

  घरके पास काँटेवाले, दूधवाले और फलवाले वृक्ष हानिप्रद हैं।

   पाकर, गूलर, आम, नीम, बहेड़ा, पीपल, कपित्थ, बेर, निर्गुण्डी, इमली, कदम्ब, बेल तथा खजूर- ये सभी वृक्ष घरके समीप अशुभ हैं।

    गृहके समीपस्थ अशुभ वस्तुएँ – देवमन्दिर, धूर्तका घर, सचिवका घर अथवा चौराहेके समीप घर बनानेसे दुःख, शोक तथा भय बना रहता है।

    मुख्य द्वार जिस दिशामें द्वार बनाना हो, उस और मकानकी लम्बाईको बराबर नौ भागोंमें बाँटकर पाँच भाग दायें और तीन भाग बायें छोड़कर शेष (बायीं ओरसे चौथे) भागमें द्वार बनाना चाहिये। दायाँ और बायाँ भाग उसको माने, जो घरसे बाहर निकलते समय हो।

    पूर्व अथवा उत्तरमें स्थित द्वार सुख-समृद्धि देनेवाला होता है। दक्षिणमें स्थित द्वार विशेषरूपसे स्त्रियोंके लिये दुःखदायी होता है।

   द्वारका अपने-आप खुलना या बंद होना अशुभ है। द्वारके अपने-आप खुलनेसे उन्माद रोग होता है और अपने-आप बंद होनेसे दुःख होता है।

    द्वार-वेध-मुख्य द्वारके सामने मार्ग या वृक्ष होनेसे गृहस्वामीको अनेक रोग होते हैं। कुआँ होनेसे मृगो तथा अतिसाररोग होता है। खम्भा एवं चबूतरा होनेसे मृत्यु होती है। बावड़ी होनेसे अतिसार एवं संनिपातरोग होताj है। कुम्हारका चक्र होनेसे हृदयरोग होता है। शिला होनेसे पथरीरोग होता है। भस्म होनेसे बवासीररोग होता है।

यदि घरको ऊँचाईसे दुगुनी जमीन छोड़कर वेध- वस्तु हो तो उसका दोष नहीं लगता।

  गृहमें जल-स्थान-कुआँ या भूमिगत टंकी पूर्व, पश्चिम, उत्तर अथवा ईशान दिशामें होनी चाहिये। जलाशय या ऊर्ध्व टंको उत्तर या ईशान दिशामें होनी चाहिये।

  यदि घरके दक्षिण दिशामें कुआँ हो तो अद्भुत रोग होता है। नैऋत्य दिशामें कुआँ होनेसे आयुका क्षय होता है।

  घरमें कमरोंकी स्थिति- यदि एक कमरा पश्चिममें और एक कमरा उत्तरमें हो तो वह गृहस्वामीके लिये मृत्युदायक होता है। इसी तरह पूर्व और उत्तर दिशामें कमरा हो तो आयुका ह्रास होता है। पूर्व और दक्षिण दिशामें कमरा हो तो वातरोग होता है। यदि पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशामें कमरा हो, पर दक्षिणमें कमरा न हो तो सब प्रकारके रोग होते हैं।

    गृहके आन्तरिक कक्ष स्नानघर ‘पूर्व’ में, रसोई ‘आग्नेय’ में, शयनकक्ष ‘दक्षिण’ में, शस्त्रागार, सूतिकागृह,j गृह-सामग्री और बड़े भाई या पिताका कक्ष ‘नैऋत्य’ में, शौचालय ‘नैर्ऋत्य’, ‘वायव्य’ या ‘दक्षिण-नैऋत्य’ में, भोजन करनेका स्थान ‘पश्चिम’ में, अन्न भण्डार तथा पशु-गृह ‘वायव्य’ में, पूजागृह ‘उत्तर’ या ‘ईशान’ में, जल रखनेका स्थान ‘उत्तर’ या ‘ईशान’ में, धनका संग्रह ‘उत्तर’ में और नृत्यशाला ‘पूर्व, पश्चिम, वायव्य या आग्नेय’ में होनी चाहिये। घरका भारी सामान नैऋत्य दिशामें रखना चाहिये।

    जानने योग्य आवश्यक बातें- ईशान दिशामें पति-पत्नी शयन करें तो रोग होना अवश्यम्भावी है।

   सदा पूर्व या दक्षिणकी तरफ सिर करके सोना चाहिये। उत्तर या पश्चिमकी तरफ सिर करके सोनेसे शरीरमें रोग होते हैं तथा आयु क्षीण होती है।

    दिनमें उत्तरकी ओर तथा रात्रिमें दक्षिणकी ओर मुख करके मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये। दिनमें पूर्वकी ओर तथा रात्रिमें पश्चिमकी ओर मुख करके मल-मूत्रका त्याग करनेसे आधासीसीरोग होता है।

   दिनके दूसरे और तीसरे पहर यदि किसी वृक्ष, मन्दिर आदिकी छाया मकानपर पड़े तो वह रोग उत्पन्न करती है।

  एक दीवारसे मिले हुए दो मकान यमराजके समान गृहस्वामीका नाश करनेवाले होते हैं।

  किसी मार्ग या गलीका अन्तिम मकान कष्टदायी होता है।

    घरकी सीढ़ियाँ (पग), खम्भे, खिड़कियाँ, दरवाजे आदिकी ‘इन्द्र-काल-राजा’- इस क्रमसे गणना करे। यदि अन्तमें ‘काल’ आये तो अशुभ समझना चाहिये।

  दीपक (बल्ब आदि) का मुख पूर्व अथवा उत्तरकी ओर रहना चाहिये।

   दन्तधावन (दातुन), भोजन और क्षौरकर्म सदा पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके ही करने चाहिये।

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