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Benevolent Sexism : क्या है बेनवॉलेंट सेक्सिस्म?

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पुष्पा गुप्ता 

मीठे शब्दों की चाशनी में, चिंता करने की  आड़ में, सपोर्ट का मुलम्मा पहना कर जब औरतों के प्रति चली आ रही स्त्रीद्वेषी बातों को ही रूप बदल कर जस्टिफाई किया जाता है तो वो benevolent sexism कहलाता है।  ऐसा करने वाले स्त्री पुरुष दिखते तो भले हैं, लेकिन होते नहीं।  

         उदाहरण के लिए किसी लड़के ने किसी लड़की को सोशल मीडिया पे इनबॉक्स में वाहियात मेस्सजेस भेजे।  लड़की ने स्क्रीनशॉट चिपकाया।  आपने उस दुष्ट इन्बॉक्सिए को छोड़ कर महिला से कहा – देखिये आपके भले की ही कह रही /रहा हूँ, ये सब तो होता ही है।  मर्द सुधरते कहाँ हैं जी, आप ध्यान देना बंद कीजिये। अपनी एनर्जी / अपना समय बर्बाद मत कीजिये।   

ये विक्टिम शेमिंग तो है ही,  benevolent sexism भी है। आपके हिसाब से महिला को शौक है अपनी एनर्जी / अपना समय बर्बाद करने का?  क्यों नहीं सुधरेंगे साहब मर्द ? आप में और रेपिस्ट से शादी करने की सलाह देने टाइप वाली खाप पंचायत में फर्क क्या रहा फिर?

      ऐसे ही कल एक पोस्ट पढ़ी।  एक जाने माने सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर, journalist जो रोज़ एक कहानी सुनाते हैं, उन्होंने अपने हालिया ऑपरेशन और पत्नी  गुणगान गाये।  बताया कैसे पत्नी का वही ऑपरेशन 20 साल पहले होने पर उन्हें कोई होश नहीं था कि कैसे ध्यान रखना है ? उन्होंने लच्छेदार शब्दों में कहा औरतों को व्रत नहीं करने चाहिए, आदमी को औरत की लम्बी उम्र के लिए व्रत करने चाहिए।

       कैसे उनकी दादी महान थीं, लेकिन माँ के गुजरने के बाद पिता टूट गए।  और तो और कैसे औरतें जी लेती हैं पतियों के मरने के बाद, विधवाओं को प्रताड़ना पहले मिलती थी, लेकिन ‘ बेचारे’ जी भी नहीं पाते।  

मुझे सिर्फ इतना कहना है –  ये भी benevolent sexism hai, महिलाओं की सेवा, उनके काम, उनके त्याग, आदि का महिमामंडन सदियों से चला आ रहा tool है। शब्द कुछ भी इस्तेमाल किए गए हों, सिर्फ लच्छे लपेट देने से और भावना की चाशनी में डुबो देने से inherent sexism चला जाए ज़रूरी नहीं। संवेदनशीलता और समझ एक ही बात नहीं होते।

       व्रत के बदले व्रत करने के वादे सिर्फ यही हैं, वादे। व्रत से उम्र लम्बी नहीं होती।  ये एक अलग बात है कि व्रत आस्था की ज़मीन से भी उपज सकता है, और कंडीशनिंग से भी।  इसलिए ये कहना कि महिलाओं को व्रत छोड़ देने चाहियें, पुरुषों को करने चाहियें, का मतलब है कि औरतों पे subconscious pressure डालना और ये कहना कि देखो व्रत करने से प्रभाव पड़ता है।

       उसका नतीजा? गिल्ट ट्रिप।  जमीनी बदलाव इन वादों से नहीं आते, ये आप सब भी अच्छी तरह  जानते हैं, मैं भी, और लेखक महोदय भी । न जानते तो व्रत से ही क्यों न जी लेते, सर्जरी क्यों करवानी थी ?   

ये  वैसे वाला लेख है जिसमें देखो मेरी दादी कितनी महान थीं, मेरी पत्नी कितनी महान है। मैं तो एक ग्लास भी खुद नहीं उठा के रख पाता यार, पत्नी न हो तो मेरा ध्यान कौन रखे टाइप।  क्यों जी, अपनी तबियत का ध्यान रखना पुरुषों इतना बोझिल लगता है कि महिला न हो तो पुरुष जी नहीं पाता, लेकिन पत्नी पे दोगुना भार डालते समय याद नहीं आता कि ये इंसान है मशीन नहीं?

       बीमारी में साथी का, बल्कि किसी भी करीबी का ख्याल रखना नॉर्मल है, स्त्री की महानता नहीं। और पुरुष को भी आना चाहिए, इसमें कुछ अनोखा नहीं है। पुरुष को सर्वाइवल स्किल्स सीखने की बजाय व्रत करना सिखाएंगे? अपनी बीमारी में खुद का बेसिक ख्याल कर पाना (गंभीर बीमारियों को छोड़ कर), ये याद रख पाना कि करवट किस ओर लेनी है, इतना बेसिक सर्वाइवल स्किल्स का हिस्सा है। सबको आना चाहिए। क्या औरत क्या आदमी।

       लेकिन यहां तो सबको सेवादारनियां चाहिएं, कर्तव्य के नाम में ममता के नाम में, त्याग के नाम में, प्यार के नाम में। अब ये नया मुलम्मा है, अजी इनको खुशी मिलती है ये सब कर के। इनके तो जीना का तरीका, जीने की वजह ये ही है ।

      तो ऐसा है – खाली इन्फ्लुएंसर या बड़के भैया दीदी, हो जाने से स्त्रीद्वेष चला जाये ज़रूरी नहीं।  द्वेष भी चला जाये ये भी ज़रूरी नहीं।  कई लोग छुपाने को मीठी मीठी लपेटते हैं, ऐसों से सावधान रहें।  असलियत पहचानें।  वो कहते हैं न दिखावे पे न जाओ, अपनी अकल लगाओ !

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