~डॉ. विकास मानव
मानव की देह के शिरोभाग में ७ छिद्र है, ऊर्ध्वध्रुव है. अधोभाग में २ छिद्र, पातालध्रुव है।
ऊर्ध्वध्रुव= उत्तरी ध्रुव। पातालध्रुव= दक्षिणी ध्रुव.
कपाल का ऊपरी मध्य क्षेत्र उत्तर ध्रुव है तथ मूलाधार क्षेत्र (पायु औरउपस्थ के बीच का स्थान) दक्षिणध्रुव है।
यह देह पृथ्वी है। पृथ्वी एक चुम्बक है। इसी प्रकार देह भी एक चुम्बक है। इसमें लौह तत्व, जिसके कारण रक्त लालरंग का होता है, अधिक है।
इसलिये इसे अयस्मणि कहते हैं। पृथ्वी में भी लौह तत्व बहुत है। पृथ्वी के दो ध्रुव हैं। इसमें उत्तरध्रुव की परिकल्पना ऊपर तथा दक्षिण ध्रुव की नीचे की गई है।
उत्तरी गोलार्थ में भूभाग अधिक है तो दक्षिणी गोलार्ध में जल भाग अधिक है। ठीक ऐसा ही हमारा शरीर है। मनुष्य देह पृथ्वी का प्रतिरुप प्रतिदर्श है। दोनों अवस्मणि हैं। दोनों जीवमय हैं। दोनों धातुमय हैं। दोनों मूलमय हैं। इन दो अयस्मणियों / चुम्बकों का परस्पर तालमेल कैसे हो ? इस पर ऋषियों ने विचार किया और निर्देश दिया कि उत्तर की ओर सिर करके नहीं सोना चाहिये।
इस महावैज्ञानिक सत्य को मैं सतर्क बुद्धिगम्य बना कर यहाँ प्रस्तुत करता हूँ।
विपरीत चुम्बकीय ध्रुव एक दूसरे को आकर्षित करते हैं तथा समान चुम्बकीय ध्रुव परस्पर विकर्षित होते हैं। समान ध्रुवों के योग से अस्थिरता/ अशांति तथा असमान ध्रुवों के योग से स्थिरता/ शांति प्रस्फुटित होती है। इसको समझने के लिये चुम्बक की प्रकृति का सामान्य ज्ञान होना आवश्यक है।
लोहे के आयताकार दण्डाकृति चुम्बक का यह चित्र है। उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक चुम्बकीय ऊर्जा के प्रवाह को यहाँ बिन्दु रेखाओं से चित्रित किया गया है। मनुष्य का शरीर एक चुम्बक है। इसमें भी ऊर्जा का प्रवाह ऊपर (सिर) से नीचे (मूलाधार) तक सतत होता रहता है।
पृथ्वी एक नैसर्गिक महाचुम्बक है। इसमें उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव पर्यंत निरन्तर ऊर्जा तरंगों का प्रवदन होता रहता है। बड़ा चुम्बक पृथ्वी, छोटे चुम्बक मानव शरीर को नियंत्रित करती है। मनुष्य का सिर उत्तर ध्रुव है। इसे पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव की ओर करने पर ऊर्जा का चयन होता है। इसे पृथ्वी के दक्षिणी ध्रुव की ओर रखने पर ऊर्जा का संचयन होता है।
इसलिए उत्तर की ओर सिर नहीं करना चाहिये, दक्षिण की ओर सिर करके सोना चाहिये। इससे जीवन ऊर्जा दृढ़ होती है। दो सिर आपस में सटे हुए नहीं होने चाहिये। इससे भी प्राण शक्ति का क्षरण होता है। स्त्री/पुरुष पति पत्नी एक शय्या परपरस्पर संश्लिष्ट होकर अधिक काल तक सदा शयन करते हैं तो इससे उनकी आयु क्षीण होती है, मानिसक शांति भंग होती है, अनिद्रा होती है, दोनों में विरोध बढ़ता है, प्रेम शैथिल्य होता है, कामशक्ति क्षीण होती है।
दक्षिण दिशा में पैर चुम्बकीय ऊर्जा का प्रवाह एवं दिशा करके जब स्त्री पुरुष सोते हैं तो महान् अनर्थ उपस्थित होता है। उत्तर दिशा में सिर कर के जब गर्भाधान किया जाता है तो इससे गर्भ में जो शिशु पलता है, उसमें मानसिक विकलता होती है मानिसक रूप से विकलांग जातक इसी भूल के फल हैं।
