– संजीव शुक्ल
अगर बंटवारे के लिए गांधी- नेहरू ही मुख्य जिम्मेदार थे, तो हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग क्या उस समय द्विराष्ट्रवाद के खिलाफ सत्याग्रह कर रहे थे?
तत्समय हिंदू महासभा और अन्य हिंदू संगठनों की मुख्य मांग क्या थी? विभाजन के प्रति उनकी क्या राय थी, कोई बताएगा?
हिन्दू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र है और दोनों कभी एक साथ नहीं रह सकते का विचार, क्या इन पृथकतावादी संगठनों का मूल विचार नहीं था? इस मूल विचार के कारण ही ये संगठन अपने अस्तित्व में आए हैं, क्या इससे ये संगठन इंकार कर पाएंगे? कहने की जरूरत नहीं कि पृथक धार्मिक पहचान को राष्ट्रीयता के रूप में मनवाने की इच्छा के चलते ही इन संगठनों का गठन किया गया था।
क्या सावरकर ने हिन्दू महासभा के 1937 के अहमदाबाद अधिवेशन में जिसके कि वे अध्यक्ष थे, द्विराष्ट्रवाद का प्रस्ताव नहीं पारित करवाया था?
क्या सावरकर ने जिन्ना के अलग राष्ट्रवाद वाले 1940 के लाहौर के “पाकिस्तान प्रस्ताव” पर बधाई नहीं दी थी?
क्या सिंध प्रांत की विधानसभा में 1943 में लीग द्वारा प्रस्तुत “पाकिस्तान प्रस्ताव” के मसले पर हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग की सरकार से समर्थन वापस लिया था? नहीं न, तो फिर इतनी हायतौबा क्यों? क्या दूसरे का चरित्र हनन करके खुद के पापों को ढंका जा सकता है?
यहाँ बता दें कि सिंध की हिदायतुल्लाह सरकार में ‘हिंदू महासभा’ सहयोगी दल के रूप में मंत्रिपरिषद में शामिल थी।
मुस्लिम लीग के साथ हिंदू महासभा की वैचारिक सहमति ग़जब की थी। बंगाल में भी फजलुल हक की सरकार में श्यामा प्रसाद मुखर्जी वित्तमंत्री के रूप में लीग को अपनी बेहतरीन सेवाएं दे रहे थे। ये वही फजलुल हक थे, जिन्होंने लाहौर में पाकिस्तान प्रस्ताव पेश किया था और ये वही मुखर्जी साहब थे जिन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेज गवर्नर को सलाहें दे रहे थे, जो दस्तावेजों में दर्ज है।
अरे भाई देश का बंटवारा तो 1947 में जाकर हुआ, लेकिन आपकी कोशिशें तो दशकों पहले शुरू हो गईं थीं। क्या इससे भी इंकार करेंगे?
मने जो बंटवारे को रोकने में असफल रहे और जिन्होंने बंटवारे के लिए हो रहे गृहयुद्ध को रोकने के लिए विवशता पूर्ण परिस्थितियों में अनमने हो विभाजन को स्वीकार किया, इनकी दृष्टि में असली दोषी वही हैं और जिन्होंने विभाजन की पृष्ठभूमि रची और जो संगठन उसके सूत्रधार थे वे पाक-साफ! हद है!!!
अगर बंटवारे के लिए नेहरू की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जिम्मेदार थी, तो नेहरू के लालच में पटेल क्यों सहभागी बने? उन्हें तो प्रधानमंत्री पद मिलना नहीं था तो आखिर वे नेहरू के हमसफ़र क्यों बने? क्या पटेल का व्यक्तित्व इतना दयनीय था कि कोई उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध बाध्य कर सकता था?
और हाँ, नेहरू की पहली कैबिनेट में श्यामा प्रसाद मुखर्जी क्यों शामिल हुए? अगर मुखर्जी बंटवारे को नेहरू की महत्वाकांक्षा की परिणति मानते थे, तो नेहरू की सरकार में जाना क्यों स्वीकार किया?
गहराई से सोचिएगा जरूर।