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जन-विकल्प क्यों नहीं बन सकता ‘इण्डिया’ गठबन्धन 

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        पुष्पा गुप्ता 

सारी पार्टियाँ अपने उम्मीदवारों की घोषणा और चुनाव प्रचार करने में लगी हैं। फ़ासीवादी भाजपा इस खेल में सबसे आगे है। वह चुनाव प्रत्याशियों की घोषणा और प्रचार के अलावा अपने विपक्षियों को ख़रीदकर भाजपा में शामिल करने तथा ईडी और सीबीआई के छापे पड़वाकर उन्हें जेल में भरने का काम भी कर रही है।

     भाजपा की नीति ही यही है कि विपक्ष को हर तरह से तोड़ दो। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी! न विपक्ष में कोई रहेगा, न उन्हें कोई टक्कर देगा। फ़िर भी जो बचे-खुचे रह जायेंगे, उन्हें वे ईवीएम में छेड़छाड़ करके पूरा कर ही लेंगे। भाजपा की यह फ़ासीवादी नंगई आज पानी की तरह साफ़ हो चुकी है। 

     भाजपा 2024 लोकसभा चुनाव जीतने के लिए हर जुगत भिड़ाने में लगी है। चाहे ईवीएम में छेड़छाड़ करने का मामला हो, विपक्षियों के खाते फ़्रीज़ करने का मामला हो या ईडी के छापे पड़वाने का, भाजपा किसी भी क़ीमत पर यह चुनाव जीतना चाहती है।

    आज भाजपा का फ़िर से सत्ता में आना कितना ख़तरनाक हो सकता है यह बताने की ज़रूरत नहीं है। यह फ़ासीवादी सरकार पहले ही देश को जाति-धर्म में बाँटने में लगी है। दूसरी तरफ़ यह लगातार ऐसे मज़दूर-विरोधी और जन-विरोधी क़ानून ला रही है जिससे मालिकों के मुनाफ़े को बढ़ाया जा सके तथा सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों को चुप कराया जा सके। ऐसे में सवाल यह बनता है कि अग़र भाजपा नहीं तो फ़िर कौन?*

*क्या ‘इण्डिया’ विकल्प हो सकता है?*

    आज देश में विकल्प के तौर पर ‘इण्डिया’ गठबन्धन को हमारे सामने पेश किया जा रहा है, जिसमें तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय विरोधी पार्टियाँ शामिल है। इनमें कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, राजद, आप, डीएमके, एनसीपी, शिवसेना आदि पार्टियों के अलावा नकली लाल झण्डे वाली पार्टियाँ – सीपीआई, सीपीआई(एम), सीपीआई(एमएल) भी शामिल हैं। कहने को तो पहले पलटू कुमार (नीतीश कुमार) की जनता दल यूनाइटेड (जदयू) भी इस गठबन्धन का हिस्सा थी, लेकिन अपनी कुर्सी बचाने के लिए (और शायद ईडी के छापे पड़ने और केजरीवाल की तरह जेल जाने से बचने के लिए) पलटू चाचा ने फ़िर पलटी मारी और भाजपा के साथ गठजोड़ कर लिया। 

     आपको पता हो कि नीतीश कुमार पहले भी कई दफ़ा ऐसा कर चुके हैं। यही हाल कमोबेश इस गठबन्धन की सभी पार्टियों का है जिन्हें बस सत्ता का लालच है और इनकी राजनीति इसी अवसरवादिता तक सीमित है। ख़ैर, कुल मिलाकर लिबरल और प्रगतिशील तबके द्वारा भी लोगों के सामने आज ‘इण्डिया’ गठबन्धन को ही एकमात्र विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है। लेकिन ज़रा इस गठबन्धन में शामिल पार्टियों के इतिहास और कारनामे पर नज़र डालें तो यह साफ़ हो जाता है कि ये सारी पार्टियाँ भी किसी न किसी पूँजीपति वर्ग की ही नुमाइन्दगी करती हैं।

