रैदास अपने चिंतन और अभिव्यक्ति में पूरी तरह से आधुनिक चिंतक और लेखक हैं। आधुनिक चिंतन का सबसे बड़ा लक्षण क्रिटिकल थिंकिंग (समालोचनात्मक सोच) माना जाता है, जिसे सहज और सरल शब्दों में कहें तो अपने समय की वर्चस्ववादी वैचारिकी, संवेदना, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थितियों और संबंधों को आलोचनात्मक विवेक दृष्टि से देखना। वर्चस्व और अधीनता के सभी रूपों को चुनौती देना। चिंतन और लेखन के केंद्र में ईश्वर और राजा-महाराजा की जगह सामान्य इंसान को प्रतिष्ठित करना। आस्था की जगह तर्क और विवेक को देखने-समझने का प्रस्थान बिंदु बनाना। भाग्य-नियति नहीं, बल्कि कर्म को सब कुछ मानना। व्यक्ति की महत्ता का मूल्यांकन धर्म, जाति, परिवार या खानदान के आधार पर नहीं करके उसके गुणों के आधार पर करना। शास्त्र के सच को नहीं, भोगे हुए सच को, अपने अनुभव के सच को लेखन और अभिव्यक्ति का विषय बनाना। सर्वश्रेष्ठता का दावा करने वाले धर्मों और ग्रंथों तथा उन पर आधारित सामाजिक संबंधों को चुनौती देने और उन्हें खारिज करने का साहस रखना। रैदास आधनुकिता के इन सभी अर्थों में आधुनिक चिंतक हैं। श्रम और श्रमिक की महत्ता का उन्होंने जिस तरह बखान किया है, वह उन्हें मार्क्सवादी चिंतन के आसपास ले जाकर खड़ा कर देता है। डॉ. आंबेडकर से 400 वर्ष से अधिक समय पहले जन्मे रैदास में उनके वर्ण-जाति व्यवस्था संबंधी चिंतन के बुनियादी तत्व दिखाई देते हैं।
रैदास के आधुनिक क्रांतिकारी चिंतन-लेखन को वैश्विक और देश के फलक पर व्यापक स्वीकृति क्यों नहीं मिली? सच तो यह कि उनकी आधुनिक चिंतन दृष्टि को व्यवस्थित और व्यापक तौर इतिहास में वह जगह भी नहीं मिली, जिसकी वह हकदार थी। इसकी दो स्पष्ट वजहें हैं– ब्राह्मणवादी-सामंती चिंतन और औपनिवेशिक चिंतन।
डॉ. सिद्धार्थ
भारतीय समाज में सामंतवाद बनाम आधुनिकता का संघर्ष ब्राह्मणवाद और बहुजन-श्रमण परंपरा के बीच के संघर्ष के रूप में अभिव्यक्त होता रहा है। आइए पंद्रहवीं शताब्दी के रैदास के आधुनिक चिंतन को उनके लेखन के माध्यम से देखने-समझने की कोशिश करते हैं।
रैदास के चिंतन-लेखन में श्रम और श्रमिक की महत्ता
पश्चिम के देशों में श्रम और श्रमिक को चिंतन के केंद्र में लाने का श्रेय मार्क्सवाद को जाता है। श्रम और श्रमिक को मानव विकास यात्रा का केंद्र मानने वाले लोगों को समाजवादी और कम्युनिस्ट तक कहा जाता है। लेकिन भारत में रैदास सर्वश्रेष्ठता का दावा करने वाले और खुद को भू-देवता कहने वाले ब्राह्मणों की तुलना में श्रमिकों को श्रेष्ठ ठहराते हैं। यथा–
धरम करम जाने नहीं, मन मह जाति अभिमान।
ऐ सोउ ब्राह्मण सो भलो रविदास श्रमिकहु जान॥
