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असद्दुदीन ओवैसी की असलियत क्या है

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 कृष्णकांत
कुछ लोग कहते हैं कि असदउद्दीन ओवैसी वोटकटवा हैं, बीजेपी की बी टीम हैं. ये सब कहना गलत है. वे या तो बीजेपी के दलाल हैं या फिर खूब तार्किक तकरीरें करने वाले बेवकूफ हैं. दूसरे की संभावना काफी कम है, इसलिए पहले का ही शक मजबूत होता है. इधर यूपी में वे खुलकर मुसलमानों से कह रहे हैं कि “आप सबको एक तरफ आना होगा.” अगर आरएसएस की विचारधारा को आप किसी भी तरह से खतरनाक मानते हैं तो ओवैसी उस वैचारिक खतरे को धार मुहैया कराने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं.   
खुले तौर पर मुसलमानों को एकजुट करने का अंजाम पहले भी देखा गया है और ओवैसी इस अंजाम से अनजान नहीं हैं. वे समझदार नेता हैं और ऐसा वे जायज तर्क की आड़ में कर रहे हैं. 
ये बात सही है कि मुसलमानों की भी सत्ता में हिस्सेदारी होनी चाहिए. ये भी सही है कि मुसलमानों का प्रतिनिधित्व घटा है. ये भी सही है कि वे पहचान के आधार पर प्रताड़ित किए जा रहे हैं. उनकी लिंचिंग बंद होनी चाहिए. उनके साथ मजहबी पहचान के आधार पर अन्याय नहीं होना चाहिए. उनकी आर्थिक स्थिति जर्जर है और सरकार की तरफ से सपोर्ट मिलना चाहिए. इन मसलों में अभी तक मुसलमानों के साथ धोखा ही होता आया है. ये भी सही है कि बीजेपी के डर से विपक्षी पार्टियां मुसलमानों की बात करने से बचने लगी हैं. लेकिन ऐसा हिंदुओं के सहयोग के बिना नहीं हो सकता. अगर दलितों पर सवर्ण अत्याचार करते हैं तो सामाजिक न्याय सवर्णों की भागीदारी के बिना नहीं हो सकता. एक समाज में किसी वर्ग या समुदाय की अकेले मुक्ति संभव नहीं है. 
हैदराबाद की म्युनिसिपल्टी के नेता ओवैसी 2014 के बाद अचानक गोदी मीडिया के स्टूडियो में काफी लोकप्रिय हो गए. वे गोदी मीडिया के लिए हिंदू-मुस्लिम सिलेबस में सिक्के का दूसरा पहलू हैं. वे चैनलों पर खूब आते हैं, लेकिन वे कभी हिंदुओं को संबोधित नहीं करते. वे सिर्फ मुसलमानों को संबोधित करते हैं. वे संसद में ताल ठोंक कर कहते हैं कि हम संबसे पहले मुसलमान हैं, लेकिन वे बाकी भारतीयों से कभी कुछ नहीं कहते. 
ओवैसी जब खुलकर मुसलमानों से कहते हैं कि “सेकुलर के झूठ में मत फंसो”, “आप सबको एक तरफ आना होगा”, “आपका अपना रहनुमा होना चाहिए”… तब वे साफ तौर पर संदेश दे रहे होते हैं कि बीजेपी विरोधी पार्टियों का पाखंड ही असली सेकुलरिज्म है, जिनमें मुसलमानों को नहीं फंसना है. इसका छुपा संदेश ये भी है कि आपके लिए “मैं बेहतर कम्युनल हूं.” वे मुसलमानों का नरेंद्र मोदी बनने की जुगत में हैं. वे अपनी पार्टी को मुसलमानों की आरएसएस बनाना चाहते हैं. 
ध्रुवीकरण की चरम स्थिति में वे क्या कर सकते हैं? यूपी में 18% वोट बैंक के सहारे ज्यादा से ज्यादा कुछ सीटें हासिल कर लेंगे. लेकिन ऐसा करके वे बीजेपी को जीत की गारंटी दे देंगे. वे खुलकर मुसलमानों से एकजुट होने की अपील कर रहे हैं. इसका परिणाम ये होगा कि बीजेपी के आह्वान किए बिना ही बहुसंख्यक हिंदू बीजेपी के पक्ष में लामबंद होगा. ओवैसी इतने भोले नहीं हैं कि वे इस बात को नहीं समझते. वे सब समझते हैं और जानबूझकर ऐसा कर रहे हैं, इसलिए वे कभी हिंदू जनता से सहयोग नहीं मांगते.  
