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वैदिक दर्शन : पौराणिक युग से पूर्व शिव 

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         डॉ. विकास मानव 

   शिव पौराणिक कल्पना नहीं है. शिव संबंधी मन्त्र यजुर्वेद में भी पाए जाते हैं। उनमें से पहला यह प्रसिद्ध मन्त्र है, जो श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी पाया जाता है :

या ते रुद्र शिवा तनुरघोरापापकाशिनी।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि॥”
(यजु० १६।२)
अर्थात् हे रुद्र और सत्योपदेशों से सुख पहुंचाने वाले परमात्मन् ! जो तेरी शिवा = कल्याणकारी, अघोरा = उपद्रवरहित, अपापकाशिनी = धर्म का प्रकाश करने वाली काया है, उस शान्तिमय शरीर से आप हमें देखें, अर्थात् हमारे लिए कल्याणकारी आदि होइए, और अपने उपदेशों से हमें सुखों की ओर अग्रसर कीजिए।
यहां के संकेतात्मक शब्दों को देखते हैं :
~पहला शब्द ’रुद्र’। इससे शिव की क्रोधी छवि बनाई गई।
~दूसरा शब्द ’शिवा’ (स्त्रीलिंग) वैसे तो ’तनु’ अर्थात् शरीर का विशेषण है, तथापि उस को शिव की कल्पना में समाहित कर लिया गया।
~तीसरा शब्द है ’गिरिशन्त’। यो गिरिणा मेघेन सत्योपदेशेन वा शं सुखं तनोति तत्सम्बुद्धौ। गिरिरिति मेघनाम (निघण्टु १।१०).
अर्थात् गिरि = मेघ या (गॄ निगरणे/शब्दे/विज्ञाने से) सत्योपदेश से (शम् = सुख की (तन् = वृद्धि करने वाला। यह परमात्मा के लिए सिद्ध हुआ। परन्तु यदि हम ’गिरिशन्त’ का अर्थ करें ’गिरि पर शयन करने वाला’, तो हमें कैलाश पर्वत की कल्पना का आधार मिल जाता है।
तीसरे मन्त्र में ’गिरित्र’ शब्द पढ़ा गया है, जिसको भी ’गिरि पर रहना वाला’ के अर्थ में समझा जा सकता है। तीसरा मन्त्र यह भी कहता है :
यामिषुं गिरिशन्त हस्ते बिभर्ष्यस्तवे।”
(यजु० १६।३)
हे गिरिशन्त ! जो बाण आप हाथ में छोड़ने के लिए तैयार रखे हैं … । यहां से शिव-धनुष की कल्पना हम देख सकते हैं।
९-१४वें मन्त्रों में भी धनुर्धारी, निषंगधारी, हाथ में बाण छोड़ने को उद्यत शिव का कथन है और इक्यावनवे मन्त्र में तो हमें धनुष का नाम भी मिल जाता है – मीढुष्टम शिवतम शिवो … पिनाकम्बिभ्रदा गहि. हे शिव ! आप पिनाक अर्थात् धनुष धारण करके (हमारी रक्षा के लिए) आएं।

चौथा मन्त्र कहता है :
“शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि।
यथा नः सर्वमिज्जगदयक्ष्मं सुमना असत्॥ “
(यजु० १६।४ )
अर्थात् हे गिरिश ! हम आपकी कल्याणकारी वाणियों से स्तुति करते हैं जिससे कि आप प्रसन्न होकर सारे जगत् को यक्ष्म रोग से मुक्त कर दें। यह तो वस्तुतः पुराण का ही वचन लगता है.
इससे शिव की महावैद्य होने की कथा निकली और यहां पर प्रयुक्त ’गिरिश’ शब्द का अर्थ पुनः है ’गिरि पर लेटने वाला’।

पांचवे मन्त्र में भिषक् होने का कथन है, और यहां सर्पों का भी पदार्पण हो जाता है :
“अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्।
अहींश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योधराचीः परा सुव॥”
( यजु० १६।५ )
अर्थात् हे प्रथम दिव्य भिषक् ! आप उत्तम वैद्यक शास्त्र को पढ़ाएं जिससे कि सारे सर्पों का निवारण हों और दुर्दशा करने वाली ओषधियां दूर रहें। यहां ’अहीन्’ का अर्थ किया है : “सर्पवत् प्राणान्तकान् रोगान्”.
अर्थात् सर्प के समान प्राण-लेवा रोग। तथापि यहां से ही शिव का सर्पों के साथ सम्बन्ध रचा गया, यह अनुमान लगाया जा सकता है।

