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‘घुमंतू और विमुक्त’ महिलाऐं:क्या हम भी उनके प्रति अन्याय में भागीदार नहीं होते?

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वन और वन्यप्राणियों से लेकर अपने समय और समाज को हथेली पर बांचने वाली ‘घुमंतू और विमुक्त’ महिलाऐं, अपने घर-परिवारों के साथ अक्सर रास्तों के किनारे अस्थायी बस्तियों में दिखाई दे जाती हैं। सहज, नैसर्गिक जीवन के अभावों से जूझती इस आबादी के ‘छत-हीन,’ अनिश्चित जीवन से हम कितना वाकिफ हैं? इस अज्ञानता के चलते क्या हम भी उनके प्रति अन्याय में भागीदार नहीं होते?

अश्विनी सोपानराव जाधव

समाज में लिंग आधारित भेदभाव का महिलाओं के स्वास्थ और विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों के बावजूद महिलाएं अभी भी पुरूष की तुलना में नीचे के पायदान पर ही हैं और विकास के अवसरों का केवल एक छोटा हिस्सा ही उन्हें प्राप्त होता है। घुमंतू और विमुक्त आदिवासी महिलाएं उनसे जुड़े आपराधिक कलंक के कारण समाज में अधिक हाशिए पर हैं। इस आपराधिक कलंक ने उनको समाज के सबसे निचले पायदान पर ही रखा है।

औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजों द्वारा अधिसूचित जनजातियां “पूर्व-आपराधिक जनजातियां” हैं जिनमें कुछ खाद्य-संग्रहकर्ता, पशुपालक, लोक-कलाकार और कारीगर समुदाय शामिल हैं। इन समुदायों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया था, साथ ही वे जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन की ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ खडे थे। इन समुदायों को औपनिवेशिक शासन के लिये एक खतरे के रूप में देखा जाता था, इसलिये ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम,1871’ लागू करके उन्हें “आपराधिक जनजाति“ घोषित किया गया था।  

ऐसे समुदायों को अपराधी मानने की धारणा आरंभिक समाजों से जारी है। दुनिया भर में कुछ समुदायों को अपराधी माना जाता रहा है; उदाहरण के लिए, यूरोप में ‘जिप्सियों’ को अपराधी माना जाता है, अमेरिका में तथाकथित ‘रेड इंडियन्स’ को अपराधी माना जाता है तो ऑस्ट्रेलिया में आदिवासियों को अपराधियों के रूप में देखा जाता रहा है। भारत में घुमंतू और विमुक्त आदिवासी समुदायों को हमारा समाज अपराधी की तरह देखता है।   

कुछ समुदायों के प्रति पूर्वाग्रह मूल रूप से तब उभरे जब खेती और निजी संपत्ति की अवधारणा का उदय हुआ। उनकी विभिन्न जीवनशैली, निजी संपत्ति का अभाव और समतावादी संस्कृति के कारण उन्हें हमेशा खतरे के रूप में देखा जाता है। दिलचस्प बात यह है कि जब उच्चवर्ग ने महिलाओं को अपनी व्यक्तिगत संपत्ति मानना शुरू किया, तो अन्य समुदायों में महिलाओं को दी गई स्वतंत्रता को उन्होंने अपनी संस्कृति के प्रति खतरे के रूप में देखना शुरू कर दिया। इस प्रकार, उच्चवर्ग हमेशा घुमंतू आदिवासी समुदायों को नियंत्रण में रखना चाहता है और अपराधी करार देकर इन समुदायों पर निगरानी रखना आसान होता है।  

‘आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871’ के कारण विमुक्त समुदायों पर कानूनन निगरानी बढ़ गई। उन्हें खुली जेलों में डाल दिया गया और उनकी आजीविका, संस्कृति और जीवनशैली को व्यवस्थित रूप से बदल दिया गया। इन समुदायों में पैदा हुए बच्चों को जन्म से ही ‘आपराधिक’ टैग मिलने लगा। श्रम विभाजन के नाम पर उनकी समतावादी संस्कृति को बदलने के प्रयास किये गए और घरेलू और बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारियां महिलाओं पर थोपी गईं। इससे इन समुदायों में भी महिलाओं की आधीनता बढ़ी।

आजादी के बाद इन समुदायों की महिलाओं की पीड़ा में और बढोतरी़ हुई, क्योंकि नीतियों और कार्यक्रमों में उन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम,1871’ को ‘आदतन अपराधी अधिनियम, 1952’ से बदल दिया गया और इस अधिनियम के तहत इन जनजातियों का उत्पीड़न और शोषण निरंतर बना रहा। इस प्रकार हाशिए के समुदायों में महिलायें और हाशिये पर हैं और वर्तमान में भी वे शोषण, बहिष्कार और भेदभाव का सामना कर रही हैं।

आवास और साफ-सफाई जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में महिलाओं को समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जो उनके खराब मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को दर्शाता है। लगातार पलायन के कारण महिलाएं मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य और पूरक भोजन प्राप्त नहीं कर पातीं। मौजूदा सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं में इन समुदायों की जरूरतों और जीवन-शैली को महत्व नहीं दिया गया है। पहचान के दस्तावेजों की कमी इन सेवाओं को प्राप्त करने में एक बडी बाधा है। स्थायी आजीविका के अभाव में इन महिलाओं को भोजन के गंभीर संकट का सामना करना पड़ता है। कई समुदायों की महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग भीख मांगकर पेट भरते हैं। ऐसे में उन्हें गंभीर कुपोषण का सामना करना पड़ता है।

एक तरह से देखा जाये तो घुमंतू और विमुक्त आदिवासी महिलाएं घर की चार-दीवारी तक ही सीमित नहीं रहतीं। वे रोजगार और निर्माण के साथ-साथ बिक्री और व्यापार में भी सहभागी होती हैं। रोजमर्रा के जीवन में दूसरी दुनिया से मेलजोल के कारण वे काफी निर्भीक, निडर और मुखर होती हैं। आज भी कई घुमंतू और विमुक्त समुदायों में महिलाओं को बाहर काम करने और अपना जीवनसाथी चुनने की अनुमति है और समझौतों के माध्यम से तलाक देने और पुनर्विवाह की स्वतंत्रता है, लेकिन इसके बावजूद, ये महिलाएं भी पितृसत्तात्मक संरचनाओं और संस्थानों द्वारा नियंत्रित हैं।

इन समुदायों में अन्य सामान्य समुदायों की तरह परिवर्तन होते रहे हैं और उन्होंने बदलती संस्कृति, पहनावा, भाषा, बोलियां, रीति-रिवाज और प्रथाओं को अपनाया है। कई जगह दहेज-प्रथा की मांग को उनकी ‘दुल्हन मूल्य प्रणाली’ के साथ बदल दिया गया है। इससे महिलाओं को कमतर समझा जाने लगा है। इन समुदायों में कन्या भ्रूण-हत्या और बाल-विवाह भी शुरू हो गए हैं। आजीविका के अभाव के कारण, कई समुदायों में अपने परिवारों और बच्चों के भरण-पोषण के लिए देह-व्यापार करना भी इन महिलाओं की एक बडी मजबूरी बन गई है।

कुछ समुदायों में, महिलाओं को बेचा, बदला, गिरवी रखा और यहां तक कि किराये पर भी दिया जाता है। महिलाओं के लिए सख्त और कड़े नियम हैं और नियमों को तोड़ने के परिणाम अमानवीय और क्रूर दंड के रूप में होते हैं। इनमें से अधिकांश जनजातियों की अपनी पारंपरिक जाति पंचायतें हैं जो व्यक्तियों और परिवारों के बीच विवादों को सुलझाती हैं। इन पंचायतों की निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की कोई भूमिका नहीं होती जिसके कारण उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है। बुजुर्ग पुरुषों के पास सर्वोच्च अधिकार होता है। महाराष्ट्र में हाल ही में एक ऐसी घटना हुई जिसमें एक घुमंतू समुदाय की महिला को अपनी वफादारी साबित करने के लिए खौलते हुए तेल से एक सिक्का निकालना पड़ा।

घुमंतू और विमुक्त समुदायों की महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान पर खतरा अन्य समुदायों की तुलना में दो-गुना है। यह देखा गया है कि गाँवों के प्रभावशाली और शक्तिशाली समुदाय हमेशा इन समुदायों के गाँवों में बसने का विरोध करते रहे हैं या इन समुदायों की बंजर या वनभूमि को हड़पना चाहते हैं। अधिकांश भूमि और आवास संबंधी विवादों में महिलाओं को विशेष रूप से यौन शोषण का निशाना बनाया जाता है। हाल के वर्षों में जम्मू कश्मीर के बक्करवाल घुमंतू समुदाय की एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार की क्रूर घटना इसी का उदाहरण थी।

इससे समुदाय में अलगाव बढ़ गया है। यह अलगाव और बाहरी हिंसा घुमंतू और विमुक्त समुदाय में घरेलू और जात-पंचायत की हिंसा को बढ़ावा देती है। समुदाय के पुरुष कमजोर पर अपना क्रोध निकलते हैं इसलिए महिलाएं, युवा और बच्चे लिंग आधारित हिंसा के अधिक शिकार हो रहे हैं। इस प्रकार पुरुषों की तुलना में ये महिलाऐं अपने समुदाय के अंदर और बाहर, दोनों तरफ विषम परिस्थियों और भेदभाव का सामना कर रही हैं।

घुमंतू और विमुक्त समुदायों की महिलाओं के खिलाफ संस्थागत अत्याचार और हिंसा होती रही है। यदि उनके साथ कोई अवांछित घटना होती है, तो अक्सर पुलिस और प्रशासन प्रकरण दर्ज करने में आनाकानी बरतता है। कई बार महिलाओं पर चोरी का आरोप भी लगाया जाता है और उन्हें जेल में रखा जाता है। इस दौरान जेलों में आधिकारिक रूप से आवश्यक सभी प्रक्रियाओं को महिला पुलिस सहयोगी के बिना संचालित किया जाता है। जिसके कारण इन्हें शोषण का सामना करना पडता है। भोपाल की एक झुग्गी से हाल ही के वर्षों में पारधी समुदाय की महिला ने पुलिस की हिंसा और प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। यह संस्थागत हत्या ही थी। समाज में घुमंतू और विमुक्त समुदायों के प्रति लिंग आधारित भेदभाव और हिंसा के मद्दे-नजर इन समुदायों की महिलाओं की चुनौतियों को संवेदनशील नजरिये से देखने और उसको बदलने की जरूरत है। (सप्रेस)

डॉ. अश्विनी सोपनराव जाधव, शोधकर्ता, सार्वजनिक स्वास्थ्य और एनटी-डीएनटी समुदायों के मुद्दों की जानकार हैं।

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