अग्नि आलोक
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*वैदिक दर्शन : भगवान् के केवल तीन नाम* 

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        डॉ. विकास मानव

      त्रीण्युष्ट्रस्य नामानि।

 ~अथर्ववेद काण्ड (२०/१३२/१३)

       त्रीणि उष्ट्रस्य नामानि उष्ट्र नाम परमात्मा का उप (दाहे) तथा त्रे (पालने, रक्षणे) धातुओं के मेल से उष्ट्र बनता है। वै जायते। उ ओपति जो पाप के कारण जलाता है, कष्ट देता है तथा पुण्य के कारण उद्धार करता है, सुख देता है, वह उष्ट्र नाम वाला है। अथवा जो ताप से त्राण दिलाता है, वह उष्ट्र है। उष्ट्र नाम परमात्मा, जय नाम धारी है। इसमें रहस्य है।

     अथर्ववेद के अंतिम काण्ड २० के अन्त में जो सूत्र दिये गये हैं वे कुन्ताप सूक्त के नाम से जाने जाते हैं। ये सूत्र लघु हो कर भी ब्रह्म हैं।

  आगे के मन्त्रों में तीन नामों का अनावरण हुआ है :

    हिरण्यं इत्येके अब्रवीत्।

 द्वौ वा ये शिशवः।

नीलशिखण्डवाहनः।

(अथर्व : २० । १३२। १४, १५, १६)

‘हिरण्यम्’ इति एके अब्रवीत्। तीन नामों में से उसका एक नाम हिरण्य है-ऐसा कई एक लोगों ने कहा है। यहाँ एके पद एक शब्द का प्रथमा बहुवचन है। एक = वेद । वेद चार हैं। इसलिये एके = चारों वेद। अर्थात् वेदों ने उसका नाम हिरण्य बतलाया है। अक यजु साम अथर्व में परमात्मा की स्तुति हिरण्य नाम से की गई है।

    हिरण्यं हितं च रमणीयं च हृदयरमणं भवति।

      (निरुक्त : २ । ३ । १०)

  परमेश्वर हितकर है, रमणीय है तथा हृदय में रमता है। इसलिये वह हिरण्य है।

हिरण्यरूपः स हिरण्य संदृक्।

     (ऋग्वेद : २ । ३५ । १०)

     नितान्त श्वेतवर्ण एवं/ अथवा अग्निवर्ण की ज्योति का हिरण्य है। यह वर्ण शान्तता युक्त है, उपशम कारक है, आह्लादक है। अतः विशुद्ध सत्व प्रधान है।

     द्वौ वा ये शिशवः नीलशिखण्डवाहनः।

   तथा दूसरे जो शिशु लोग अथवा शिष्यगण हैं, वे उस उष्ट्र नामक परमात्मा को नीलवाहन एवं शिखण्डिन् वा शिखण्डवाहन कहते हैं। नीलवर्ण/ धूमवर्ण/ कृष्णवर्ण, तमोगुण का प्रतीक है। नीलवाहन का अर्थ है, तमोगुण से युक्त शिखण्डवाहन कहते हैं, मयूर को। मयूर के सिर पर रंगविरंगी शिखा होती है। यह रजोगुण की प्रतीक है। अतः शिखण्डवाहन का अर्थ है, रजोगुणी। 

इस प्रकार परमात्मा के नाम के तीन स्वरूप हैं :

१. सतोगुणी

२.रजोगुणी

३. तमोगुणी

     तमोगुणी तथा रजोगुणी नामों को सतोगुणी की अपेक्षा कम महत्व का कहा गया है। शिशवः कथित होने से ये अल्प प्रशस्त हैं। जब कि एके (अषय) कथित होने से सतोगुणी नाम सुप्रशस्त हैं। इन्हीं तीन नामों की दीक्षा भीष्म ने युधिष्ठिर को तथा शिव ने पार्वती को क्रमशः महाभारत एवं पद्मपुराण में दी है। ये तीन नाम सहस्रनाम के रूप से विख्यात हैं। व्यापक होने से इन्हें विष्णु सहस्रनाम कहा गया है। इन नामों का रहस्य सत्यभाष्य में श्री पं. जी ने बहुत कुशलता से बताया है। अग्नि पुराण एवं स्कन्द पुराण में भी विष्णु सहस्रनाम का प्रकथन है।

