अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

*क्या होता है जब मनुष्य का शरीर उसे छोड़ता है*

Share

         _(यह आर्टिकल हमारे मार्गदर्शक-अनुप्रेरक डॉ. मानवश्री के इंटरव्यू पर आधारित है. रिसर्चर बनकर आप भी देख सकते हैं. कुछ ‘और’ या ‘अलग’ मिले तो हमें बताकर हमारे रिसर्च में पार्टिसिपेट कर सकते हैं)_

     ~ अनामिका (प्रयागराज)

     आत्मा जब मनुष्य के शरीर को छोड़ती है तो चेतन मानव को पहले ही पता चल जाता है : लगभग 15 दिन पहले. कई बार लोग बता भी देते हैं कि अब हमारा समय खत्म हो रहा है। कुछेक लोग तो निश्चित समय तक बता देते हैं।

     *इस दौरान-*

‘मनुष्य’ स्वयं भी हथियार डाल देता है क्योंकि वह आत्मा को शरीर में बनाये रखने का भरसक प्रयत्न कर के हार चुका होता है और इस चक्कर में भारी कष्ट झेल भी चुका होता है। 

     अब उसके सामने उसके सारे जीवन की यात्रा चल-चित्र की तरह प्रत्यक्ष हो रही होती है। इसीलिए ‘दर्शन’ कहता है की ऐसा कुछ नहीं करें, जो इस समय देखने लायक न हो. अंत के समय में मनुष्य का सारा अतीत उसके मानस पटल पर सिनेमा के पर्दे की फिल्म के मानिंद प्रत्यक्ष हो रहा होता है। सत्कर्मों के अभाव के कारण अमूमन वह दृष्य देखने लायक नहीं होता और इंसान सिहर उठता है।

आत्मा शरीर से निकलने की तैयारी कर रही होती है इसलिये धनंजय यानी ‘मुख्य’ प्राण को छोड़कर, शेष चारों प्राण (अपान, उदान, समान, व्यान) शरीर से बाहर निकलना आरम्भ कर देते हैं। ये प्राण, आत्मा से पहले बाहर निकलकर आत्मा के लिये सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं। यह शूक्ष्म शरीर ही पंचभौतिक शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का वाहन होता है।

 धनंजय प्राण पर सवार होकर आत्मा शरीर से निकलकर इसी सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश करती है।

*बहरहाल :*

अभी आत्मा शरीर में ही होती है और शेष चारों प्राण धीरे-धीरे शरीर से बाहर निकल रहे होते हैं. यह सब व्यक्ति को पता चल जाता है। उसे बे-चैनी होने लगती है, घबराहट होने लगती है। भयंकर आंतरिक पीड़ा होने लगती है.

   सारा शरीर भीतर से फटने लगता है, खून की गति धीमी होने लगती है। सांस उखड़ने लगती है।

 बाहर के द्वार बंद होने लगते हैं। अर्थात अब उसकी चेतना लुप्त होने लगती है और मूर्च्छा आने लगती है। 

   फिर पूरी मूर्च्छा आ जाती है और आत्मा एक झटके से किसी भी खुली हुई इंद्री से बाहर निकल जाती है।

   इसी समय चेहरा विकृत हो जाता है। यही आत्मा के शरीर छोड़ देने का मुख्य चिन्ह होता है।

इससे पहले घर के आसपास कुत्ते-बिल्ली के रोने की आवाजें आती हैं। अन्य लोग चाहे नहीं सुनें, मगर मर रहा व्यक्ति सुनता है. इन पशुओं की आँखे अत्याधिक चमकीली होती हैं। इसलिए ये रात के अँधेरे में भी मर रहे व्यक्ति के लिए आई सूक्ष्म-शरीरधारी आत्माओं को देख लेते हैं। 

   जब किसी व्यक्ति की आत्मा शरीर छोड़ने को तैयार होती है तो उसके ‘पुनर्जन्म न पाए हुए’ सगे-संबंधी-मित्र मृतात्माओं के रूप में सामने आ जाते हैं। वे उसे लेने आते हैं और व्यक्ति उन्हें  यमदूत की सेना समझता है।

     कुत्ते-बिल्ली उन्हें साधारण जीवित मनुष्य ही समझते हैं और अनजान होने की वजह से उन्हें देखकर रोते हैं और कभी-कभी भौंकते भी हैं।

शरीर के पाँच प्रकार के प्राण बाहर निकलकर उसी तरह सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं, जैसे गर्भ में स्थूल-शरीर का निर्माण क्रमिक रूप से होता है। 

   सूक्ष्म-शरीर का निर्माण होते ही आत्मा अपने मूल वाहक धनंजय प्राण के द्वारा बड़े वेग से निकलकर उस में प्रवेश कर जाती है। 

   आत्मा शरीर के जिस अंग से निकलती है उसे खोलती, तोड़ती हुई निकलती है।

जो लोग पापी होते हैं, उनकी आत्मा मूत्र या मल-मार्ग से निकलती है। जो पापी भी हैं और पुण्यात्मा भी हैं, उनकी आत्मा मुख से निकलती है। जो पापी कम और पुण्यात्मा अधिक हैं, उनकी आत्मा नेत्र से निकलती है.

    जो पूर्ण धर्मनिष्ठ हैं, पुण्यात्मा और योगी स्त्री-पुरुष हैं, उनकी आत्मा ब्रह्मरंध्र से निकलती है। उन्हें दर्द नहीं होता बल्कि आनंद होता है : गंतव्य के अट्रेक्टिव ऐटमॉस्फीयर को देखकर.

