“जस्टिस वर्मा जैसे प्रभावशाली पद पर बैठे व्यक्ति के खिलाफ तुरंत गिरफ्तारी नहीं होती है। उन्हें राजनीतिक-सामाजिक संपर्कों का लाभ मिलता है। उनकी जमानत भी जल्दी हो सकती है, जबकि आम आदमी को लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ती। मीडिया कवरेज में भी आम आदमी के मामले को कठोरता से दिखाया जाता, जबकि प्रभावशाली व्यक्तियों को बचाने के प्रयास होते।“अगर यही घटना एक सामान्य आदमी के साथ हुई होता तो क्या होता।
दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के घर होली के दिन आग लगने की घटना के दौरान भारी मात्रा में अघोषित नकदी मिलने के बारे में पता चला था। इसको लेकर हर तरफ सवाल उठने लगे। आखिरकार भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना ने इस मामले में आंतरिक जाँच के लिए एक समिति गठित की है।
सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता रीना सिंह कहती हैं, “अगर आम आदमी के घर से इतनी नकदी बरामद होती तो पुलिस, आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय या सीबीआई (CBI) जैसी एजेंसियाँ तुरंत कार्रवाई करतीं। आरोपित को हिरासत में लेकर पूछताछ शुरू हो जाती। मनी लॉन्ड्रिंग (PMLA, 2002), आयकर अधिनियम 1961 और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम जैसे कानून की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज होता।”
वो आगे बताती हैं, “अवैध आय घोषित कर भारी जुर्माना लगाया जाता और उसकी संपत्तियों को ज़ब्त करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती। तुरंत गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया जाता। आरोपित को न्यायिक हिरासत में भेज दिया जाता और ज़मानत मिलना मुश्किल हो जाता। सामान्य आदमी से बरामद नकदी को सरकारी खजाने में जमा कर दिया जाता और आरोपित के बैंक खाते फ्रीज़ कर दिए जाते।”
क्या होता, अगर जस्टिस वर्मा की जगह आम आदमी होता?
अगर जस्टिस वर्मा की जगह कोई सामान्य आदमी होता तो तब क्या होता? ये एक अहम सवाल है। अगर जस्टिस वर्मा की जगह कोई सामान्य आदमी होता तो दमकल कर्मी आग बुझाने की कार्रवाई के बाद कैश मिलने की जानकारी अपने अधिकारी को देते। इसके साथ ही वे दिल्ली पुलिस को सूचित करते। दमकल कर्मी इस घटना के बारे में अपनी डायरी में इसकी डिटेल में जानकारी देते।
वहीं, दिल्ली पुलिस के अधिकारी मौके पर पहुँचकर जाँच करते और इसकी जानकारी आयकर विभाग को देते। आयकर विभाग जिस व्यक्ति के आवास में नोट मिले या नोट जले, उससे पूछताछ करता। अगर वह व्यक्ति उस नकदी के बारे में एक-एक जानकारी देता कि किस तरह यह नकदी उससे जुड़ा है और उसने इस धन को कैसे कमाया और किस लिए रखा था।
अगर आयकर विभाग उसकी दी गई जानकारी से संतुष्ट हो जाता और उसे लगता है कि यह नकदी गलत तरीके से नहीं कमाई गई है और उसका उद्देश्य गलत नहीं था तो मामला बंद हो जाता। अगर आयकर अधिकारी उसके जवाब से संतुष्ट नहीं होते तो आय से अधिक संपत्ति जमा करने का उस पर मुकदमा दर्ज करते। साथ ही इसकी जानकारी प्रवर्तन निदेशालय (ED) को देते।
प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी मामले की जाँच करते और उन्हें लगता है कि मामला मनी लॉन्ड्रिंग का है तो इसमें FIR दर्ज करके उस व्यक्ति को तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाता। इसके बाद वह ट्रायल के दौरान जेल में बंद रहता और आरोपित व्यक्ति जमानत के लिए अदालत की बार-बार चक्कर लगाता। इस तरह यह मामला आम और खास के लिए अलग हो जाता।
जस्टिस वर्मा के साथ क्या हो रही है कानूनी प्रक्रिया?
दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस डीके उपाध्याय की रिपोर्ट और जस्टिस वर्मा के जवाब की जाँच करने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने मामले की आंतरिक जाँच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की है। समिति में पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस जीएस संधावालिया और कर्नाटक हाई कोर्ट की जस्टिस अनु शिवरामन शामिल हैं।
यह समिति CJI को अपनी रिपोर्ट में बताएगी जस्टिस आरोपों में दम है या नहीं। साथ ही ‘न्यायिक कदाचार’ के कारण निष्कासन कार्यवाही की आवश्यकता है या नहीं। कदाचार गंभीर होगा तो CJI जस्टिस वर्मा को इस्तीफा देने या सेवानिवृत्त होने की सलाह देंगे। वे इससे इनकार करेंगे तो CJI राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को सूचित कर जस्टिस वर्मा को हटाने की कार्यवाही की सिफारिश कर सकते हैं।
इसके बाद संसद में जस्टिस पर महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होगी। इसके लिए लोकसभा के कम-से-कम 100 सदस्य स्पीकर को या फिर राज्यसभा के कम-से-कम 50 सदस्य सभापति को हस्ताक्षरित नोटिस देंगे। अध्यक्ष या सभापति सांसदों और न्यायविदों से सलाह-मशविरा करेंगे। अगर स्पीकर या सभापति नोटिस को स्वीकार कर लेते हैं तो जस्टिस वर्मा के खिलाफ शिकायत की जाँच के लिए 3 सदस्यीय समिति गठित करेंगे।
समिति में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और एक प्रतिष्ठित न्यायविद शामिल होंगे। यह समिति आरोप तय करेगी और उसके आधार पर जाँच की जाएगी। आरोपों की एक प्रति न्यायाधीश को भेजी जाएगी। वह जज अपने बचाव में लिखित जवाब देंगे। जाँच पूरी करने के बाद समिति अपनी रिपोर्ट अध्यक्ष या सभापति को देगी। उस रिपोर्ट को संसद के संबंधित सदन में रखा जाएगा।
रिपोर्ट में दुर्व्यवहार या अक्षमता पाई जाती है तो जज को हटाने का प्रस्ताव शुरू किया जाएगा। इसके लिए उस सदन की कुल संख्या का बहुमत या उस सदन में उपस्थित और वोट करने वाले सदस्यों का कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत होना चाहिए। प्रस्ताव के पक्ष में मतों की संख्या प्रत्येक सदन की कुल सदस्यता के 50% से अधिक होनी चाहिए। यदि प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता है तो इसे दूसरे सदन में भेजा जाएगा।
दोनों सदनों में प्रस्ताव स्वीकृत हो जाने के बाद इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा। इसके बाद राष्ट्रपति संबंधित न्यायाधीश को हटाने का आदेश जारी करते हैं। इस तरह जज को हटाने का काम पूरा हो जाएगा। अभी तक के इतिहास में किसी जज पर महाभियोग से नहीं हटाया जा सका है, जबकि दो लोगों पर महाभियोग की कार्रवाई शुरू हुई है। इस तरह जज को सजा देने का काम पूरा हो जाएगा।
जस्टिस वर्मा के खिलाफ FIR दर्ज करने की माँग सुप्रीम कोर्ट में खारिज
दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (28 मार्च) को दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ सरकारी परिसर में अवैध नकदी मिलने के मामले में FIR दर्ज करने की माँग वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। जस्टिस अभय ओका और जस्टिस उज्ज्वल भुयान की पीठ ने कहा कि याचिका समय से पहले दायर की गई थी। पीठ ने कहा कि CJI के निर्देश पर मामले की इन-हाउस जाँच जारी है।
पीठ ने कहा, “इन-हाउस जाँच पूरी होने के बाद कई विकल्प खुले हैं। सीजेआई एफ़आईआर दर्ज करने का निर्देश दे सकते हैं या रिपोर्ट की जाँच करने के बाद मामले को संसद को भेज सकते हैं। आज इस याचिका पर विचार करने का समय नहीं है। इन-हाउस रिपोर्ट के बाद सभी विकल्प खुले हैं। याचिका समय से पहले है।”
याचिकाकर्ता नेदुम्पारा ने अपनी याचिका में कहा था कि केरल हाई कोर्ट के तत्कालीन जज के खिलाफ POCSO मामले का आरोप था, लेकिन पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज नहीं की। उन्होंने कहा कि जाँच करना कोर्ट का काम नहीं है। इसे पुलिस पर छोड़ देना चाहिए। उन्होंने कहा कि इन-हाउस कमिटी वैधानिक प्राधिकरण नहीं है। यह विशेष एजेंसियों द्वारा की जाने वाली जाँच का विकल्प नहीं हो सकती है।
नेदुम्पारा ने कहा कि जस्टिस यशवंत वर्मा मामले में आम आदमी कई सवाल पूछ रहा है। लोग सवाल कर रहे हैं कि 14 मार्च को जब नकदी बरामद हुई, उस दिन से आज तक एफआईआर क्यों नहीं दर्ज की गई? जब्ती का कोई पंचनामा क्यों नहीं बनाया गया? एक सप्ताह तक इस घोटाले को क्यों छिपाया गया? आपराधिक कानून क्यों नहीं बनाया गया?