 आइये हम एक-एक करके इनके वर्ग चरित्र और इनकी सच्चाई को समझते हैं।

   *कांग्रेस का इतिहास और उनकी वर्तमान दशा :*

     भारत में कांग्रेस पार्टी मालिकों की वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली सबसे पुरानी पार्टी है। कांग्रेस पार्टी अपने अस्तित्व के संकट से गुज़र रही है क्योंकि मालिकों की लूट को भाजपा आज ज़्यादा बेहतर ढंग से जारी रख सकती है और इसलिए वह देश के पूँजीपति वर्ग के बहुलांश के लिए पसन्दीदा पहला विकल्प नहीं है। आज़ादी के बाद से क़रीब 60-65 साल कांग्रेस ने राज किया, और अपने पूरे शासनकाल में कांग्रेस ने यह ख़्याल रखा कि पूँजीपतियों की ख़ातिरदारी में कोई कमी न रह जाये।

      पहले जब आज़ादी के ठीक बाद यह वर्ग इतना ताक़तवर नहीं था तब राज्य ने एक बड़े पूँजीपति की भूमिका निभायी। तब देश में ‘पब्लिक सेक्टर’ की तथाकथित ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ के ज़रिए कांग्रेस ने इस काम को अंजाम दिया था। इसके ज़रिये बड़े आधारभूत व अवरचनागत उद्योगों को सरकार ने अपने हाथों में लिया और देशी पूँजीपतियों को ख़राब गुणवत्ता के उपभोक्ता माल बनाकर बेचने की इजारेदारी के ज़रिये पूँजी संचय करने का मौका दिया। 

     कांग्रेस की सरकार ने अपनी तमाम संरक्षणवादी नीतियों द्वारा इन ‘देशी’ पूँजीपतियों को विकसित देशों के बड़े पूँजीपतियों से प्रतिस्पर्द्धा से बचाने का काम भी किया, उन्हें फलने-फूलने का पूरा अवसर प्रदान किया तथा जनता को लूटने का मौका दिया। 1980 के दशक के अन्त तक, जब भारत के टाटा-बिड़ला, अम्बानी, हिन्दुजा, गोयनका आदि बड़े पूँजीपति मज़बूत हो चुके थे, मँझोले और छोटे पूँजीपतियों का एक वर्ग पैदा हो चुका था, गाँवों में ग्रामीण पूँजीपति यानी धनी किसानों व कुलक भूस्वामियों का एक वर्ग पनप चुका था, तब जनता की बचत और मेहनत के बूते खड़े किये गये देश के पब्लिक सेक्टर को कांग्रेस की सरकार ने ही 1991 में लायी गयी नयी आर्थिक नीतियों के तहत कौड़ियों के दाम पूँजीवादी घरानों व कम्पनियों को बेचना शुरू किया। 

      भाजपा ने तो आर्थिक संकट के दौर में इन्हीं जनविरोधी नीतियों को बेरोकटोक और तेज़ गति से लागू करने का काम किया है। पहले 1998 से 2004 तक की वाजपेयी सरकार ने और फ़िर 2014 के बाद मोदी सरकार ने इस काम को अंजाम दिया है।

      भले ही आज आर्थिक संकट के गहरे होने के कारण कांग्रेस इन धन्नासेठों की पहली पसन्द नहीं है, क्योंकि वह भाजपा और आरएसएस की तरह जनता को बाँटने के लिए एक प्रतिक्रियावादी साम्प्रदायिक सामाजिक आन्दोलन नहीं खड़ा कर सकती जो लोगों को उनके असल मुद्दों से भटकाने का काम करे, लेकिन फिर भी पूँजीपति वर्ग का हित इसे भी ज़िन्दा रखने में है। 

     यही कारण है कि इलेक्टोरल बॉण्ड से मिले चन्दों में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बाद कांग्रेस को ही सर्वाधिक क़रीब 1300 करोड़ रुपये मिले। यह सच है कि सभी पार्टियों को मिले चन्दे से ज़्यादा अकेले फ़ासीवादी भाजपा को मिला ताकि वह तानाशाहाना तरीक़े से नवउदारवादी मज़दूर-विरोधी व जनविरोधी नीतियों को लागू कर सके। कांग्रेस भी भाजपा के भ्रष्टाचार की आलोचना और उस पर राजनीतिक हमले करने में इस बात का ध्यान रखती है कि वह पूँजीपति वर्ग को नाराज़ न करे। वह बार-बार श्रेय लेने की तरह से याद दिलाती है कि निजीकरण व उदारीकरण की पूँजीपरस्त नीतियों की शुरुआत तो उसी ने की थी! 

    वह बस इतना चाहती है कि लूटने का अवसर सारे पूँजीपतियों को बराबरी से मिले, केवल मोदी के मित्रों को, मसलन, अडानी व अम्बानी आदि को नहीं!

*अन्य राष्ट्रीय व क्षेत्रीय विपक्षी पार्टियों की कुण्डली :*

     ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि यदि भाजपा और कांग्रेस को छोड़ दें तो बाक़ी की चुनावबाज़ पार्टियों को आम जनता तथा मेहनतकश-मज़दूरों की चिन्ता सताती हो, और सत्ता में आने के बाद वे जनता के लिए दिलो-जान से काम करने को बेक़रार हों! आप, सपा, बसपा, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, जद (यू), जद (सेकु.), तृणमूल कांग्रेस, राजद, शिवसेना आदि भी चुनकर अगर सत्ता में आती हैं, तो ये पार्टियाँ भी जनता की सच्चे मायने में नुमाइन्दगी नहीं कर सकतीं क्योंकि ये भी पूँजीपति वर्ग के ही किसी न किसी हिस्से से मिलने वाले चन्दों व अनुदानों पर चलती हैं और इसलिए पूँजीपति वर्ग के हितों की ही नुमाइन्दगी करती हैं। इनकी पिछली सरकारों का ब्योरा निकालने पर यह बात और साफ़ हो जाती है।

     उदाहरण के लिए आम आदमी पार्टी (आप) की बात करें तो यह मँझोले व छोटे पूँजीपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, बिचौलियों, प्रॉपर्टी डीलरों, ट्रांसपोर्टरों तथा शहरी पढ़े-लिखे नौकरीशुदा मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। यह दावा करती है कि इसकी कोई विचारधारा नहीं है और यह एक भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद बनाने की लड़ाई लड़ रही है। 

     लेकिन सच्चाई यह है कि ‘आप’ टुटपुँजिया दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, जिसका अर्थ है एक सदाचारी पूँजीवाद का सपना दिखाते हुए सभी वर्गों से तमाम वायदे करना, लेकिन वास्तव में केवल पूँजीपतियों व व्यापारियों से किये गये वायदों को निभाना। भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद भी वैसा ही एक हवाई सपना है।

         उसी तरह बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की बात करें तो यह दलित आबादी के बीच पैदा हुए एक छोटे-से पूँजीपति वर्ग, उच्च व मँझोले नौकरशाह वर्ग, मँझोले व निम्न सरकारी कर्मचारी वर्ग यानी कुल मिलाकर दलित आबादी के बीच पैदा हुए एक पूँजीपति वर्ग व मध्यवर्ग के बीच आधार रखती है और मुख्य तौर पर इसी दलित पूँजीपति वर्ग और उच्च मध्यवर्ग की नुमाइन्दगी करते हुए, आम तौर पर पूँजीपति वर्ग के हितों की ही नुमाइन्दगी करती है। यह दीगर बात है कि वह दलित अस्मिता का इस्तेमाल कर दलित मेहनतकश आबादी को भी गुमराह करती है और उसे दलित पूँजीपति वर्ग का पिछलग्गू बनाये रखने का काम कर उसके वोट बटोरने का प्रयास करती है।