सांतवे मन्त्र में नीलकण्ठ का संकेत :
“असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः।
उतैनं गोपा अदॄश्रन्नदॄश्रन्नुदहार्य्यः स दृष्टो मृडयाति नः॥”
(यजु० १६।७)
अर्थात् जो ये नीले कण्ठ वाला, गहरा लाल नीचे को सरकता है, उसे गोपा और पानी ले जाने वाली स्त्रियां देखती हैं ; वह दिख जाने पर हमें प्रसन्न करे। यहां ’नीलग्रीव’ ’नीलकण्ठ’ का ही पर्याय है। ’विलोहित’ नाम भी शिव का प्रसिद्ध है।

आंठवे मन्त्र में ये अन्य कुछ विशेषण प्राप्त होते हैं :
“नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे।
अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः॥”
(यजु० १६।८)
अर्थात् नमन हो नीलकण्ठ के लिए, सहस्र आंखों वाले के लिए और वीर्यवान् के लिए !
जो उसके वीर्यवान् (अनुचर) हैं, उनको भी मैं नमन करता हूं। यहां हम शिव के सहस्राक्ष होने और वीर्यवान् होने की अभिकल्पना पाते हैं।
वैसे तो शिव का त्रिनेत्र रूप अधिक प्रसिद्ध है, परन्तु उनको सहस्राक्ष रूप में भी कहा गया है। उसके अनुचरों (किंकर) भी यहां दृष्टिगोचर हो जाते हैं। क्या ’अकर’ पद जो मन्त्र में पढ़ा गया है, उसी से ’किंकर’ शब्द निकला हो? इसकी भी सम्भावना है।

दसवें मन्त्र में शिव की प्रसिद्ध जटाएं :
यहाँ हां ’कपर्द्दिन’ शब्द का अर्थ ’प्रशंसित जटाजूट धारण करने वाला’ है। यह शब्द आगे के मन्त्रों में भी उपलब्ध होता है।
ग्याहरवें और बारहवें इन्हें मन्त्रों में ’हेति = वज्र’ धारण करने वाला भी बताया गया है।
जहां तक मुझे ज्ञात है वज्र को शिव से नहीं, अपितु इन्द्र से जोड़ा जाता है। सो, यहां हम पुराणों से प्रचलित परिकल्पना से भेद पाते हैं। अन्य आयुधों का भी मन्त्रों में वर्णन मिलता है। उनमें से विशेष है :
“अवतत्य धनुष्ट्वं सहस्राक्ष शतेषुधे।
निशीर्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव॥”
( यजु० १६।१३ )
अर्थात् हे सहस्राक्ष ! हे शत बाणों को धारण करने वाले ! धनुष को खींचकर और भाले की नोक को पैना करके, तुम हमारे लिए शिव और सुमन हो (हम पर उन्हें मत छोड़ो).
यहां त्रिशूल को तो नहीं कहा गया है, परन्तु भाले से सम्भवतः त्रिशूल निष्पन्न हुआ हो, ऐसा प्रतीत होता है।

आगे हम पाते हैं :
“पशुपतये च नमो नीलग्रीवाय च शितिकण्ठाय च ॥”
(यजु० १६।२८ )
पशुपति, नीलकण्ठ, कृष्णकण्ठ को नमन। इससे शिव का पशुपति रूप विकसित हुआ, ऐसा प्रतीत होता है।

उन्तिसवें मन्त्र में उपर्युक्त मुख्य सभी विशेषण पुनः पाए जाते हैं :
“नमः कपर्दिने च व्युप्तकेशाय च नमः सहस्राक्षाय च शतधन्वने च नमो गिरिशयाय च शिपिविष्टाय च नमो मीढुष्टमाय चेषुमते च.”
( यजु० १६।२९)
“नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च.”
( यजु० १६।४ )
स्पष्टतः, यहां से शिव के अन्य नाम ’शम्भु’ और ’शंकर’ लिए गए हैं। ’मयोभव’, ’मयस्कर’ और ’शिवतर’ नाम इतने लोकप्रिय नहीं हुए।
त्रिनेत्र, डमरू, पार्वती, गंगा, नन्दी, लिङ्ग, आदि की कल्पनाएं इस अध्याय में तो नहीं प्राप्त होती हैं। ये कहां से आईं हैं, क्या इनका कोई वैदिक आधार है भी या ये केवल पुराण-कर्ता की बुद्धि से उत्पन्न हुई हैं, यह अन्वेषणीय है।
इस प्रकार कम-से-कम एक पौराणिक व्यक्तित्व के अनेकों लक्षणों का वैदिक आधार हम पाते हैं।

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