दरअसल, इसी सुप्रीम कोर्ट ने आज से 34 साल पहले 1991 में एक फैसला सुनाया था। उसमें कहा गया था कि जज भी जनता के सेवक हैं। इसलिए अगर वे अपने कार्यकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट या कोई भी कोर्ट के जज के खिलाफ भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। हालाँकि,उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्ते रखी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर CJI को लगता है कि आरोपों में दम नहीं है तो मुकदमा दर्ज नहीं किया जा सकता है। इसके साथ ही यह भी कहा था कि जब तक सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अनुमति ना हो, तब तक संबंधित जज के खिलाफ CrPC की धारा 154 के तहत मुकदमा नहीं दर्ज किया जा सकता। इस धारा के तहत पुलिस बिना वारंट के किसी को गिरफ्तार कर सकती है।
इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता संभ्रांत कृष्ण का कहना है, “जस्टिस वर्मा के सरकारी निवास से भारी मात्रा में कैश पाए जाने की बात बहुत गंभीर विषय है। सुप्रीम कोर्ट ने जाँच के लिए तत्परता से एक समिति का गठन कर दिया है। अगर जाँच में जस्टिस वर्मा की किसी भी रूप में कोई भूमिका सामने आती है तो फिर उन पर आम नागरिक की तरह कानूनी प्रक्रिया की जा सकती है।”
इस तरह की समस्याओं के पीछे की मूल वजहों की ओर इशारा करते हुए एडवोकेट संभ्रांत कृष्ण आगे कहते हैं, “यह पूरा प्रकरण एक बड़ी समस्या, कॉलेजियम के द्वारा जजों की नियुक्ति, की ओर हम सबका ध्यान पुनः आकर्षित करता है। जब तब इसमें सुधार और पारदर्शिता नहीं होगी तब तक अयोग्य व्यक्ति भी न्याय की कुर्सी पर विराजते रहेंगे।”
रीना सिंह कहती हैं, “जस्टिस वर्मा जैसे प्रभावशाली पद पर बैठे व्यक्ति के खिलाफ तुरंत गिरफ्तारी नहीं होती है। उन्हें राजनीतिक-सामाजिक संपर्कों का लाभ मिलता है। उनकी जमानत भी जल्दी हो सकती है, जबकि आम आदमी को लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ती। मीडिया कवरेज में भी आम आदमी के मामले को कठोरता से दिखाया जाता, जबकि प्रभावशाली व्यक्तियों को बचाने के प्रयास होते।”
हालाँकि, रीना सिंह और संभ्रांत कृष्ण जैसे अन्य अधिवक्ता भी ये मानते हैं कि कानून के सामने सब बराबर हैं, लेकिन कॉलेजियम एक बड़ी समस्या है। न्यायिक प्रक्रिया में समानता लाने के लिए सभी के खिलाफ निष्पक्ष जाँच, पारदर्शिता और भ्रष्टाचार के मामलों की त्वरित सुनवाई के साथ-साथ कठोर दंड का प्रावधान होना आवश्यक है, ताकि कोई भी कानून से ऊपर न हो।
जस्टिस वर्मा के घर नकदी मिलने में की एक-एक जानकारी
होली के दिन 14 मार्च 2025 मार्च की रात करीब 11.30 बजे जस्टिस वर्मा के घर में आग ली। जिस समय यह घटना हुई, उस समय जस्टिस वर्मा अपनी पत्नी के साथ मध्य प्रदेश में थे। दिल्ली स्थित उनके आधिकारिक आवास में उनकी वृद्ध माँ और बेटी थी। आग की सूचना घर वालों ने जस्टिस वर्मा को दी। इसके बाद जस्टिस वर्मा ने निजी सचिव ने दिल्ली फायर ब्रिगेड को इसकी सूचना दी।
सूचना मिलते ही दमकल की दो गाड़ियाँ मौके पर भेजी गईं और 15 मिनट में आग पर काबू पा लिया गया। उस दौरान स्टोर रूम में बोरों में भरकर रखे भारी मात्रा में नोट जल चुके थे। नोटों के बारे में दमकल कर्मियों ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को बताया। आग बुझने के बाद जस्टिस वर्मा के निजी सचिव ने मौके पर पहुँचे पाँच पुलिसकर्मियों को वहाँ से चले जाने के लिए कहा।
जब इस मामले के जाँच अधिकारी अगली सुबह जस्टिस वर्मा के आवास पर आए तो उन्हें वापस भेज दिया गया और बाद में आने के लिए कहा गया। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में सूत्रों के हवाले से कहा गया है कि दिल्ली पुलिस ने घटना की रात को पंचनामा नहीं बनाया था। इसको लेकर वहाँ तैनात अधिकारियों से सवाल तलब किए जाएँगे। दरअसल, पंचनामा बनाने के लिए पाँच स्वतंत्र व्यक्तियों की आवश्यकता होती है, जो घटनास्थल के गवाह हों और मुकदमे के दौरान वे कोर्ट में अपना बयान दे सकें।