अब शरीर से बाहर सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हुआ रहता है। लेकिन ये सभी का नहीं हुआ रहता। 

   जो लोग अपने जीवन में मोहमाया से मुक्त हो चुके, तृप्त-आनंदित हो चुके या जो योगी-ध्यानी हैं : उन्ही के लिये तुरंत सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हो पाता है। शेष के लिये दस दिनों में सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो पाता है। वैदिक धर्म-शास्त्रों में ‘दसगात्र का श्राद्ध’ और अंतिम दिन ‘मृतक का श्राद्ध’ करने का विधान इसीलिये है। जब तक दस गात्र का श्राद्ध पूर्ण नहीं होता और सूक्ष्म-शरीर तैयार नहीं हो जाता जीवात्मा प्रेत-शरीर में निवास करती है। अगर किसी कारणवश ऐसा नहीं हो पाता है तो आत्मा प्रेत-योनि में भटकती रहती है। 

    *एक और बात :*

 आत्मा के शरीर छोड़ते समय व्यक्ति को पानी की बहुत प्यास लगती है। 

शरीर से प्राण निकलते समय कण्ठ सूखने लगता है। ह्रदय सूखता जाता है और इससे नाभि जलने लगती है। 

लेकिन कण्ठ अवरूद्ध होने से पानी पीया नहीं जाता और ऐसी ही स्तिथि में ही आत्मा शरीर छोड़ देती है।

 प्यास अधूरी रह जाती है। इसलिये अंतिम समय में मुख में ‘गंगा-जल’ डालने का विधान है। 

     इसके बाद आत्मा का अगला पड़ाव होता है शमशान का ‘पीपल’। यहाँ आत्मा के लिये ‘यम-घट’ बंधा होता है। इसमे पानी होता है। यहाँ प्यासी आत्मा यम-घट से पानी पीती है जो उसके लिये अमृत-तुल्य होता है। इस पानी से जीवात्मा तृप्ति का अनुभव करती है। 

*पुर्जन्म की बात :*

     सामान्य मनुष्य का जन्म 13 दिन के भीतर हो जाता है. त्रयोदस संस्कार का विधान इसलिए बनाया गया. जो मनुष्य दुराचारी, बहुत नीच-पापी होता है उसका पुनर्जन्म जल्दी नहीं होता. वैसी जीवात्मा को मैनेज करने योग्य गर्भ जल्दी नहीं मिलता. जब उस स्तर के ही पतित कपल्स सेक्स करते हैं, तब प्रकृति उस जीवात्मा को उसके योग्य गर्भ में समायोजित करती है. इसके पहले तक वह जीवात्मा प्रेतयोनी में भटकती है.

   इसी तरह भले, परोपकारी, जीनियस, योगी-ध्यानी मनुष्य की जीवात्मा को भी जल्दी गर्भ नहीं मिलता. ऐसे लोग कचरा गर्भ से पैदा नहीं हो सकते. इस स्तर की जीवात्मा के लिए प्रकृति को वैसे माता- पिता चाहिए होते हैं. ऐसी जीवात्मा को तब तक देवात्मा के रूप में रहना पड़ता है.

      जो मनुष्य जीवन में कम्प्लीट हो चुका है, चेतना का विकास कर के चैतन्य बन चुका है या ‘सुपात्र के साथ संभोग’ (टाइमलेस, ईगोलेस, सेल्फफीलिंगलेस) की साधना से पूर्ण-तृप्त हो चुका है, अथवा ध्यान की साधना से परम-आनंद का अनुभव कर चुका है : उसका जन्म नहीं होता. उसको देवात्मा भी नहीं बनना पड़ता.

   ऐसे नर-नारी की जीवात्मा मोक्ष पाती है. इसलिए उसको कोई भी योनि नहीं मिलती. मतलब जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो चुकी ऐसी जीवात्मा का जन्म नहीं होता. वह परमात्मा से एकाकार हो चुकी होती है. सरिता समुद्र बन चुकी होती है. वह अपनी मौज से, विशेष कार्य के लिए अवतार ले सकती है.

*अंतिम बात :*

    जो इंसान अपनी अंतश्चेतना को बेहतर भावनात्मक- संवेदनात्मक- क्रियात्मक भोजन देकर विकसित कर लेता है : यानी जो स्वस्थ (‘स्व’ में स्थित) हो चुका होता है, वह पीड़ा की किस्तों में नहीं मरता है।

    वह अपने को अवस/विवस/असहाय/निरूपाय/लाचार नहीं पाता है।

वह मायामुक्त/तृप्त हो चुका होता है : इसलिए उसे यूं भयाक्रांत-पीडित होकर तड़पन- रूदन में शरीर छोड़ने को मजबूर नहीं होना पड़ता।

     जैसे वह प्रकट जीवन में अपना ध्यान किसी-भी विषय पर केंद्रित कर खुद को अभिव्यक्त करने में सक्षम होता है, वैसे ही अंतत: देहत्याग में भी वह सक्षम होता है। ध्यान का यह भी एक लाभ है.

    ऐसा मनुष्य अपने प्राणों को सेन्ट्रलाइज्ड करके सहजता से, ‘तृप्ति की अवस्था में ही’ शूक्ष्म शरीर में प्रवेश ले लेता है। इसमें कदाचित उसकी अपनी मर्जी भी शामिल होती है।

(चेतना विकास मिशन)

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें