अग्नि आलोक
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वैदिक दर्शन : छठपूजा का शास्त्रीय आधार 

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          ~> कंचन कुमारी 

बिहार में ही छठ क्यों-भारत और विश्व में सूर्य के कई क्षेत्र हैं, जो आज भी उन नामों से उपलब्ध हैं। पर बिहार में ही छठ पूजा होने के कुछ कारण हैं।
मुंगेर-भागलपुर राजधानी में स्थित कर्ण सूर्य पूजक थे।
एक अन्य मिथक है कि
गया जिले के देव में सूर्य मन्दिर है। महाराष्ट्र के देवगिरि की तरह यहां के देव का नाम भी औरंगाबाद हो गया। मूल नामों से इतिहास समझने में सुविधा होती है।
गया का एक और महत्त्व है कि यह प्राचीन काल में कर्क रेखा पर था जो सूर्य गति की उत्तर सीमा है। अतः यहां सौर मण्डल को पार करनेवाले आत्मा अंश के लिए गया श्राद्ध होता है। सौर मण्डल को पार करने वाले प्राण को गय कहते हैं (हिन्दी में कहते हैं चला गया)।


“स यत् आह गयः असि-इति सोमं या एतत् आह, एष ह वै चन्द्रमा भूत्वा सर्वान् लोकान् गच्छति-तस्मात् गयस्य गयत्वम्।”
~गोपथ ब्राह्मण (पूर्व, ५/१४)
“प्राणा वै गयः।”
~ बृहदारण्यक उपनिषद् (५/१४/४)

अतः गया और देव-दोनों प्रत्यक्ष देव सूर्य के मुख्य स्थान हैं।बिहार के पटना, मुंगेर तथा भागलपुर के नदी पत्तनों से समुद्री जहाज जाते थे।
पटना नाम का मूल पत्तन है, जिसका अर्थ बन्दरगाह है, जैसे गुजरात का प्रभास-पत्तन या पाटण, आन्ध्र प्रदेश का विशाखा-पत्तनम्। उसके पूर्व व्रत उपवास द्वारा शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है जिससे समुद्री यात्रा में बीमार नहीं हों।
ओड़िशा में कार्त्तिक-पूर्णिमा को बइत-बन्धान (वहित्र – नाव, जलयान) का उत्सव होता है जिसमें पारादीप पत्तन से अनुष्ठान रूप में जहाज चलते हैं। यहां भी कार्त्तिक मास में सादा भोजन करने की परम्परा है, कई व्यक्ति दिन में केवल एक बार भोजन करते हैं। उसके बाद समुद्र यात्रा के योग्य होते हैं।
समुद्री यात्रा से पहले घाट तक सामान पहुंचाया जाता है। उसे ढोने के लिए बहंगी (वहन का अंग) कहते हैं। ओड़िशा में भी बहंगा बाजार है। बिहार के पत्तन समुद्र से थोड़ा दूर हैं, अतः वहां कार्त्तिक पूर्णिमा से ९ दिन पूर्व छठ होता है।

षष्ठी देवी-पुर या पिण्ड रूप में वर्णन पुरुष है। उसका प्राण रूप देव है। उसका क्षेत्र या विस्तार रूप स्त्री या देवी है। आधिभौतिक शब्दों में भी यही नियम है, १ केश पुल्लिङ्ग है, उनका समूह चोटी या दाढ़ी स्त्रीलिङ्ग है। सैनिक पुल्लिङ्ग किन्तु सेना, वाहिनी आदि स्त्रीलिङ्ग हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार अव्यक्त चेतन तत्त्व पुरुष है, पदार्थ रूप प्रकृति या माता है जिससे निर्माण हो रहा है। मातर से अंग्रेजी में मैटर हुआ है।
देवीभागवत पुराण स्कन्ध ९, अध्याय १ में प्रकृति के रूपों का वर्णन है। ५ नित्य रूप हैं, अन्य ३ जनन रूप हैं। इस रूप में ८ प्रकृतियों का वर्णन है :
(१) पार्वती रूप गणेश की माता है। पर्वत सीमाबद्ध पिण्ड है, जैसे ग्रह, तारा, ब्रह्माण्ड। पर्व उनकी सीमा है या २ पिण्डों के बीच सन्धि है।
१ पिण्ड कण है, उनका समूह गण है जिसकी गणना की जा सकती है। यह प्रत्यक्ष विश्व है, अतः गणपत्यथर्वशीर्ष में कहा है-त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्माऽसि। पार्वती को विष्णुरूपा नारायणी (आकाश के विस्तृत जल जैसे विरल पदार्थ के विस्तार या नार में निवास) कहा गया है। वह विष्णुमाया रूप में आकाश में फैली हैं। आकाश का गुण शब्द है, अतः इनका वर्णन है-विष्णुमायेति शब्दिता।
अन्तर्यामी रूप में ये सभी प्राणियों में स्थित बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, पिपासा, छाया, तन्द्रा, दया, स्मृति, जाति, क्षान्ति, भ्रान्ति, शान्ति, कान्ति, चेतना, तुष्टि, पुष्टि, लक्ष्मी, धृति, माया हैं। इन रूपों की स्तुति चण्डी पाठ अध्याय ५ में है।

(२) महालक्ष्मी-आकाश, पृथ्वी तथा अध्यात्म की दृश्य तथा अदृश्य सम्पत्तियों को महालक्ष्मी कहा गया है। दृश्य भाग लक्ष्मी तथा अदृश्य भाग श्री (बुद्धि, कीर्ति आदि) है (वाज. यजु, ३१/२२-श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ)।

(३) सरस्वती-श्री सम्पत्तियों के प्रयोग से विवेक, लय, संगीत, विचार आदि का प्रयोग सरस्वती हैं। इससे वाद्य यन्त्र, पुस्तक आदि का प्रयोग होता है। अतः सरस्वती मूर्ति के हाथ में वीणा, पुस्तक रहते हैं।

(४) सावित्री-गायत्री-दोनों का स्वरूप प्रायः एक ही है। स्रोत से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा सावित्री है, उसका प्रयोग गायत्री है। सौर मण्डल में सूर्य से उत्पन्न ऊर्जा सावित्री है, उसके जिस अंश से पृथ्वी पर जीवन चल रहा है, वह गायत्री है। मनुष्य के शरीर का निर्माण २४ वर्ष में पूरा होता है, पृथ्वी का आकार मनुष्य आकार को २४ बार २ गुणा करने पर ( १ कोटि गुणा) पृथ्वी का आकार होता है। अतः २४ अक्षरों का छन्द गायत्री है।
पृथ्वी आकार को पुनः २ घात २४ गुणा करने पर सावित्री (सौर मण्डल) है। इसी क्रम में गायत्री (२ घात २४ = १ कोटि) से गुणा करने पर सरस्वती (ब्रह्माण्ड में फैला द्रव), नियति (पूरे विश्व में रस रूप द्रव काप्रसार) है। अतः गायत्री को लोकों की माप कहा गया है।
(५) राधा-यह ५ प्राणों की अधिष्ठात्री देवी है। आकाश में ५ पर्वों की ५ तन्मात्रा है :
स्वायम्भुव मण्डल-प्रायः खाली स्थान-आकाश-शब्द गुण
परमेष्ठी मण्डल-गति या वायु रूप-स्पर्श
सौर मण्डल-तेज-रूप
चान्द्र मण्डल-द्रव जैसा विरल पदार्थ-रस
पृथ्वी-ठोस भूमि-गन्ध गुण।
अष्टधा प्रकृति रूप में ३ अन्य तत्त्व भी हैं-
(६) षष्ठी देवी-यह बीज रूप से जनन करती है। बच्चों के जन्म के ६ या २१ दिन के बाद उनकी पूजा की जाती है। बीज रूप पुरुष है, उसका गर्भ क्षेत्र षष्ठी देवी हैं।
“बीजं मा सर्वभूतानां विद्धि।”
~गीता (७/१०)
“प्रधानांश स्वरूपा या देवसेना च नारद।
मातृकासु पूज्यतमा साषष्ठी प्रकीर्तिता॥
स्थाने शिशूनां परमा वृद्धरूपा च योगिनी।
पूजा द्वादशमासेषु यस्या विश्वेषु सन्ततम्॥
पूजा च सूतिकाहारे पुरा षष्टदिने शिशोः।
एकविंशतितमे चैव पूजा कल्याणहेतुकी॥”
~देवीभागवत पुराण (९/१/७९-८१)

(७) मंगलचण्डिका-मुख से प्रकट हुई हैं। काली क्षय करने वाली हैं। इन दोनों की जोड़ी को यम-सूर्य कहा है जिससे सृष्टि होती है।
“पूषन्नेकर्षे यम-सूर्य प्राजापत्य व्यूहरश्मीन् समूहे.”
~ईशावास्योपनिषद्.