इस स्थिति में वर्जित काल का योग होने पर उत्पन्न सन्तान शारीरिक रूप से भी विकलांग होती है। विश्व चुम्बकीय ऊर्जा के नैसर्गिक प्रवाह को अवरुद्ध करने का परिणाम कितना भयंकर है । भौगोलिक उत्तर दिशा एवं चुम्बकीय उत्तर दिश में (२३.१/२)° अंश की दूरी है। क्योंकि पृथ्वी अपने ऊर्ध्वाधर अक्ष से (२३.१/२)° अंश दायीं ओर झुकी हुई होकर सूर्य देव की परिक्रमा करती है।
इसलिये अपने शयन स्थान में दिशा निर्धारण के लिये कृत्रिम चुम्बक / दिग्दर्शीयन्त्र की सहायता लेना चाहिये। उत्तर की ओर मुँह कर के खड़ा होने पर दाहिनी दिशा पूर्व होती है। पृथ्वी को अक्ष का झुकाव दाहिनी ओर अर्थात् पूर्व दिशा में है।
इस झुकाव के कारण सूर्योदय ठीक पूर्व दिशा में कभी नहीं होता। सूर्य सदा पूर्व दिशा के उत्तरी भाग को अपने आगमन के लिये चुनता है।
पृथ्वी को हुई स्थिति में सूर्य की दक्षिणावर्त परिक्रमा करती है। क्यों ? महापुरुष/स्त्री के सम्मुख गर्वोन्नत नहीं रहना चाहिये। उनके सामने तनिक झुक जाना चाहिये (देह और मन दोनों से), विनम्र होना चाहिये। अपने कल्याण के लिये उनकी परिक्रमा दक्षिणावर्त होकर करनी चाहिये। इसका उपदेश पृथिवी मौन हो कर अपने आचार से देती है। इसलिये यह हम सब की प्रथम गुरु है, हमारी माता है।
कर्शफस्य विशफस्य द्यौः पिता पृथिवी माता। ~अथर्ववेद (३।९।१).
कर्-शफस्य वि-शफस्य = हाथ पैर वाले तथा बिना पैर वाले अर्थात् क्रियाशील एवं अक्रिय चर एवं अचर प्राणियों का पिता आकाश एवं माता पृथिवी है।
द्यौष्ट्वा पिता पृथिवी माता। (अथर्व २।२८।४)
द्यौः त्वा पिता = आकाश तेरा (सब प्राणियों का पिता है, पृथिवी माता है।
यासां द्यौः पिता पृथिवी माता समुद्रो मूलं वीरुधां बभूव। (अथर्व ३।२४।६)
जिन (इन) वीरुधों का पिता द्यौ माता पृथिवी तथा मूल समुद्र है।
पृथिवी का पिता सूर्य है। यह अपने पिता की परिक्रमा दायीं ओर झुक कर स्वकल्याण के लिये। निरन्तर करती रहती है।
आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः। पितरं च अयन्त्स्वः।।
आ-अयम् गौः पृश्निः अक्रमीत् असदत् मातरम् पुरः।
पितरम् च प्रयन् तु अस्वः॥
(यजुर्वेद ३।९, अथर्ववेद ६।३१ ।१,२०)
अन्वय : अयम् पृश्निः च अस्वः गौः, मातरम् असद पितरम् पुरः प्रयन्तु आ-अक्रमीत्। १२ पदों वाला यह मन्त्र असाधारण एवं अपने आप में विश्व है।
पृश्निः= स्पृश् +नि ,नि. पृषो सलोपः। छोटी, बौनी, सुकुमारी, दुबली-पतली, तुच्छ, नाना रूपों से रन्जित अष्टवर्णा चितकबरी पृश्निरिति अन्तरिक्षनाम( निघण्टु : १।४), किन्तु यहां यह अर्थ अग्राह्म है।
अस्वः = अस् गतौ असति-ते क्विप् + वांगतौ वाति + ड। अस्वः = अस् + वः। बिना रुके हुए वायुसदृश चलने / उड़ने वाली अस्य = अकिञ्चन, निरीह, तुच्छ। यह इसका रूढ़ अर्थ है। किन्तु यह यहाँ ग्राह्य नहीं है।
गौः= गो + सु ।पृथिवी गौरिति पृथिवी.
