पुष्पा गुप्ता
कैसा इतिहासबोध है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के बाद वैदिक युग आया? कहाँ सिंधु घाटी की सभ्यता का नगरीय जीवन और कहाँ वैदिक युग का ग्रामीण जीवन! भला कोई सभ्यता नगरीय जीवन से ग्रामीण जीवन की ओर चलती है क्या?
सिंधु घाटी के बड़े – बड़े नगरों के आलीशान भवनों की जगह कैसे पूरे उत्तरी भारत के वैदिक युग में अचानक नरकूलों की झोंपड़ी उग आईं? तुर्रा यह कि ये नरकूलों की झोंपड़ियाँ उसी पश्चिमोत्तर भारत में उगीं, जहाँ बड़े -बड़े सिंधु साम्राज्य के भवन थे. क्या आपको ऐसा इतिहास – बोध उलटा नहीं लगता है?
आप पढ़ाते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता में लेखन – कला विकसित थी और फिर उसके बाद की वैदिक संस्कृति में पढ़ाने लगते हैं कि वैदिक युग में लेखन – कला का विकास नहीं हुआ था। वैदिक युग में लोग मौखिक याद करते थे और लिखते नहीं थे। ऐसा भी होता है क्या? पढ़ी – लिखी सभ्यता अचानक अनपढ़ हो जाती है क्या?
आप यह भी पढ़ाते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता में मूर्ति – कला थी। फिर उसके बाद पढ़ाते हैं कि वैदिक युग में मूर्ति – कला नहीं थी। क्या यह सब उलटा नहीं है ?
भारत में स्तूप – स्थापत्य, लेखन – कला, मूर्ति – कला, बर्तन – कला आदि का विकास निरंतर हुआ है। कोई गैप नहीं है। यदि इतिहास में ऐसा गैप आपको दिखाई पड़ रहा है तो वह वैदिक संस्कृति को भारतीय इतिहास में ऐडजस्ट करने के कारण दिखाई पड़ रहा है।
स्तूपों का इतिहास, लेखन -कला का इतिहास, मूर्ति-कला का इतिहास सभी कुछ सिंधु घाटी सभ्यता से निरंतर मौर्य काल और आगे तक जाता है।
बशर्ते कि आप मान लीजिए कि सिंधु साम्राज्य से लेकर मौर्य साम्राज्य और आगे तक टूटती – जुड़ती बौद्ध सभ्यता की कड़ियाँ थीं।
भारत में मौजूद सभी स्तूपों को मौर्य काल के बाद का बताया जाना गलत है। अनेक स्तूप सिंधु घाटी सभ्यता के काल के हैं, कुछ सिंधु घाटी सभ्यता के बाद के हैं, कुछ मौर्य काल के हैं, कुछ मौर्य काल के बाद के भी हैं।