श्रमिक को परजीवी ब्राह्मणों की तुलना में श्रेष्ठ कहना, वह भी पंद्रहवी शताब्दी में। आखिर श्रमिक से ब्राह्मण की तुलना क्यों? दरअसल, भारतीय समाज में ब्राह्मण श्रम से घृणा करने वाले समूह का प्रतिनिधि है। ब्राह्मणवादी ग्रंथों और उनके रचयिता ब्राह्मणों ने ऊंच-नीच होने का जो पैमाना बनाया, अगर उसके मूल तत्व को देखने की कोशिश की जाए, तो उसका आधार श्रम है। जो व्यक्ति या समूह जितना ही जरूरी सामाजिक श्रम करता है, ब्राह्मण धर्मग्रंथ और महाकाव्य उसे उतना ही नीच ठहराते हैं। मेहतर सबसे नीच माना जाता है, क्योंकि वह गंदगी की सफाई करता है। अंत्यज को पांचवां और सबसे नीच वर्ण का माना गया, क्योंकि वह हरवाही और उत्पादन के अन्य कार्य करता था। शूद्र जातियां भी नीच मानी गईं, क्योंकि वे खेती और दस्तकारी के सारे कार्य करती थीं।
लेकिन पंद्रहवीं शताब्दी में रैदास श्रम करके खाने को ही सबसे बड़ा मूल्य मानते हैं। वह जोर देकर कहते हैं कि जब तक हो सके तब तक श्रम करके ही खाना चाहिए–
रैदास स्रम करि खाइहिं, जौं लौं पार बसाय।
नेक कमाई जउ करइ, कबहुं न निहफल जाय॥
वामपंथी-मार्क्सवादी जिस समाजवाद या साम्यवादी समाज को स्थापित करने का स्वप्न देखते हैं या जहां-जहां उन्होंने इसे स्थापित करने में सफलता पाई, वहां सबसे बड़ा जोर इस बात पर था कि हर स्वस्थ व्यक्ति उत्पादन में सीधे श्रमिक के रूप में योगदान दे। कोई भी किसी दूसरे के शारीरिक श्रम पर न पले। दूसरे के शारीरिक श्रम पर पलने वाले को पैरासाइट या परजीवी कहा जाता है, उसे घृणा का पात्र समझा जाता है, क्योंकि वह दूसरे का खून चूस कर जीवित रहता है। ऐसे ही रैदास स्वतंत्रता को महत्व देते हैं और पराधीनता को पाप बताते हैं।
पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन सौं, कौन करैहै प्रीत॥
भारत की बहुजन-श्रमण परंपरा श्रम और श्रमिकों को केंद्र में रखने वाली परंपरा रही है, यहां तक कि डॉ. आंबेडकर ने जो पहली पार्टी बनाई, वह इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी थी। इसके विपरीत भारत की ब्राह्मणवादी (सामंती) परंपरा परजीवियों की परंपरा रही है। ब्राह्मणवादी द्विज परंपरा के विपरीत दलित-बहुजन परंपरा के कवि रैदास श्रम की संस्कृति में विश्वास करते हैं। उनका मानना था कि हर व्यक्ति को श्रम करके ही खाना खाने का अधिकार है। रैदास स्वयं भी श्रम करके जीवन-यापन करते थे और श्रम करके जीने को सबसे बड़ा मूल्य मानते थे। घर-बार छोड़कर वन जाने या संन्यास लेने को वे ढोंग-पाखंड कहते थे। यथा–
नेक कमाई जउ करइ गृह तजि बन नहिं जाए।
इसके बरअक्स द्विज जातियां दलित-बहुजनों के श्रम पर पलती रही हैं, और अपने परजीवीपन पर अभिमान करती रही हैं तथा इसके आधार पर अपनी श्रेष्ठता का दावा करती रही हैं। उनकी नजर में जो व्यक्ति श्रम से जितना ही दूर है, वह उतना ही श्रेष्ठ है और जो सबसे ज्यादा श्रम करता है, उसे सबसे निम्न कोटि का ठहरा दिया गया।

वर्ण-जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था और रैदास
भारत में वर्ण-जाति पर आधारित आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संबंध सामंतवाद का आधार रहा है और आज भी है। आधुनिक चिंतक की तरह रैदास इसका गहन विश्लेषण करते हैं और उसे पूरी तरह खारिज करते हैं। वे कहते हैं कि जन्म के आधार पर कोई नीच नहीं होता है, बल्कि वह व्यक्ति नीच होता है, जिसके हृदय में संवेदना और करुणा नहीं है–
दया धर्म जिन्ह में नहीं, हृदय पाप को कीच।
रविदास जिन्हहि जानि हो महा पातकी नीच॥
दूसरी ओर मध्यकालीन सामंतवाद में व्यक्ति या समूह की महत्ता का आधार उसका गुण नहीं, बल्कि यह रहा है कि वह किस जाति, परिवार, खानदान या धर्म में जन्म लिया है। इसकी सबसे सटीक अभिव्यक्ति तुलसीदास के इन शब्दों में होती है–
पूंजहिं विप्र सकल गुनहीना।
सूद्र न पूजहिं ग्यान प्रवीना॥
इसके ठीक विपरीत रैदास का मानना था कि व्यक्ति का आदर और सम्मान उसके कर्म के आधार पर करना चाहिए, जन्म के आधार पर कोई पूजनीय नहीं होता है। बुद्ध, कबीर, फुले, आंबेडकर और पेरियार की तरह रैदास भी साफ कहते हैं कि कोई ऊंच या नीच अपने मानवीय कर्मों से होता है, जन्म के आधार पर नहीं। वे लिखते हैं–
रैदास जन्म के कारनै होत न कोए नीच।
नर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच॥
आंबेडकर अपनी किताब ‘जाति का विनाश’ के दूसरे संस्करण की भूमिका में लिखते हैं कि “अगर मैं हिंदुओं को महसूस करा पाता हूं कि वे भारत के बीमार लोग हैं [और उनकी बीमारी जाति की बीमारी है] और उनकी बीमारी अन्य भारतीयों के स्वास्थ्य और खुशी के लिए खतरे पैदा कर रही है तो मेरी संतुष्टि के लिए इतना काफी होगा।” आंबेडकर से 400 वर्ष से भी पहले रैदास का कहना था कि जाति एक ऐसा रोग है, जिसने भारतीयों की मनुष्यता का नाश कर दिया है। जाति इंसान को इंसान नहीं रहने देती। उसे ऊंच-नीच में बांट देती है। एक जाति का आदमी दूसरे जाति के आदमी को अपने ही तरह का इंसान मानने की जगह ऊंच या नीच के रूप में देखता है। रैदास का कहना था कि जब तक जाति का खात्मा नहीं होता, तब तक लोगों में इंसानियत जन्म नहीं ले सकती–
जात पांत के फेर मंहि, उरझि रहइ सब लोग।
मानुषता कूं खात हइ, रैदास जात कर रोग॥
आंबेडकर भी बार-बार यह कहते हैं कि वर्ण-जाति के विनाश के बिना भारत एक राष्ट्र नहीं बन सकता है। भारतीयों के बीच समता, स्वतंत्रता और बंधुता का नाता नहीं कायम हो सकता है। रैदास का भी मत यही है–
रैदास ना मानुष जुड़ सके, जब लौं जाए न जात।
रैदास अपने पदों में कहते हैं कि जाति ने भारतीयों को टुकड़े-टुकड़े में बांट दिया। हर जाति के भीतर भी कई जातियां हैं–
जाति-जाति में जाति है, ज्यों केलन में पात
यह तथ्य बार-बार आंबेडकर भी अपने लेखन में दुहराते हैं।
हिंदू-मुस्लिम धर्म और रैदास
रैदास साफ शब्दों में कहते हैं कि न मुझे मंदिर से कोई मतलब है, न मस्जिद से; क्योंकि दोनों में ईश्वर का वास नहीं है। हिंदू-मुस्लिम के बीच कोई भेद नहीं करते। वे दोनों के पाखंड को उजागर करते हैं।
मस्जिद सों कुछ घिन नहीं, मंदिर सों नहीं पिआर।
दोए मंह अल्लाह राम नहीं, कहै रैदास चमार॥