(निघण्टु : १।१)
मातरम् = अन्तरिक्ष में। “मातरिश्वा वायुः मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति, मातरि अशु अनितीति वा। “(निरुक्त ७।७।२६)
असदत् = स्थित हुई।
अयम् = यह पृथिवी।
पितरम् = पालक पोषक रक्षक सूर्य।
पुः = सामने, आगे की ओर, (पश्चिम से) पूर्व की ओर, (उत्तर से) दायीं ओर, दक्षिणावर्त होकर।
प्रयन् = प्रयत् + सु प्रयाण करती हुई, जाती हुई।
तु= निश्चय से, निस्संदिग्ध रूप से।
आ-अक्रमीत् = सूर्य के परितः परिक्रमण शील रहती है, सूर्य के चारों ओर घूमती रहती है।
मन्त्रार्थ = लघु आकार वाली अत्यन्त तुच्छ (सूर्य की तुलना में) बिना रुके हुए निरन्तर गतिशील यह पृथिवी अन्तरिक्ष में टिकी हुई है। यह सूर्य के चारों ओर दक्षिणावर्त क्रम से चलती हुई अबाध रूप से परिक्रमणशील है।
लाखों करोड़ों वर्ष पहले वेद ने इस सत्य का उद्घाटन किया। उनकी यह थाती हमारे पास अब भी सुरक्षित है। हम इसे न जाने तो दोष किसका ? जो जाने और उसे न बताए तो दोष उसका मैं क्यों दोषी बनूं ? यह ऋषि सम्पत्ति है इसे लुटा रहा हूँ। अपना तो कुछ भी नहीं है। अपनेपर भगवत् कृपा है, क्योंकि इस निधि के निकट हूँ। शयन में दिशा का ध्यान रखना, विचार करना आवश्यक है।
किसी भी दिशा की ओर मुख करके भोजन करना, पूजा करना, अनुष्ठान करना प्रशस्त है। भवन का प्रवेश द्वार परिस्थिति के अनुकूल किसी भी दिशा में रखना मान्य है। क्योंकि इन सब सन्दर्भों में चुम्बकीय प्रभाव बाधक / साधक कुछ भी नहीं है।
कुण्डली में लग्न सिर स्थानी होने से उत्तर ध्रुव है तथा सप्तम भाव मूलाधारीय होने से दक्षिण ध्रुव है। लग्न कपाल क्षेत्र है तो सप्तम मूलाधार प्रदेश है। लग्नको नैसर्गिक राशि मेष है। इसका स्वामी मंगल है। मंगल क्रोधाग्नि है। सप्तम की नैसर्गिक राशि तुला है। तुला का अधिपति शुक्र है। शुक्र कामाग्नि है। इन दोनों अग्नियों में परस्पर विनिमय होता रहता है। अर्थात् क्रोधाग्नि, कामाग्नि में परिवर्तित होती है तथा कामाग्नि, क्रोधाग्नि में बदल जाती है।
काम भाव से क्रोध परास्त होता है। काम की पूर्ति न होने पर यही काम, क्रोध बन कर उभरता है। यह अभौतिक/मानसिक चुम्बकीय क्षेत्र अत्यन्त दुरूह एवं अनन्त है। इसका वर्णन शक्य नहीं। शुक्र और मंगल के सम्बन्ध से काम एवं क्रोध दोनों दूषित होते हैं।
इस अपार्थिव/ भावनामय चुम्बक की गति पार्थिव / दैहिक चुम्बक से भिन्न है। इसमें उत्तरी ध्रुव (क्रोध), उत्तरी ध्रुव (क्रोध) को आकर्षित करता है-क्रोध को देखकर क्रोध भड़कता है। ऐसे ही दक्षिणी ध्रुव (काम) दक्षिणी ध्रुव (काम) को अपनी ओर खींचता है-काम को देखकर काम जागृत होता है। सामान्य मनुष्याण की यही गति है। कामजयी, क्रोधजयी व्यक्ति की बात कुछ और है। ये असाधारण है। तेम्यः नमः।
प्रदूषित काम वाला व्यक्ति दूसरे पक्ष से अपना स्वार्थ सिद्ध करने के बाद उसे हानि पहुँचाता है। जैसे- बलात्कार पूर्वक सहवास तथा बलात्कारी द्वारा बलात्कार के आखेट की सहसा हत्या करना।
प्रदूषित क्रोध वाला व्यक्ति दूसरे पक्ष द्वारा अपना कार्य साधन न करने के कारण उत्पन्न क्रोध से स्वयं अपने को यातना देता है तथा प्रतिपक्ष के सुकृत की अवहेलना कर अपने मानस को दूषित करता है।
इन दोनों प्रकार के प्रदूषणों से बचने का परम्परागत सरल उपाय है। चतुष्करणों की शुद्धिकैसे की जाय ? मन की शुद्धि प्राणायाम से, बुद्धि की शुद्धि सत्य से, चित्त की शुद्धि मंत्र जाप से तथा अहंकार की शुद्धि नाम से होती है।
नाम क्या है ? नम् + घञ् = नाम= झुकना, पृथ्वी की तरह उतना ही झुकना, जिससे पतन नहो । नाम का अर्थ- नम्र होना, विनयशील होना। पृथ्वी विनम्र है, (२३.१/२)° अंश। हमें भी इतना नम्र होना चाहिये। जो श्रेष्ठजनों, आदरणीय पुरुषों, ब्राह्मणों, सत्तावानों, शासकों, सन्तों, शीलवानों के सम्मुख नहीं झुकता, वह दुर्दशा को प्राप्त होता है। नाम संकीर्तन से व्यक्ति नाम हो जाता है। यह महान् अनुभूत सत्य है.
मन बुद्धि चित्त अहंकार के समन्वित रूप को चतुरात्मा विष्णु कहते हैं। चतुरात्मने विष्णवे नमः। सत्यात्मने नमः।
सर्व शुद्धि सत्संग से होती है। सत्संग का मतलब अंधभक्तों की भीड़ में बकबक करना या नाचना नहीं है. सत्संग यानी सत्य के, स्व के साथ रहना. सत्संगी का कभी पराभव नहीं होता। सत्संगिने नमः।