(८) पृथ्वी-पद रूप आधार होने से इसे पद्म भी कहा है-पद्भ्यां पृथिवी (पुरुष सूक्त, १४).
षडूर्वी देवी-वेद में षष्ठी देवी को षडूर्वी कहा गया है। उर्वी के कई अर्थ हैं-विस्तृत (उरु = बड़ा, जंघा, नगर, उर्वरा)। इनकी प्रार्थना ऋग्वेद सूक्त (१०/१२८) में है। भोजपुरी-मैथिली के अधिकांश छठ गीतों में ऐसी ही प्रार्थना है।
मम देवा विहवे सन्तु सर्व इन्द्रवन्तो मरुतो विष्णुरग्निः।
ममान्तरिक्षमुरुलोकमस्तु मह्यं वातः पवतां कामे अस्मिन्॥
इन्द्र सहित सब देव मरुत्, विष्णु और अग्नि मेरे संघर्ष में मेरा साथ दें। अन्तरिक्ष के समान विस्तृत लोक मेरा हो तथा वायु मेरी अभिलाषा के अनुसार मुझे पवित्र करे।
मयि देवा द्रविणमा यजन्तां मय्याशीरस्तु मयि देवहूतिः।
दैव्या होतारो वनुषन्त पूर्वेऽरिष्टाः स्याम तन्वा सुवीराः॥
देवगण मुझ स्तोता को धन दें। मैं यज्ञफल प्राप्त करूं एवं देवों को बुलाऊँ। मैं शरीर से निरोग एवं शोभन सन्तान वाला बनूँ।
मह्यं यजन्तु मम यानि हव्याकृतिः सत्या मनसो मे अस्तु।
एनो मा नि गां कतमच्चनाहं विश्वे देवा अधिवोचता नः॥
मेरे ऋत्विज मेरे हव्य आदि का यजन मेरे कल्याण के लिए करें। मेरा मनोरथ पूर्ण हो। मैं किसी भी पाप को न करूँ। सभी देव मुझे आशीर्वाद दें।
देवीः षडूर्वीरुरु नः कृणोत विश्वे देवास इह वीरयध्वम्।
मा हास्महि प्रजया मा तनूभिर्मा रधाम द्विषते सोम राजन्॥
~ऋग्वेद (१०/१२८/२-५)