रैदास मंदिर-मस्जिद से अपने को दूर रखते हैं, लेकिन हिंदू-मुस्लिम दोनों से प्रेम करते हैं–
मुसलमान सों दोस्ती, हिंदुअन सों कर प्रीत।
रैदास जोति सभ राम की, सभ हैं अपने मीत॥
रैदास बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों में कोई भेद नहीं है। जिन तत्त्वों से हिंदू बने हैं, उन्हीं तत्त्वों से मुसलमान भी बने हैं। दोनों के जन्म का तरीका भी एक ही है, दोनों एक ही हाड़-मांस से बने हैं–
हिंदू तुरुक महि नाहि कछु भेदा दुई आयो इक द्वार।
प्राण पिंड लौह मास एकहि रैदास विचार॥
यहां स्पष्ट कर लेना जरूरी है कि आधुनिकता और नास्तिकता एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं। आधुनिक चिंतक-विचारक के रूप में दुनिया को प्रभावित करने वाले और महान चिंतक-विचारक के रूप में स्थापित कांट, हेगेल, थामस पेन, वाल्तेयर, रुसो और जोतीराव फुले में कोई भी नास्तिक नहीं रहे। नास्तिकता को यदि आधुनिकता का पर्याय बना दिया जाए तो अधिकांश आधुनिक चिंतक आधुनिक चिंतन परंपरा से बाहर हो जाएंगे। रैदास नास्तिक थे या आस्तिक, यह उनके चिंतन को देखने का आधार नहीं हो सकता है। यदि वे ईश्वर को मानते थे, तो किस रूप में और दुनिया में उसकी भूमिका क्या है? कांट जैसा महान आधुनिक दार्शनिक ईश्वर को खारिज किए बिना दुनिया की व्याख्या गति के नियमों के आधार पर करता है, जिसमें ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं है। जोतीराव फुले का निर्मिक ईश्वर उनके चिंतन को किसी तरह तार्किक-वैज्ञानिक, विवेकसंगत और न्यायसंगत बनाने से रोक नहीं पाता है।
किसी चिंतक-विचारक और लेखक के चिंतन के केंद्रीय तत्व की सबसे मुखर अभिव्यक्ति इस बात में होती है कि आखिर वह कैसे राज्य की परिकल्पना करता है। वह तुलसी की तरह वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता आधारित रामराज्य की कल्पना करता है या सबकी समृद्धि और समता पर आधारित बेगमपुरा की कल्पना करता है। रैदास बेगमपुरा की कल्पना करते हैं। किसी भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के जीवन में दुख के दो सबसे मुख्य कारण होते हैं। पहला न्यूनतम आवश्यक आर्थिक संसाधनों का अभाव और दूसरा असमानता और अन्याय आधारित गैर-बराबरी का व्यवहार। जिसे आधुनिक राजनीतिक शब्दावली में आर्थिक मांगें और जनवादी मांगें कहा जाता है। पहले का संबंध व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यक जरूरतों को पूरा करने से होता है, दूसरे का संबंध मानवीय गरिमा के साथ जीने से होता है। सबसे बेहतरीन समाज वह होता है, जिसमें सबकी आर्थिक जरूरतें पूरी हों और दूसरा सबकी मानवीय गरिमा का सम्मान किया जाए। बेगमपुरा के रूप में रैदास ने जिस आदर्श समाज की कल्पना की है, उसके मूल तत्व को उन्होंने दो पंक्तियों में अभिव्यक्त कर दिया है–
ऐसा चाहूं राज मैं जहां मिलै सबन को अन्न।
छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न॥