       इसके बाद बचती हैं तमाम क्षेत्रीय पार्टियाँ : तृणमूल कांग्रेस, राजद, जदयू, शिवसेना, एनसीपी, सपा इत्यादि। हमने पहले ही बताया है कि ये तमाम चुनावबाज़ पार्टियाँ हैं जो किसी न किसी पूँजीपति वर्ग की सेवा करती है। इलेक्टोरल बॉण्ड से मिली भारी-भरकम रकम में एक हिस्सा इन पार्टियों का भी है। तृणमूल कांग्रेस को तो भाजपा के बाद दूसरे नम्बर पर चन्दा मिला है।

      ममता बनर्जी की सरकार ने अपने राज्य के क्षेत्रीय पूँजीपतियों  की सेवा भी इसलिए खुलकर की है। यही हाल बाक़ी की चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियों का भी है।

*नकली लाल झण्डे वाली पार्टियों का असली रंग :*

    इसके बाद आती हैं नकली लाल झण्डे वाली पार्टियाँ : सीपीआई, सीपीआई (एम) और सीपीआई (एमएल)। कहने को तो इन तीनों पार्टियों के नाम में कम्युनिस्ट लगा है और ये लाल झण्डा लेकर मज़दूरों के हक़ों के लिए लड़ने की बात करती हैं। लेकिन हक़ीक़त यही है कि इन सारी पार्टियों का लाल रंग बहुत पहले ही झड़ चुका है और कुछ का तो शुरू से ही गुलाबी रंग था और अब यह बस संसदमार्गी रास्ता अपनाकर ही क्रान्ति लाने की बात करती हैं। 

     असल मायनों में ये तीनों ही मार्क्सवाद का खोल ओढ़े पूँजीवादी पार्टियाँ ही हैं। ये क्रान्तिकारी मार्ग से बहुत पहले ही समझौता कर संशोधनवाद के रास्ते पर जा चुकी हैं। ये इस पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति का काम करती हैं। अव्वलन तो आज इनमें से अधिकांश फ़ासीवाद को फ़ासीवाद कहने से ही घबराती हैं और फ़ासीवाद को हराने के लिए आज भी “पॉप्युलर फ्रण्ट” की बात करते हैं, जो एक ख़ास समय की विशेष परिस्थितियों में ही आंशिक तौर पर कारगर हो सकता था, आज नहीं।

      लेकिन अपने विचारधारात्मक दिवालियेपन की वजह से इन्हें यह बात समझ ही नहीं आती। यही कारण है कि आज ये तीनों प्रमुख संशोधनवादी पार्टियाँ ‘इण्डिया’ गठबन्धन का हिस्सा हैं और फ़ासीवाद को हराने का रास्ता उन्हें कांग्रेस और बाकि चुनावबाज़ पार्टियों का पिछलग्गू बनकर और भाजपा को चुनाव में हराकर नज़र आता है।

*क्या फ़ासीवाद को सिर्फ़ चुनावी रास्ते से हराया जा सकता है?*

     जवाब है नहीं! आज अग़र कांग्रेस या किसी अन्य पार्टी की सरकार ग़लती से सत्ता में आ भी जाये तो भी फ़ासीवाद की निर्णायक हार नहीं हो सकती। ऐसा वही लोग कहते हैं जो राज्यसत्ता और सरकार में फ़र्क़ नहीं समझते। आज भाजपा और संघ ने देश के हर क्षेत्र, नौकरशाह, पुलिस, सेना, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, कॉलेज-विश्वविद्यालय  समेत पूरे सरकारी तन्त्र में घुसपैठ कर ली है।

      यही सारे निकाय मिलकर राज्यसत्ता का निर्माण करते हैं। यानी राज्यसत्ता सरकार की तरह कोई अस्थायी निकाय नहीं होती। यदि इस निकाय पर फ़ासीवादी शक्तियाँ अन्दर से क़ब्ज़ा जमा लें और अन्दर से उसका टेकओवर कर लें तो सिर्फ़ चुनाव में हराकर इनको परास्त नहीं किया जा सकता है।

