अग्नि आलोक
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वैदिक दर्शन : अभेद/अद्वैत और व्यवहारिक जीवन 

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       अनामिका, प्रयागराज 

व्यवहार में अनेकता है, भेद भाव है। यहाँ संसार है। संसार में द्वैत है, द्वन्द्व है, संघर्ष है, समस्या है। किसी का कोई मित्र है तो उसका शत्रु भी कोई न कोई होगा- ऐसा सर्वत्र है।

    जिसका न कोई मित्र है, न कोई शत्रु है, वह समाज से परे है और वह समाज के लिये व्यर्थ है।

     अद्वैत की बातें सत्य होते हुए भी व्यवहार में लाना संभव नहीं हैं। शिव ब्रह्म थे। कृष्ण ब्रह्म थे। योगी ब्रह्म होता है। सन्त ब्रह्म होता है। ये सब शत्रु-मित्र युक्त हुए हैं, होते हैं। 

    वेदों ने अवतारवाद का विधान नहीं किया है. अवतारवाद मिथ्या पौराणिक कल्पना है. ब्रह्मा जन्मजात नहीं होता. ब्रह्मा आत्मज्ञान, आत्मबोध और तत्संदर्भित कर्म से बना जाता है.

   तो ब्रह्मा लोगों के भी शत्रु होते हैं. शत्रु और मित्र अनायास होते हैं। मित्र होना कष्टप्रद नहीं होता। शत्रु होने से व्यक्ति कष्ट पाता है। 

    अद्वैत, अभेद का वैदिक दर्शन व्यवहारिक जीवन में प्रयोगशील नहीं है, इसीलिए मंत्र साधना, ध्यान साधना से बोध अर्जन की व्यवस्था की गई है.

     संसार में जितने लोग हैं, वे सब निजता के भाव से विहीन नहीं हैं। व्यष्टिभाव समष्टिभाव जगने नहीं देता. इसलिए आंतरिक हों या बाहरी, सब के शत्रु हैं। शत्रुओं से निपटना पड़ता है। 

    जो आत्मोन्नति से विमुख है, वह ईसनिंदक है : ईसनिंदक स्वयं का शत्रु है. जो जिससे द्वेष करे, वह उसका शत्रु है। जब दो लोग परस्पर द्वेष करते हैं तो वे एक दूसरे के शत्रु हुए। 

शत्रु नाश का सरल उपाय ऋषियों ने बताया है :
अग्ने यत् ते तपः तेन तं प्रतितप।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ १॥
अग्ने यत् ते हरः तेन तं प्रतिहर
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ २॥
अग्ने यत् ते अर्चिः तेन तं प्रत्यर्च।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ ३॥
अग्ने यत् ते शोचिः तेन तं प्रतिशोचI
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ ४॥
अग्ने यत् ते तेजः तेन तं अतेजस कृणु।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः।। ५।।
~अथर्ववेद {काण्ड २, सूक्त १९ }
सरसों का बीज प्रज्ज्वलित अग्नि में डालते हुए अथवा सरसों के तेल का दीपक जला कर उसके सम्मुख लाल रंग के ऊनी आसन पर बैठ कर इस सूक्त का पाठ / जप करना चाहिये।

वायो यत् ते तपः तेन तं प्रतितपI
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ १॥
वायो यत् ते हरः तेन तं प्रतिहर ।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ २॥
वायो यत् ते अर्चिः तेन तं प्रत्यर्च ।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ ३॥
वायो यत्ते शोधितेन तं प्रतिशोच
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ ४॥
वायो यत् ते तेज तेन तं अतेजसं कृणु।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ ५॥
~अथर्ववेद [काण्ड २, सूक्त २०]
इस सूक्त का पाठ / जाप ऐसे स्थान पर करना चाहिये जहाँ शीतल मन्द सुगन्ध वायु चल रही हो। स्थान खुला हुआ होना चाहिये, बन्द / कक्ष नहीं। काले वा नीले रंग का ऊनी आसन होना चाहिये। वायु की दिशा में मुख करके बैठना चाहिये।