षडूर्वी देवी मेरी उन्नति करें। सभी देवो! मेरे यज्ञ में वीरता का कार्य करो। मैं शरीर और प्रजा सम्बन्धी कोई हानि न उठाऊँ। हे राजा सोम! हम शत्रु के सामने न हारें।
षडूर्वी के अन्य उल्लेख हैं :
“त्रिकद्रुकेभिः पतति षडूर्वीरेकमिद् बृहत्।
त्रिष्टुब् गायत्री छन्दाँसि सर्वा ता यम आहिता॥”
~अथर्ववेद (१८/२/६, काण्व सं, ४०/११).
“अयं षडूर्वीमिमीत धीरः।”
(ऋक्, ६/४७/३)
“दुहामुर्वीर्यथाबलम्।”
(अथर्व, ३/२०/९)
“षडु सामानि षडहं वहन्ति ।”
(अथर्व, ८/९/१६)
“यदाहुर्द्यावापृथिवीः षडुर्वी।”
(अथर्व, ८/९/१६)
“षष्ठात् पञ्चाधिनिर्मिता।”
(अथर्व, ८/९/४) पञ्च-प्राणाधिदेवी के बाद षष्ठी निर्मिता।
छठ गीत-सोहर, छठ आदि पारम्परिक गीतों का उच्चारण वेद मन्त्रों की तरह होता है, हर अक्षर को अलग अलग पूरी तरह पढ़ा जाता है।
देवों की सहायता-होख ना कवन देव सहइया, बहंगी लचकत जाय।
स्वास्थ्य प्रार्थना :
बाझिन पुकारें देव दुनु कर जोरवा,
अरघ के रे बेरवा हो पूजन के रे बेरवा हो॥
अन्हरा पुकारे देव दुनु कर जोरवा,
अरघ के रे बेरवा हो पूजन के रे बेरवा हो॥
निर्धन पुकारे देव दुनु कर जोरवा,
अरघ के रे बेरवा हो पूजन के रे बेरवा हो॥
कोढ़िया पुकारे देव दुनु कर जोरवा,
अरघ के रे बेरवा हो पूजन के रे बेरवा हो॥
लंगड़ा पुकारे देव दुनु कर जोरवा,
अरघ के रे बेरवा हो पूजन के रे बेरवा हो॥
परिवार की हित कामना :
हम तोहसे पूछी बरतिया ए बरतिया के केकरा लागी।
के करेलू छठ बरतिया से केकरा लागी।
हमरो जे बेटवा तोहन अइसन बेटावा से उनके लागी।
से करेली छठ बरतिया से उनके लागी।
के करेलू छठ बरतिया से केकरा लागी।
हमरो जे स्वामी तोहन अइसन स्वामी से उनके लागी।
के करेलू छठ बरतिया से केकरा लागी।
हमरो जे बेटी तोहन बेटिया से उनके लागी।
चिति रूपी-शून्य आकाश (विन्दु मात्र) चित् है। चिन्-मात्रा = शून्य प्राय।
चित् विन्दुओं या उनके पदार्थों का विन्यास चिति है। विश्व में सभी पदार्थ अपने उपयुक्त स्थान पर स्थित हैं। शरीर के सभी अंग उपयुक्त स्थान पर हैं। शासन में लोगों का चयन कर उनको उपयुक्त कार्य दिया जाता है, यह चयन यज्ञ है। ईंटों का चयन कर भवन आदि निर्माण होता है-इष्टका चिति। अणु-परमाणु आदि से पदार्थों का निर्माण कई स्तर की चिति हैं। यह चिति रूप विश्व देवी का रूप है :
इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः॥
चितिरूपेण याकृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत्।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः॥
~दुर्गा-सप्तशती (अध्याय ५)

  जो चिति कर सके वह चेतना है। बिना चेतना के चिति द्वारा निर्माण नहीं हो सकता है। आन्धी से वृक्ष या भवन टूट सकते हैं, बन नहीं सकते। चेतना का निवास चित्त है। पुरुष को षष्ठी चिति कहा गया है।

“देवायतनं वै षष्टमहः।”
(कौषीतकि ब्राह्मण, २३/५)
“पुरुषो वै षष्टमहः, प्राजापत्यं वैषष्टमहः, अन्नं षष्टं अहः।”
(कौषीतकि ब्राह्मण)
आकाश में मूल रस से ७ लोक बने, अर्थात् ६ठी चिति के बाद। अतः पुरुष तथा विविध रूपों को षष्ठी चिति कहा गया है। हर चिति का निर्माण काल १ अहः (दिन) है (गीता, ८/१८)।
“देवक्षेत्रं वै षष्टमहः।”
(गोपथ ब्रा. उत्तर, ६/१०, ऐतरेय ब्रा, ५/९)
“पुरुष एव षष्टमहः।”
(कौषीतकि ब्रा, २३/४)
“सर्वरूपं वै षष्टमहः।”
(कौषीतकि ब्रा, २३/६, ८, २९/५)
“अन्तः षष्टमहः।”
(कौषीतकि ब्रा, २३/७, २६/८)
“शिर एव षष्ठी चितिः।”
(शतपथ ब्राह्मण, ८/७/४/१७)
वैज्ञानिक भाषा में विचार करें तो मनुष्य (या कोई भी वस्तु) कलिल (सेल) से बना है, कलिल अणु से, अणु परमाणु से, परमाणु कणों से, कण पितर से, पितर ऋषि से बने हैं।
(तथ्य संयोजन : डॉ. विकास मानव )

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