उपरोक्त दो पंक्तियों में मानवीयता का मुख्य स्वप्न समाहित है। पहली पंक्ति कहती है कि सबको अन्न मिलना चाहिए। अन्न सभी जरूरी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति को अभिव्यक्त करता है। दूसरी पंक्ति कहती है कि छोटे-बड़े के भेद के बिना सभी लोग समान रूप से रहें। यह दो चीजें ही रैदास को प्रसन्न करने वाली थीं।
तुलसी के वर्णाश्रम आधारित रामराज्य के विपरीत रैदास बेगमपुरा के रूप में एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं, जो कबीर के अमरदेसवा, जोतीराव फुले के आदर्श बलिराजा का राज, डॉ. आंबेडकर के प्रबुद्ध भारत के रूप में आदर्श समाज की कल्पना और मार्क्स के समाजवादी समाज की कल्पना से मेल खाता है–
अब हम खूब वतन घर पाया, ऊंचा खेर सदा मन भाया।
बेगमपुर सहर का नाऊं, दु:ख अंदेस नहीं तिहिं ठाऊं॥
ना तसबीस, खिराजु न मालू, खौफ न खता न तरसु जवालु।
काइमु दाइमु सदा पातिसाही, दाम न, साम एक सा आही।
आवादानु सदा मसहूर, ऊहां गनी बसहिं मामूर।
तिउं-तिउं सैर करहिं जिउ भावै, हरम महल मोहिं अटकावै।
कह रैदास खलास चमारा, जो उस सहर सों मीत हमारा।
उपरोक्त पदों में रैदास ने अपने समय की व्यवस्था से मुक्ति की तलाश करते हुए जिस दुखविहीन समाज की कल्पना की है; उसी का नाम बेगमपुरा या बेगमपुर शहर है। रैदास साहेब इस पद के द्वारा बताना चाहते हैं कि उनका आदर्श देश बेगमपुर है; जिसमें ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और छुआछूत का भेद नहीं है। जहां कोई टैक्स देना नहीं पड़ता है; जहां कोई संपत्ति का मालिक नहीं है। कोई अन्याय, कोई चिंता, कोई आतंक और कोई यातना नहीं है। रैदास अपने शिष्यों से कहते हैं– “ऐ मेरे भाइयो! मैंने ऐसा घर खोज लिया है, यानी उस व्यवस्था को पा लिया है, जो हालांकि अभी दूर है; पर उसमें सब कुछ न्यायोचित है। उसमें कोई भी दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक नहीं है; बल्कि सब एक समान हैं। वह देश सदा आबाद रहता है। वहां लोग अपनी इच्छा से जहां चाहे जाते हैं। जो चाहे कर्म (व्यवसाय) करते हैं। उन पर जाति, धर्म या रंग के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं है। उस देश में महल (सामंत) किसी के भी विकास में बाधा नहीं डालते हैं। रैदास कहते हैं कि जो भी हमारे इस बेगमपुरा के विचार का समर्थक है, वही हमारा मित्र है।”
रैदास के जन्म और मृत्यु की सटीक तिथि के संदर्भ में चाहे जितनी अनिश्चितता हो और इसको लेकर शोधकर्ताओं में जो भी मतभेद हो, लेकिन इस पर सब एक स्वर से सहमत हैं कि रैदास के चिंतन और लेखन का समय पंद्रहवीं शताब्दी है। इसे मध्यकाल के रूप में जाना जाता है, मध्यकाल को सामंती काल के रूप में परिभाषित किया जाता है। इस काल में रैदास जैसा आधुनिक क्रांतिकारी चिंतक कैसे जन्म ले लेता है।
किसी व्यक्ति को आधुनिक क्रांतिकारी चिंतक बनाने में निम्न तत्वों की सबसे बड़ी भूमिका होती है–
