– डॉ. आशीष कंधवे
आज हमारा लोकतंत्र संघर्ष कर रहा है। राम के लोकतंत्र से निकल कर हम लोकतंत्र में राम का अस्तित्व ढूंढ रहे हैं। लोकतंत्र इस बात की परीक्षा ले रहा है कि क्या देश में कभी फिर राम जैसे राजा को स्वीकार किया जा सकता है, जो सिर्फ धर्म के ही प्रतीक नहीं हैं, बल्कि न्याय, त्याग, बलिदान, ऐश्वर्य और शौर्य के भी प्रतीक हैं। राम सामाजिक समरसता के वैश्विक उदाहरण हैं। विश्व के अनेक देश उनके इसी गुण के कारण उन्हें जानना चाहते हैं, उनको समझना चाहते हैं, उनको पढ़ना चाहते हैं। परंतु दुर्भाग्य देखिए कि हमारे ही देश में राम को बरसों संघर्ष करना पड़ा।
कोई भी राष्ट्र सिर्फ नीतियों से नहीं चलता। राष्ट्र को चलाने के लिए धर्म की भी आवश्यकता होती है, जो उस देश को उसकी मूल धारणाओं के अनुरूप चलाने में सक्षम हो। तभी राष्ट्र और धर्म के बीच में संतुलन बनेगा और लोकतांत्रिक राष्ट्रधर्म का परिपालन होगा। धर्म का शाश्वत नियम होता है। किसी भी सिद्धांत तथा राज्यशक्ति को किसी भी धार्मिक, आध्यात्मिक नियंत्रण में ही रहना उचित कहा गया है। अन्यथा अनियंत्रित राज्य शक्ति राष्ट्र के लिए कष्टकारी और कई बार संकट पूर्ण भी सिद्ध हो जाती है। बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि धर्म क्षत्र का भी क्षत्र है। अर्थात धर्म पर राजा का शासन नहीं चलता, अपितु राजा पर धर्म का शासन चलता है। जैसे बिना नकेल के ऊंट, बिना लगाम के घोड़ा, बिना ब्रेक के वाहन आदि खतरनाक होते हैं, वैसे ही बिना नियंत्रण के निरंकुश राज्य शक्ति राष्ट्र के लिए अभिशाप सिद्ध हो सकती है।
इसलिए आज भी शासन के नियम और परंपराएं जीवित हैं और शासकों को उनका नियंत्रण मानना ही पड़ता है। ऐसी स्थिति में राज्य शक्ति को धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक परंपरागत नियमों की अवहेलना करने का अधिकार नहीं है। भारतीय सभ्यता में सनातन धर्म सांसारिक भावों और लोक कल्याणकारी मंगल कामनाओं से निहित है। इसी लोक कल्याणकारी मंगल कामनाओं सहित धर्म सम्मत समाज के निर्माण को रामराज्य या राम का लोकतंत्र हम कह सकते हैं। भारतीय सांस्कृतिक और पौराणिक परिपेक्ष्य को अगर ठीक से समझें, तो हम इसी नतीजे पर पहुंचते हैं कि राजा रामचंद्र लोकतंत्र के नायक हैं।
हर दृष्टि से यह सिद्ध हो जाता है कि राजा राम भारतीयता में लोकतंत्र के जनक हैं। उनकी यही लोकतांत्रिक दृष्टि उन्हें अजर-अमर बना देती है। हम जानते हैं कि राम साधारण मनुष्य नहीं, स्वयं विष्णु के अवतार हैं। सृष्टि के रचयिता हैं, परंतु मानव मूल्य, मानव बोध और मानवता के कल्याण के लिए उन्होंने जिस तंत्र को अपनाया, वह प्रजातंत्र ही है। राजा रामचंद्र स्वयं को संतुष्ट करने के लिए राजगद्दी पर विराजमान नहीं हुए थे, बल्कि उनकी दृष्टि जन कल्याण की थी, जन के स्वर की थी, जन की मनोभावनाओं की पूर्ति की थी और जन इच्छा को ही उन्होंने सर्वोपरि माना। अर्थात जनमत ही उनकी दृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण विचारधारा रही।
लोकतंत्र क्रिया है, इसलिए क्रिया में विकल्प को ढूंढना समय को नष्ट करने के समान है। विकल्प तो वस्तुओं में ढूंढा जा सकता है। प्रभु श्रीराम इस बात को बहुत अच्छी तरह से समझते थे कि राज्य सत्ता क्रिया है, जिसमें जन की प्रतिक्रिया सबसे महत्वपूर्ण होती है।