तुगलक रोड थाने में एक दैनिक डायरी दर्ज की गई, लेकिन उसमें वित्तीय बरामदगी का जिक्र नहीं किया गया। घटना के 8 घंटे बाद इसकी जानकारी दिल्ली के पुलिस कमिश्नर संजय अरोड़ा को मिली। दरअसल, नई दिल्ली जिला के एडिशनल डीसीपी ने 15 मार्च 2025 को सुबह 8 बजे अपने वरिष्ठ अधिकारियों को सुबह की डायरी सौंपी थी। उस डायरी में पिछले 24 घंटों में इलाके में हुई घटनाओं का सारांश था।
इस डायरी में जस्टिस वर्मा के आवास में लगी आग का भी जिक्र था। इसके बाद दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को घटना की जानकारी दी गई और नोटों में लगी आग का वीडियो भी उन्हें दिखाया गया। इसके बाद पुलिस कमिश्नर इसकी जानकारी केंद्रीय गृह मंत्रालय में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को दी। अंत में उन्होंने 15 मार्च को दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस देवेंद्र उपाध्याय को घटना की जानकारी दी।
इस घटना के 7 दिन बाद 21 मार्च को यह मामला मीडिया में आया। इसको लेकर हंगामा मच गया। दिल्ली के फायर चीफ अतुल गर्ग के हवाले से PTI में खबर चली कि दमकल कर्मियों ने जस्टिस वर्मा के घर में कहीं नकदी नहीं देखी। जब विवाद हुआ तो अतुल गर्ग ने कहा कि उन्होंने PTI को इस तरह का कभी बयान नहीं दिया कि जस्टिस वर्मा के आधिकारिक आवास पर कोई नकदी नहीं मिली थी।
विवाद बढ़ गया तो CJI खन्ना ने 5 जजों वाली सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की बैठक बुलाई गई। आनन-फानन में कॉलेजियम ने घटना को चिंतानक बताते हुए जस्टिस वर्मा को वापस इलाहाबाद हाई कोर्ट स्थानांतरित कर दिया। इसको लेकर भी सवाल उठे। इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने उनके स्थानांतरण का विरोध किया और कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ‘कूड़ेदान’ नहीं है।
जब विरोध बढ़ा तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जस्टिस वर्मा के स्थानांतरण का मामला इससे अलग है। इसके साथ ही CJI ने दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस डीके उपाध्याय से इस मामले की फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट माँगी। CJI को सौंपी रिपोर्ट में जस्टिस उपाध्याय कहा कि घटना के अगले दिन 15 मार्च की शाम करीब 4:50 बजे दिल्ली पुलिस कमिश्नर ने आग के बारे में दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को सूचित किया।
रिपोर्ट तैयार करने के लिए मुख्य न्यायाधीश उपाध्याय ने हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार के साथ घटनास्थल का दौरा किया और वहाँ जस्टिस वर्मा से भी मुलाकात की। जस्टिस वर्मा ने अपने स्पष्टीकरण में कहा कि उस कमरे में नौकर, माली और कभी-कभी सीपीडब्ल्यूडी कर्मी रहते थे। जब मुख्य न्यायाधीश ने जले नोटों की तस्वीरें दिखाईं तो न्यायमूर्ति वर्मा ने अपने खिलाफ किसी साजिश की आशंका व्यक्त की।
तमाम घटनाओं को लेकर चीफ जस्टिस उपाध्याय ने 25 पन्नों की अपनी रिपोर्ट CJI को भेज दी। इस रिपोर्ट में जस्टिस उपाध्याय ने कहा कि मामले की गहन जाँच की जरूरत है। इसके बाद CJI ने जस्टिस डीके उपाध्याय को आदेश दिया कि वे जस्टिस यशवंत वर्मा को कोई भी न्यायिक कार्य ना सौंपे। साथ ही जस्टिस वर्मा से ये कहने के लिए भी कहा कि वे मोबाइल के कॉल रिकॉर्ड एवं अन्य डेटा डिलीट ना करें।
दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस डीके उपाध्याय की रिपोर्ट और जस्टिस वर्मा के जवाब की जाँच करने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने मामले की आंतरिक जाँच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की है। समिति में पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस जीएस संधावालिया और कर्नाटक हाई कोर्ट की जस्टिस अनु शिवरामन शामिल हैं।
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