- रैदास की वर्गीय जमीन : वर्गीय तौर पर वह मेहनतकश वर्ग से आया है, या परजीवी वर्ग से। दूसरे शब्दों में ऐसे वर्ग से आया है, जो उत्पादन करता है और उत्पादन करने के लिए श्रम करता है या ऐसे वर्ग से आया है, जो दूसरे के उत्पादन को हड़प लेता है और बिना उत्पाद में कोई भूमिका निभाये, यानि बिना श्रम किए सुख-सुविधा, यहां तक कि विलासिता की जिंदगी जीता है। रैदास मेहनतकश उत्पादक वर्ग में पैदा हुए थे। उनकी वर्गीय जमीन ने उन्हें आधुनिक क्रांतिकारी चिंतक-लेखक बनाने में अहम भमिका निभाई।
- रैदास का सामाजिक आधार : भारत में वर्गीय संबंधों की अभिव्यक्ति वर्ण-जाति के संबंधों के रूप में हुई। द्विज वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि) उत्पादन और श्रम में बिना हिस्सेदारी किए सुख-सविधा की जिंदगी जीते रहे हैं। जबकि शूद्र और अंत्यज कहे जाने वाले वर्ण उत्पादक और मेहनतकश वर्ण रहे हैं। शूद्रों-अंत्यजों के उत्पाद को हड़प कर द्विज वर्ण सुख-सुविधा और आराम की जिंदगी जीता था, आज भी बड़ा हिस्सा जीता है।
- रैदास की वैचारिक विरासत : वर्गीय-सामाजिक जमीन के साथ ही आधुनिक क्रांतिकारी चिंतन की दिशा में जाने की एक अनिवार्य शर्त दार्शनिक-वैचारिक विरासत होती है। रैदास की वैचारिक विरासत बहुजन-श्रमण परंपरा के चिंतकों से जुड़ी हुई है। रैदास के पहले इस विरासत की लंबी ऐतिहासिक जड़ें हैं, जिसमें बुद्ध, जैन, आजीवक, लोकायत आदि शामिल हैं। रैदास से पहले जिसकी अभिव्यक्ति सिद्धों-नाथों की रचनाओं में होती है। रैदास इस विरासत को नई ऊंचाई देते हैं।
रैदास वर्गीय तौर पर मेहनकश वर्ग में न केवल पैदा हुए, वरन् स्वयं भी श्रम करके जीवन-यापन करते हैं। श्रम की अपनी कमाई से जीते हैं और चिंतन-मनन और लेखन करते हैं। वे सामाजिक तौर पर उस दलित समाज में पैदा हुए हैं, जिसे तरह-तरह से अपमानित-लांक्षित किया जाता रहा। दूसरे शब्दों में कहें तो रैदास भारत के सबसे क्रांतिकारी वर्ग-वर्ण में पैदा हुए और उन्हें आजीवकों, बौद्धों, लोकायतों और सिद्धों-नाथों की क्रांतिकारी वैचारिक विरासत मिली। इन तीन तत्वों ने मिलकर रैदास को मध्यकालीन सामंती युग में भी एक आधुनिक क्रांतिकारी चिंतक-लेखक बना दिया।
असमानता और अन्याय के किसी भी रूप का समर्थन न करने वाले आधुनिक क्रांतिकारी विचारक के रूप में रैदास यूरोप में आधुनिक चिंतन-लेखन के अगुवा विचारकों को इस मामले में पीछे छोड़ देते हैं कि यूरोप (फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, बाद में अमेरिका) के करीब-करीब सभी आधुनिक चिंतक-विचारक अन्याय और असमानता के किसी न किसी रूप का समर्थन करते हैं। वे जब समता की बात करते हैं, सबके लिए समता की बात नहीं करते, जब वे अधिकार की बात करते हैं, तब सबके लिए अधिकार बात नहीं करते हैं। उनकी समता, न्याय और अधिकार की बातें कुछ खास समुदायों और व्यक्तियों तक सीमित हैं, जबकि रैदास सबके लिए न्याय, समता