     यही कारण है कि अगर इनकी सरकार सत्ता से चली भी जाये तो वह फ़ासीवाद की निर्णायक हार नहीं होगी। भारत में आज संघ और भाजपा ने यही काम किया है और इस तन्त्र के पोर-पोर में इन्होंने अपने लोगों और प्रतिक्रियावादी विचारों को घुसाने का काम किया है। यह बात इसी साल हैदराबाद में पुलिस द्वारा ‘राम के नाम’ फ़िल्म की स्क्रीनिंग को रोकने के उदाहरण से समझी जा सकती है। आपको बता दें कि इसी साल जनवरी में तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में ‘हैदराबाद सिनेफ़ाइल्स’ नामक मंच की ओर से भाजपा और संघ संचालित 1990 की रथ यात्रा की हक़ीक़त को बयान करती आनन्द पटवर्धन की पुरस्कृत फ़िल्म ‘राम के नाम’ की स्क्रीनिंग रखी गयी थी। 

     इस स्क्रीनिंग को बीच में ही रोककर तेलंगाना पुलिस ने आयोजकों को गिरफ़्तार कर लिया था। इस घटना के कुछ ही समय पहले कांग्रेस ने बड़े-बड़े दावे करते हुए चुनाव जीतकर तेलंगाना में सरकार बनायी थी। इसी तरह कर्नाटक में जीतने से पहले इसी कांग्रेस की सरकार ने वायदा किया था कि वह बजरंग दल पर रोक लगायेगी। लेकिन सत्ता में आते ही कांग्रेस ने इस पर चुप्पी साध ली।

       हमे यह समझना होगा कि आज का फ़ासीवाद कई मायनों में जर्मनी और इटली के फ़ासीवाद से अलग है। आज फ़ासीवाद आम तौर पर और आपवादिक स्थितियों को छोड़कर पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को बनाये रखता है। यहाँ तक कि फ़ासीवादी सरकार भारी अलोकप्रियता के कारण सत्ता से भी कुछ समय के लिए जा सकती है। पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को बरक़रार रखने से पैदा होने वाले अन्तरविरोधों के कारण आपवादिक मामलों में न्यायपालिका के कुछ फ़ैसले भी इनके विरुद्ध जा सकते हैं।

         परन्तु इसका मतलब फ़ासीवाद का न होना, कमज़ोर होना या हार जाना नहीं होता। असल में राज्यसत्ता पर क़ब्ज़ा कर फ़ासीवाद दीर्घकालिक संकट से ग्रस्त पूँजीवाद के दौर में इस पूँजीवादी लोकतन्त्र को अन्दर से खा जाता है और खोखला कर देता है। कुछेक फ़ैसलों का इनके ख़िलाफ़ जाना इनके हारने का पैमाना नहीं हो सकता है। वैसे भी इन फ़ैसलों से फ़ासीवाद की दूरगामी सेहत पर कोई विशेष असर नहीं पड़ता। 

     जैसा कि आप देख भी रहे होंगे, सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलेक्टोरल बॉण्ड पर आये फ़ैसले के बावजूद न तो भाजपा पर कोई कार्रवाई हुई है और न ही तमाम भ्रष्टाचारी शेल कम्पनियों पर जिन्होंने अपने कुल घोषित मुनाफ़े से ज़्यादा चन्दा दिया है, यानी काले धन को सफ़ेद बनाया है। ऐसे में, इन फ़ैसलों का क्या मतलब रह जाता है?

*विकल्प क्या है?*

     लुब्बेलुबाब यह कि तमाम विपक्षी पूँजीवादी पार्टियाँ भाजपा के फ़ासीवादी शासन के विरुद्ध प्रभावी ढंग से नहीं लड़ सकती हैं। उनके पास अभी न तो पूँजीपति वर्ग के भारी आर्थिक समर्थन की ताक़त है, न उनके पास संघ परिवार जैसा सांगठनिक काडर ढाँचा है और न ही वह विचारधारात्मक आधार है, जो कि भाजपा व संघ परिवार के पास है।