      जितने भी नक्षत्र हैं, उनका प्रकाश हिरण्यवर्ण है। इन नक्षत्रों को धारण करने वाला आकाश हिरण्यगर्भ है। यह परमात्मा है। नीले रंग का नीलावर्ण वहन करने से आकाश नीलवाहन है। यह परमात्मा है। इस आकाश में पृथ्वी आदि अनेक ग्रह चित्रविचित्ररंग के हैं। इन बहुरंगों को अपने में रखने वाला आकाश शिखण्ड वाहन है। इन्द्रधनुष आकाश में प्रकट होता है। अनेकों रंग के बादल भी आकाश में दिखायी पड़ते हैं।

     कभी-कभी आकाश प्रातः सायं लाल वा पीले रंग का प्रतीत होता है। इन सब कारणों से इसे शिखण्ड वाहन कहा गया है। यह परमात्मा का नाम है। आकाश वा परमात्मा के यही तीन नाम वेदविहित हैं। कृष्ण का नाम नीलवाहन हैं, क्यों कि उनका रंग नीला वा काला है। कृष्ण का अन्य नाम शिखण्डवाहन है, क्योंकि वे अपने सिर पर मयूरपुच्छ का मुकुट धारण करते हैं।

      कृष्ण साक्षात् परमात्मा हैं। इसमें भागवत वाक्य प्रमाण हैं। वेद मन्त्र से स्पष्ट है कि ये दो नाम उतने महत्व के नहीं हैं, जितना कि हिरण्यम्। कृष्णपूर्ण ब्रह्म हैं। विष्णु ने अपने इस अवतार में सात्विक, राजसिक एवं तामसिक तीनों प्रकार की लीलाएँ की हैं। हिरण्य नाम के प्रभाव से सात्विक लीला, नीलवाहन नाम के प्रभाव से तामासिक लीला तथा शिखण्डवाहन नाम के प्रभाव राजसिक/ भोग परक लीलाओं का समापन हुआ है।

      हिरण्य नाम के कारण कृष्ण योगेश्वर के रूप में गीता का उपदेश देते हैं। नीलवाहन नाम के कारण अधार्मिक राक्षसादिकों का वध करते हैं। शिखण्ड वाहन नाम के योग से १६, १०८ (सोलह हजार एक सौ आठ) स्त्रियों का सम्यक् भोग करते हैं।

वेद विहित इन्हीं तीन नामों से कलियुग के पापताप कर्मवृत्ति से त्राण पाने के लिये कलिसंतरणोपनिषद् में इस महामंत्र का उपदेश किया गया है :

  हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।

 हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।

   कलिकाल के दुष्प्रभाव से बचने हेतु यह मंत्र सर्वोत्कृष्ट वा सर्वोपरि है। महाप्रभु गौर चैतन्य ने इसी का कीर्तन किया और करवाया है। इस मंत्र की अद्वितीयता का रहस्य है- यह मंत्र सप्त विभक्तियों से परे है। सभी पद संबोधन के हैं। इसके १६ पद (८+८ पद) ब्रह्म की १६ कलाएँ हैं। ‘षोडश कलाभिः पुरुषः। वेद सम्मत तीन ही नाम हैं-हरि, राम, कृष्ण।

     इन तीनों का सम्बोधन क्रमशः हरे, राम, कृष्ण है। इस मंत्र में प्रार्थना नहीं है, याचना नहीं है, केवल सम्बोधन (पुकार) मात्र है, दैन्य है, प्रपत्ति है। इसी लिये यह मंत्र कलियुग के लिये मंत्रराज है।

    वेद में जो हिरण्य है वही यहाँ हरि है। ‘ढ’ धातु से ये दोनों शब्द बने हैं। दोनों परस्पर पर्याय हैं। हरि = हरित्। सूर्य को हरिदश्व कहा गया है :