क्या उत्तर प्रदेश में हिंदू नहीं रहते? क्या मुस्लिम नेता हिंदुओं का प्रतिनिधि नहीं बन सकता? वे सिर्फ मुसलमानों को साथ आने के लिए क्यों कह रहे हैं? वे कभी हर वर्ग, हर समुदाय से अपील नहीं करते कि बीजेपी-आरएसएस भारत के विचार के खिलाफ हैं. वे कभी हिंदुओं से कुछ नहीं कहते. वे इतने शातिर हैं कि तर्क और संविधान की आड़ में खेल खेलते हैं. वे सिर्फ मुसलमानों को साधने की कोशिश करते हैं. जबकि कोई साधारण आदमी भी जानता है कि यूपी में बिना हर वर्ग, हर जाति के समर्थन के कोई सत्ता में नहीं आ सका है. 
ओवैसी की हरकतें फिक्स गेम जैसी लगती हैं. वे सिर्फ बीजेपी के लिए लड़ रहे हैं. सौदा क्या फिक्स हुआ है, ये सिर्फ वे ही जानें.  कल उन्होंने सफाई भी दी कि “मैं अपनी इज्जत का सौदा नहीं करता.” कहते हैं कि राजनीति में जो किया जाता है, हमेशा उसके उलट बोला जाता है. नरेंद्र मोदी ने आजतक जिसके पक्ष में नारा लगाया है, उसका बेड़ा गर्क किया है. ओवैसी भी सियासत ही कर रहे हैं. वे इससे अलग नहीं हैं. 
आप अन्याय करने वाले वर्ग का बहिष्करण करके न्याय स्थापित नहीं करेंगे, बल्कि पीड़ित वर्ग को और मुसीबत में डालेंगे. सामाजिक बराबरी के लिए संविधान और आधुनिक मानवीय मूल्य ही सर्वोच्च पैमाना हो सकते हैं. वरना आप मुसलमानों से एकजुट होने को कहेंगे तो बीजेपी इस खेल की असली खिलाड़ी है. वो न सिर्फ आपको, बल्कि इस देश की अस्मिता को भी रौंदेगी.
ये बात सौ फीसदी सही है कि सत्ता में मुसलमानों की भागीदारी बढ़ेगी तो समाज को फायदा पहुंचेगा, लेकिन ओवैसी एक खतरनाक तरीका अपना रहे हैं जो बीजेपी के लिए बहुत मुफीद है. वे समाज का बंटवारा रोकने की जगह साफ तौर पर उसे दो फाड़ करना चाहते हैं. 
ये वही देश है जहां पर कभी प्रधानमंत्री की हैसियत से नेहरू ने कहा था कि मजहब के आधार पर अगर कोई हाथ किसी पर उठेगा तो मैं उसका सामना करूंगा. मैं प्रधानमंत्री की हैसियत से और निजी हैसियत से पूरी उम्र उससे लड़ूगा. 
ये वही देश है जहां पर कभी मौलाना आजाद ने कहा था कि मैं मुस्लिम बहुल सीट से नहीं, बल्कि हिंदू बहुल क्षेत्र से चुनाव लड़ूंगा. ऐसा उन्होंने किया भी. 1952 का पहला चुनाव मुस्लिम बहुल रामपुर से जीते, लेकिन 1957 का चुनाव गुड़गांव से लड़े और जीते. 
आज ऐसा क्यों नहीं हो सकता? बीजेपी, कांग्रेस, सपा, बसपा या ओवैसी, कोई भी भारत के ​सेक्युलरिज्म और लोकतंत्र के साथ खुलकर दिखने से क्यों हिचकता है? ये सबके सब अपनी जाति और अपने धर्म के ही नेता क्यों बनना चाहते हैं? मोदी-ओवैसी की जोड़ी सावरकर-जिन्ना की तरह देश के लोगों को समझा रही है कि हिंदू और मुस्लिम अलग-अलग हैं. 
कोई इसे ठीक समझता है तो ये उसकी आजादी है. लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि यह बहुत खतरनाक है.

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