कुछ लोगों का मानना है कि देश, काल और परिस्थिति के अनुसार विभिन्न महापुरुषों द्वारा राष्ट्र का धारण और पोषण-निर्धारण ही लोकतंत्र का निर्धारित शास्त्र है। मेरी दृष्टि में इस दृष्टिकोण को इतना संकुचित होकर नहीं देखा जा सकता। इसे समझने के लिए आवश्यक है कि आप अपने दृष्टिकोण के साथ साथ-साथ दृष्टि को भी लोकतांत्रिक कर लें, तभी आप राम के लोक साम्राज्य को समझ पाएंगे। उस काल में बहुमत के मूल्य को मत पेटियों में संग्रहीत कर गिना तो नहीं जा सका, परंतु लोक मूल्यों की स्थापना में किसी भी तरह की कमी नहीं रखी गई। दरअसल, लोक मूल्यों की प्रतिस्थापना को ही राम का लोकतंत्र कहा जा सकता है।
समकालीन परिदृश्य में भी कहीं न कहीं हम उन्हीं लोकतांत्रिक मूल्यों को ढूंढ रहे हैं, लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए संघर्षरत हैं। राजा राम के लोकतंत्र से चल कर हम लोकतंत्र में श्रीराम को ढूंढने की परिस्थिति में पहुंच गए हैं। राम ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कहा था कि लोकमत राजा से भी अधिक शक्तिमान होता है। लोकमत राज शक्ति का निंदक या प्रशंसक बन कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करता है और राजा की शिष्टता या दुष्टता का पूर्ण परिचय उसके राजा बनने पर ही मिलता है। लोकनायक का स्वभाव भी उनके सत्तारूढ़ होने पर ही समाज से परिचित होता है। दुर्जन समाज में शांति भंग करते हैं। लोकमत की शक्ति ही उन्हें इस कार्य से रोकती है। ऐसे राजा समाज के शत्रु होते हैं, जो लोकमत की उपेक्षा कर लोकतांत्रिक व्यवस्था को हतोत्साहित कर देते हैं।
यहां इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक व्यक्ति के पास विशेषाधिकार तो होते हैं, लेकिन राष्ट्र के प्रति निर्णय लेने की क्षमता संपूर्ण लोकतंत्र के चुने हुए प्रतिनिधियों के एकमत होने से ही होती है। यही लोकतंत्र का सौंदर्य है और यही लोकतंत्र की आंतरिक शक्ति है।
आज हमारा लोकतंत्र संघर्ष कर रहा है। राम के लोकतंत्र से निकलकर हम लोकतंत्र में राम का अस्तित्व ढूंढ रहे हैं। लोकतंत्र इस बात की परीक्षा ले रहा है कि क्या देश में कभी फिर राम जैसे राजा को स्वीकार किया जा सकता है, जो सिर्फ धर्म के ही प्रतीक नहीं हैं, बल्कि न्याय, त्याग, बलिदान, ऐश्वर्य और शौर्य के भी प्रतीक हैं। राम सामाजिक समरसता के वैश्विक उदाहरण हैं। विश्व के अनेक देश उनके इसी गुण के कारण उन्हें जानना चाहते हैं, उनको समझना चाहते हैं, उनको पढ़ना चाहते हैं। परंतु दुर्भाग्य देखिए कि हमारे ही देश में राम को बरसों संघर्ष करना पड़ा, विशेषकर आजादी के पश्चात। इतना नुकसान भारतीय सांस्कृतिक परिदृश्य में श्रीराम को उतना संघर्ष कभी नहीं करना पड़ा, जितना 1947 से लेकर 2019 के बीच उन्हें करना पड़ा।
आज भी भारत के अनेक क्षेत्रों से ऐसे स्वर उभर कर आते हैं, जहां जय श्री राम कहना अलोकतांत्रिक हो जाता है और इसका बहिष्कार किया जाता है। शायद भारत विश्व का अकेला ऐसा लोकतंत्र है, जहां अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर समाज को निरंकुश कर दिया गया है। सेकुलरिज्म के नाम पर भारत को खंड-खंड में बांट दिया गया है। न एक विचार पर हम चलते हैं, न ही किसी एक भाषा को हम स्वीकार करते हैं। फिर प्रभु श्री राम को एकमत होकर भारतीय लोकतंत्र स्वीकार कर ले, यह अभी संभव नहीं लगता। संघर्ष अभी शेष है। श्रीराम के संघर्ष से ही भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का संघर्ष घनीभूत होता रहेगा और हम सब लोकतंत्र में राम के अस्तित्व को संभालते हुए अनवरत यात्रा पर निकल पड़ेंगे।