  हरिदश्वः सहस्रर्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।

     हरित् = हरण कर्ता। अश्व= शीघ्र जैसे सूर्य अपनी किरणों से पृथ्वी की दुर्गन्ध को खींच लेता है तथा पृथ्वी को दुर्गन्ध रहित कर देता है, वैसे ही परमात्मा का हरि नाम, कीर्तनकार वा जापक के दोषों को उससे खींच कर अपने में समाहित कर लेता है। दोष वा पाप का रंग काला / नीला है। हरित् वर्ण भी काले नीले की श्रेणी में आता है। अतः परमात्मा हरित् वर्ण है। इसलिये उसका नाम हरि है। आकाश हरि है, नील है, कृष्ण है। हरि से हरीतिमा का उदय होता है। आकाशस्थ वनस्पतियाँ हरी हैं।

     आकाश से दूर भूस्य मूल हरा नहीं होता। ईश्वर में जिसका मन लगा है वह हरा (प्रसन्न) है। जो ईश्वर विमुख है, वह हरा (प्रसन्न नहीं है। 

     जो दुष्ट व कलुषित विचारों को कीर्तनकार के हृदय से खींच कर अपने में रख लेता है, वह कृष्ण है। कृष् कर्षण विलेखने। जो सद्विचारों की रेखाएँ हृदय पटल पर खींचता है, वह भी कृष्ण है। यह कृष्ण नाम अद्भुत है। यह कंस हंता है। इस कलियुग में अधिकतर कंस ही कंस हैं। जो अस्ति और प्राप्ति के चक्कर में पड़ा है, वही कंस है। 

अस्ति प्राप्तिश्व कंसस्य महिष्यौ।।

       (भागवत : १०/५०/१) 

  मैंने अमुक अमुक भौतिक भोग प्राप्त कर लिया है तथा अमुक-अमुक भोग भोगने की इच्छा रखता हूँ-यही विचार रखने वाला कस है। इन विचारों का नाश कृष्ण नाम कीर्तन से होता है। हे कृष्ण। कृष्ण ! राम का अर्थ है, रम्य सुन्दर राम में काम तत्व है। जहाँ सौन्दर्य है, वहाँ काम है। अतः राम राजसिक नाम है। माया रज्जु से बँधा जीव राम से रम्य बनता है। सुन्दर आचार, सुन्दर व्यवहार, सुन्दर विचार, सुन्दर संसार, राम नाम के प्रताप से होता है। सुन्दर मन, सुन्दर तन, सुन्दन धन, राम नाम का फल है।

   कहा गया :

वो सुख पर पत्थर पड़ो, राम हृदय से जाये। 

बलिहारी वा दुःख की, पल पल राम जपाये॥

     हरि सात्विक नाम, कृष्ण तामसिक नाम, राम राजसिक नाम को मेरा प्रणाम ! वेद प्रशस्त नाम की महिमा के विषय में व्यास जी कहते हैं इसलिये मैं जपता हूँ- राम ! ओम् राम ! 

   आपन्नः संसृति घोरां यन्नाम विवशो गृणन्। ततः सद्यो विमुच्येत यद्विभेति स्वयं भयम्॥

       (भागवत : १ । १ । १४)

जन्म तथा मृत्यु के जाल में फंसे हुए जीव, यदि अनजान में भी परमात्मा के पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं तो तुरन्त मुक्त हो जाते हैं। क्योंकि साक्षात् भय भी इससे ( नाम से) डरता है। यह है नाम की महत्ता।

   इन नक्षत्रादिकों को धारण करने वाले एक मात्र विष्णु हैं :

   द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः।

 वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः।।

    (विष्णु सहस्रनाम : 134)

वास्तव में विष्णु ही नक्षत्र नेमि तथा नक्षत्री हैं “नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः। ( विष्णुसहस्रनाम).

    ६० सदा जागते रहने वाले अव्यक्तगति भगवान् काल के द्वारा जो ग्रह नक्षत्रादि ज्योतिर्गण निरन्तर घुमाये जाते हैं, ईश्वर ने ध्रुव लोक को ही उन सबके आधारस्तम्भ रूप से नियुक्त किया है। अतः एक ही स्थान में रह कर यह नक्षत्रमण्डल सदा प्रकाशमान रहता है।

   स हि सर्वेषां ज्योतिर्गणानां ग्रहनक्षत्रादीनामनिमिषेणाव्यक्तरंहसा भगवता कालेन भ्राम्यमाणानां स्थाणुरिवावष्टम्भ ईश्वरेण विहितः शश्वदवभासते।

(श्रीमदभागवत् : ५। २३ । २) 

     ध्रुव कहते हैं विष्णु को। काल भी विष्णु है। ध्रुव के चारों ओर घूमने का अर्थ है- इनकी गति व्यापक है। काल द्वारा घुमाये जाने का अर्थ है इनकी गति शाश्वत है।

 जिस प्रकार दाँय चलाने के समय अनाज को खूंदने वाले पशु छोटी, बड़ी, मध्यम रस्सी में बंध कर क्रमशः निकट दूर और मध्य में रह कर खंभे चारों ओर मण्डलाकार घूमते रहते हैं, उसी प्रकार सभी नक्षत्र तथा ग्रहगण बाहर भीतर के क्रम में इस काल चक्र से युक्त हो कर ध्रुव के आश्रय से वायु की प्रेरणा पा कर कल्प के अन्ततक घूमते रहते हैं।

    यथा मेढीस्तम्भ आक्रमणपशवः संयोजितास्त्रिभिस्त्रिभिः सवनैर्यस्थानं मण्डलानि चरन्त्येवं भगणाः ग्रहादय एतस्मिन्नतहियोगेन कालचक्र आयोजिता ध्रुवमेवावलम्व्यवायुनोदीर्यमाणा आकल्पान्तं परिचङ्क्रमन्ति।

      (श्रीमदभागवत : ५। २३ । ३)

 जिस प्रकार मेघ और बाज आदि पक्षी अपने कर्मों के द्वारा वायु के अधीन रह कर आकाश में उड़ते रहते हैं, उसी प्रकार ये (नक्षत्रादि) अपने कर्मवश घूमते हुए नीचे (भूपर) नहीं गिरते।

  नभसि यथा मेघाः श्येनादयो वायुवशाः कर्मसारयथः परिवर्तन्ते एवं

 ज्योतिर्गणाः प्रकृतिपुरुषसंयोगानुगृहीताः कर्मनिर्मितगतयो भुवि न पतन्ति।

   (श्रीमद्भागवत : ५। २३ । ३)

      जब भास्कर अस्ताचल की ओर प्रस्थान करते हैं तो निशा देवी का आगमन होता है। इस देवों के प्रकट होते ही ज्योतिर्गणों को दीपमाला से आकाश उद्भासित हो उठता है। ऐसे समय आकाश की भव्यता देखने योग्य होती है।

      ज्योतिर्गणों का यह चक्र चित्त को अपने सौन्दर्य से निरन्तर खींचता है। इसलिये इसे सुदर्शन चक्र भी कहते हैं। यह एक है। इसमें सहस्र केश हैं। इसमें ३६० अर (अंश) होरारूप से गुंथे हैं। इसमें १०८ चरण हैं। इन्हीं के सहारे यह चलता है। इसमें २७ गाँथे नक्षत्र रूप से जानी जाती हैं। इसमें १२ नेमियाँ हैं। इन्हें राशि कहते हैं। इसमें ३ बड़े बड़े जोड़ हैं। इन्हें गण्डमूल कहते हैं। जब राशि एवं नक्षत्र दोनों का प्रारम्भ वा अन्त साथ-साथ होता है तो वह क्षेत्र गण्डमूल नाम से जाना जाता है।

      यह नक्षत्रमाला सर्वदेवमय स्वरूप है। इसका चिन्तन करना चाहिये. इस भाव से कि, सम्पूर्ण ज्योतिर्गणों के आश्रय कालचक्र स्वरूप सर्वदेवाधिपति परम पुरुष परमात्मा का हम ध्यान करते हैं।

    एतदु हैव भगवतो विष्णोः सर्वदेवतामयं रूपमहरहः सन्ख्यायां प्रयतो वाग्यतो निरीक्षमाण उपतिष्ठेत नमो ज्योतिका कालापनायानिधियां पतये महापुरुषायाभिधीमहीति।

   (श्रीमद्भागवत : ५। २३ । ८)

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