और मानवीय गरिमा की बात करते हैं। यूरोप के आधुनिक चिंतकों-लेखकों से रैदास की तुलना विस्तार की मांग करता है, फिलहाल फिर कभी। अभी सिर्फ दो उदाहरण। फ्रांसीसी क्रांति समता, स्वतंत्रता और बंधुता का नारा देती है, लेकिन व्यवहार में इसका मतलब सिर्फ संपत्तिशाली, साक्षर और गोरे पुरुषों तक सीमित था। इसी तरह 1776 की अमेरिकी क्रांति मानवाधिकारों की बात करती है और संविधान में उसकी घोषणा करती है, लेकिन अधिकार सिर्फ और सिर्फ गोरे पुरुषों के लिए थे। उसमें नीग्रो, काले और महिलाएं आदि शामिल नहीं थीं। यह तो अठारहवीं सदी की बात है। पंद्रहवी सदी के यूरोपीय चिंतक-लेखकों के दायरे में भी सभी इंसानों की समता, स्वतंत्रता और बंधुता की बात शामिल नहीं है। उनकी बातें भारत के ब्राह्मणों के ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के नारे की तरह हैं। कहने को तो इस नारे में पूरा विश्व बंधु (भाई) है, लेकिन बहुसंख्यक शूद्र, अंत्यज और महिलाएं उनके लिए नीच और अस्पृश्य हैं।
इस विषय से जुड़ा अंतिम सवाल यह है कि आखिर रैदास के आधुनिक क्रांतिकारी चिंतन-लेखन को वैश्विक और देश के फलक पर व्यापक स्वीकृति क्यों नहीं मिली? सच तो यह कि उनकी आधुनिक चिंतन दृष्टि को व्यवस्थित और व्यापक तौर पर इतिहास में वह जगह भी नहीं मिली, जिसकी वह हकदार थी। इसकी दो स्पष्ट वजहें हैं– ब्राह्मणवादी-सामंती चिंतन और औपनिवेशिक चिंतन। ब्राह्मणवादी-सांमती आधुनिक युग का भी सबसे वर्चस्वशाली चिंतन परंपरा रही है और है। भारत की अकादमिक दुनिया (जिसमें विश्वविद्यालय भी शामिल हैं) पर इन्हीं का वर्चस्व रहा है और है। ये ब्राह्मणवादी-सामंती वैचारिक वर्चस्व को चुनौती देने वाले रैदास की आधुनिक क्रांतिकारी चिंतन को न पहचान सकते थे और न पहचान सकते हैं और न स्वीकार कर सकते थे और न स्वीकार कर सकते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा उन्हें रामानंद, रामानुज, तुलसी की तरह एक संत कवि कह सकते हैं। उन्हें इसी रूप में पढ़-पढ़ा सकते हैं, उनके बारे में लिखना-पढ़ना कर सकते हैं। वे ब्राह्मणवाद-सामंतवाद को चुनौती देने वाले आधुनिक क्रांतिकारी चिंतक-लेखक थे, यह स्वीकार करना उनकी चिंतन परंपरा को उलट-पुलट देता, जो समाज के उलट-पुलट का कारण बन सकता था। यह एक सांस्कृतिक-वैचारिक क्रांति जैसा होता।
रैदास को आधुनिक क्रांतिकारी चिंतक-लेखक के रूप में रेखांकित न कर पाने का कारण औपनिवेशिक मानसिकता भी है। करीब दो सौ वर्षों तक अंग्रेजों की गुलामी करने वाले समाज का बौद्धिक वर्ग सारे आधुनिक दर्शन-चिंतन की जड़ें यूरोप-अमेरिका में तलाश करता है। भारत में मध्यकालीन पंद्रहवी शताब्दी में आधुनिक क्रांतिकारी चिंतक पैदा हो सकता है, वह भी दलित मेहनतकश समाज में, यह बात भारत का ब्राह्मणवादी-द्विज सामंती औपनिवेशिक बुद्धिजीवी-लेखक कैसे स्वीकार कर सकता है?
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