सूर्य यत् ते तपः तेन तं प्रतितप।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ १॥
सूर्य यत् ते हरः तेन तं प्रतिहर।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ २॥
सूर्य यत् ते अर्चिः तेन तं प्रत्यर्च।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ ३॥
सूर्य यत् ते शोचि तेन तं प्रतिशोच
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ ४॥
सूर्य यत् ते तेजः तेन तं अतेतजं कृणुI
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ ५॥
~अथर्ववेद {काण्ड २ सूक्त २१}
इस सूक्त का पाठ दिन में सूर्याभिमुख होकर करना चाहिये। चमकते हुए सूर्यमण्डल की ओर अधमुंदी आँखें हों। गौरिक रंग का ऊनी आसन हो। आकाश के नीचे वा किसी पूज्य वृक्ष की छाया में बैठ कर पाठ प्रशस्त होता है।

चन्द्र यत् ते तपः तेन तं प्रतितप।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ १॥
चन्द्र यत् ते हरः तेन तं प्रतिहर।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ २॥
चन्द्र यत् ते अर्चिः तेन तं प्रत्यर्च।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ ३॥
चन्द्र यत् ते शोचिः तेन तं प्रतिशोच।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ ४॥
चन्द्र यत् ते तेजः तेन तं अतेजस कृणु।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः।। ५।।
~अथर्ववेद [काण्ड २, सूक्त २२]
इस सूक्त का पाठ रात में चन्द्रमा की किरणों से स्नान करते हुए करना चाहिये। चन्द्रमा में पर्याप्त प्रकाश हो अर्थात् शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक एवं कृष्ण १ से कृष्ण पञ्चमी तक का चन्द्रमा हो पाटल (पीत रक्त वर्ण का आसन हो।

आपो यद् वः तपः तेन प्रतितपत।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ १॥
आपो यद् बोकि तेन तं प्रत्यर्चत।
वोऽचिः योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ २॥
आपो यद वो हर तेन तं प्रतिहरतI
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ ३॥
आपो यद् वः शोचि तेन तं प्रतिशोचत।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥ ४॥
आयो यद् वस्तेजः तेन तं अतेजसं
कृणुत।
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्टः॥ ५॥
~अथर्ववेद [काण्ड २, सूक्त २३]
इस सूक्त का पाठ सामने जल से भरा हुआ पात्र/ कलश रख कर अथवा नदी, समुद्र, सरोवर, झील,प्रपात, आकाशीय जल (वर्षा) को उपस्थिति में श्वेत रंग के आसन पर बैठ कर करना चाहिये।

ऐसा कौन है, जिसे शत्रु का भय नहीं। यहाँ का राजा सूर्य तथा चन्द्रमा सतत राहु से भय पाते हैं। राहु इन दोनों को प्रसता है। ग्रहों में राहु भी एक ग्रह है। सूर्य इससे नहीं पसा जाता। सूर्य चन्द्रमा को जो राहु प्रसता है, वह इससे भिन्न है।
मह-मण्डली वाले राहु से चन्द्रमा हर महीने युत होता है, किन्तु महण नहीं लगता। सूर्य वर्ष में एक बार अवश्य इस से युत होता है। इस राहु की युति में भी ग्रहण नहीं लगता। क्योंकि यह राहु उस (ग्रहणकारक) राहु से भिन्न है। उस राहु का अर्थ है- छाया वा अन्धकार।
अन्धकार का अर्थ है- प्रकाश का अभाव। प्रकाश का अर्थ है-ज्ञान। इस प्रकार, अन्धकार = अज्ञान = राहु राहु नाम अज्ञान का है। मानवमात्र का शत्रु है- अज्ञान। षष्ठ भाव है-अज्ञान। सब लोग अज्ञान से त्रस्त हैं। एक मात्र ज्ञानी शत्रु विहीन है। जो सर्व विद्याप्रवीण है, वह ज्ञानी है।

विद्या हि का ? ब्रह्मगति प्रदा या।
बोधो हि को ? यस्तु विसक्ति हेतुः।
~शंकराचार्य ( प्रश्नोत्तरी).
अर्थात :
प्रश्न. विद्या क्या है?
उत्तर. जो ब्रह्मगति दे.
[ जीव को ब्रह्म कर दे]
प्रश्न. बोध क्या है?
उत्तर. जो आसक्ति न होने दे।
[बोध = ज्ञान]

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