मुल्ला नसीरुद्दीन से हम सभी वाकिफ हैं। लगभग 800 वर्ष पूर्व तुर्की, इरान और बगदाद के रेगिस्तानों में घूमने वाले मुल्ला परमज्ञानी थे। परंतु ज्ञान बांटने के उनके तरीके बड़े अनूठे थे। वे उपदेश नहीं देते थे, बल्कि हास्यास्पद या बहुत सरल उदाहरणों से समझाने की कोशिश करते थे। उनका मानना था कि बात यदि हास्यास्पद तरीके से समझाई जाए तो हमेशा के लिए मनुष्य के जहन में उतर जाती है।
एक दिन मुल्ला बाजार से गुजर रहे थे। प्रायः वे गधे पर और वह भी उल्टे बैठकर सवारी किया करते थे और निस्संदेह, उनका यह तरीका ही लोगों को हँसाने के लिए पर्याप्त था।
खैर, उस दिन वे बाजार में उतरे और कुछ खजूर खरीदे। फिर जब दुकानदार को मुद्राएं देने की बारी आई तो उन्होंने अपने जूते उतारे और जमीन पर बैठ गए। जूतों में अंदर-बाहर टटोलने लगे, परंतु मुद्राएं जूतों में नहीं थीं। उन्होंने अपने पायजामे के अंदर टटोला, पर मुद्रा वहाँ भी नहीं थी। फिर अब तक वहाँ काफी भीड़ एकत्रित हो गई थी। एक तो मुल्ला की सवारी, यानी गधे पर उल्टा बैठना ही भीड़ इकट्ठी करने के लिए पर्याप्त था, और अब ऊपर से उनकी ये हरकतें भी लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनती जा रही थीं।
इधर मुल्ला एक तरफ यहां-वहां मुद्राएं ढूंढ रहे थे, और वहीं दूसरी तरफ वे खरीदे हुए खजूर भी खाए जा रहे थे। निश्चित ही दुकानदार इस बात से थोड़ा परेशान हो गया कि एक तो यह व्यक्ति ऊटपटांग जगहों पर मुद्राएं ढूंढ रहा है और ऊपर से बिना मुद्रा चुकाए खजूर भी खाए जा रहा है। कहीं मुद्राएं न मिलीं तो क्या इसके पेट से खजूर निकालूंगा?… अभी दुकानदार यह सब सोच ही रहा था कि मुल्ला ने सर से टोपी उतारी और फिर उसमें मुद्राएं खोजने लगा।
अब दुकानदार से नहीं रहा गया, उसने सीधा मुल्ला से कहा- “यह मुद्राएं यहां वहां क्या खोज रहे हो? सीधे-सीधे कुर्ते की जेब में क्यों नहीं देखते?”
इस पर मुल्ला बोले – “लो, यह पहले क्यों नहीं सुझाया?” इतना कहते-कहते मुल्ला ने कुर्ते की जेब में हाथ डाला और मुद्राएं दुकानदार को थमाते हुए बोले – “वहाँ तो थीं ही, मैं तो ऐसे ही देख रहा था, शायद कहीं और से भी निकल आएं।”
यह सुनते ही पूरी भीड़ हँस पड़ी। भीड़ में से एक बुजुर्ग ने बोला “लगता है कोई पागल है। जब मालूम था कि मुद्रा कुर्ते की जेब में है तो भी यहां-वहां ढूंढ रहा था!”
अब मुल्ला की बारी आ गई थी। जो बात कहने के लिए उन्होंने इतना सारा नाटक किया था, वह कहने का वक्त आ गया था। उन्होंने बड़ी गंभीरतापूर्वक सबको संबोधित करते हुए कहा-“मेरे प्यारे मित्रों! मैं पागल सिर्फ इसलिए माना जा रहा हूँ क्योंकि मुद्राएं जहां पड़ी थीं, मैं वहां नहीं खोज रहा था। लेकिन मेहरबानी कर एक बार आप सब अपने भीतर झांक कर देखो। यह जानते हुए कि हमारा रब, हमारा खुदा हमारे दिल में बसा हुआ है फिर भी आप सब लोग उसे बाहर खोजते फिरते हो।
यदि मैं पागल हूँ तो आप सब फिर क्या हो। मैं तो इस छोटी सी बात पर मूर्खता कर रहा था, परंतु आप सभी लोग जीवन के इस परम सत्य के मामले में ऐसी मूर्खता करते आ रहे हो।”
नसीरुद्दीन जी की यह उलाहना आज भी पूरी मनुष्यता के लिए एक सीख और चेतावनी है।
परम तत्व (दिव्यता) हमारे दिल में ही मौजूद है और हम उसे बाहर ढूँढने की कोशिश करते रहते है!
*“चिरस्थायी सुख पाने के लिए हमें अपने अंतरतम की गहराई में देखना होगा।”*
*दाजी*