      साथ ही राज्यसत्ता के तमाम निकायों में घुसकर फ़ासीवादी मोदी सरकार और संघ परिवार ने एक-एक करके सारे विरोधियों को कमज़ोर करने का काम किया है जिसकी बात हम लेख की शुरुआत में ही कर चुके हैं। ये जनता के बीच से कोई जुझारू आन्दोलन खड़ा कर नहीं सकते क्योंकि व्यापक पैमाने पर जनता में उतर जाने की ताक़त इन पूँजीवादी पार्टियों के पास नहीं है।

      लेकिन भारी अलोकप्रियता और पूँजीवादी जनवाद के खोल को बरक़रार रखने से पैदा होने वाले अन्तरविरोधों के कारण अगर आने वाले लोकसभा चुनावों में जनता के बीच मोदी सरकार ईवीएम में किये जाने वाले हेर-फेर के बावजूद हार जाये और विपक्षी पार्टियों का गठबन्धन ‘इण्डिया’ जीत भी जाये, तो भाजपा और संघ परिवार की देश के समाज और राजनीति में पकड़ बनी रहेगी और आर्थिक संकट के फलस्वरूप व्यापक निम्न मध्यवर्गीय व टुटपुँजिया आबादी में मौजूद आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा का लाभ उठाकर, किसी नक़ली दुश्मन, मसलन, मुसलमानों का भय पैदा करके वह और भी ज़्यादा आक्रामक तरीक़े से फिर से सरकार बनाने तक पहुँचेगी।

      यह सच है कि भाजपा की चुनावी हार से फ़ासीवादी उभार को और राज्यसत्ता के फ़ासीवादीकरण के लगातार जारी प्रोजेक्ट को तात्कालिक धक्का पहुँचेगा। यह भी सच है कि इससे जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों को अपने आपको संगठित करने और सशक्त बनाने के लिए अपेक्षाकृत रूप से एक बेहतर सन्दर्भ मिलेगा। लेकिन इस चुनावी हार (अगर यह होती है!) से यह समझने की आत्मघाती भूल कतई नहीं की जानी चाहिए कि यह फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय होगी। 

    राज्यसत्ता और समाज पर फ़ासीवादी शक्तियों की पकड़ बनी रहेगी और आर्थिक मन्दी और टुटपुँजिया वर्गों में आर्थिक असुरक्षा के बरक़रार रहने की सूरत में वह फिर से, पहले से भी ज़्यादा आक्रामक तरीक़े से चुनाव जीतकर सत्ता में पहुँचेगी।

      फ़ासीवाद का सत्ता पर आरोहण हमारे देश में इसी रूप में हुआ है। पिछले लगभग तीन दशकों का इतिहास इसका गवाह है।

      2004 और 2009 के चुनावों में भाजपा के हारने के बाद भी ऐसा शोर मचाया गया था कि फ़ासीवाद परास्त हो चुका है, लेकिन इसके बाद 2014 में भाजपा और ज़्यादा संगठित और मज़बूत होकर सत्ता में पहुँची। इसलिए कांग्रेस, सपा, आप, तृणमूल, शिवसेना, राकांपा, द्रमुक, राजद आदि पार्टियाँ भाजपा व संघ परिवार को निर्णायक रूप से शिकस्त देने का काम नहीं कर सकतीं। 

    यह काम केवल और केवल जनता कर सकती है, बशर्ते कि वह पूरे देश के पैमाने पर अपनी एक क्रान्तिकारी पार्टी को खड़ा करे, जो किसी भी रूप में पूँजीपति वर्ग के चन्दे व सहयोग पर नहीं बल्कि व्यापक मेहनतकश जनता के बूते चलती हो और जो बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार व साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर जुझारू जनान्दोलन खड़ा करके फ़ासिस्ट सत्ता को उखाड़ फेंकने का माद्दा रखती हो।

      आज के दौर में फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय केवल समाजवादी क्रान्ति के साथ ही सम्भव है। केवल इसी के ज़रिये अन्ततः भाजपा व संघ परिवार के फ़ासीवादी प्रोजेक्ट को शिकस्त दी जा सकती है।

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