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हिंदी से लेकर पंजाबी, भोजपुरी और लोकगीतों में डबल मीनिंग आखिर क्यों?

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पुराने जमाने के गानों को एवरग्रीन कहा जाता है। लेकिन मौजूदा समय में आ रहे गानों को ऐसा कोई टैग नहीं मिला। ‘चमकीला’ मूवी के बाद ये मुद्दा फिर से उठा कि आखिर गानों में ये गंदगी क्यों? कौन इसे सुनता है, जिस कारण इसे बनाया जाता है?

अनूप पाण्डेय:मशहूर पंजाबी सिंगर रहे अमर सिंह ‘चमकीला’ पर बनी बायोपिक OTT प्लैटफॉर्म पर रिलीज हुई है। इस फिल्म में पंजाबी भाषा में कुछ डबल मीनिंग गीत भी हैं। इस फिल्म के बहाने भारतीय लोकगीतों में बढ़ रही अश्लीलता एक बार फिर चर्चा में आ गई है। पिछले कुछ दशकों में अश्लील म्यूजिक कंटेंट क्यों बढ़ा है? इसका हमारे समाज, भाषा और हमारी संस्कृति पर क्या असर पड़ता है? इस तरह के कंटेंट को सुनने वाले या बनाने वाले कौन हैं? क्या इसे रोका जा सकता है और इस पर रोक लगाने को लेकर हमारे सामने किस तरह की चुनौतियां हैं?

क्या है लोक गीतों में अश्लीलता की जमीन?

पहले लोक जीवन में नाच-नौटंकी, अखाड़े, नुमाइश और मेले ही मनोरंजन के साधन थे। इस तरह के मनोरंजन के कार्यक्रमों को खासकर अडल्ट पुरुष ही देखने जाते थे। इसमें कुछ डबल मीनिंग संवाद वाले नाटक और कुछ भद्दे गीत भी परोसे जाते थे। उस समय इस तरह के कंटेंट के फैलने की कोई व्यवस्था नहीं थी। लेकिन 80 के दशक के बाद जब कैसेट का दौर आया तो कुछ लोग इस तरह के अश्लील या डबल मीनिंग गीतों को लेकर प्रयोग करने लगे। यह कमोबेश हर जगह था। सिनेमा भी इससे अछूता नहीं था। इसका विरोध भी अलग-अलग स्तर पर हुआ। बोलने व सुनने वालों की तादाद ज़्यादा होने की वजह से इस तरह के प्रयोग भोजपुरी और पंजाबी में ज़्यादा सफल भी हुए। 90 का दशक आते-आते इस तरह के गीतों को और बल मिला क्योंकि टेप-रिकॉर्डर और वॉकमैन के जरिए ऐसे गीतों को सुनने के लिए प्राइवेट स्पेस मिला। इसके जरिए कुछ गायकों ने स्टारडम भी हासिल किया। लेकिन इसके बाद भी अच्छा कंटेंट अश्लील कंटेंट पर हावी रहा। लेकिन 2000 के दशक में सीडी प्लेयर के आने से ऐसे अश्लील और डबल मीनिंग गीतों को सुनने के साथ-साथ देखने का भी माध्यम मिला। इससे डबल मीनिंग कंटेंट के बाजार ने और रफ्तार पकड़ ली। 2011 के दशक में मोबाइल फोन के रूप में और भी ज़्यादा प्राइवेट स्पेस मिल गया। इसे बाजार ने भी अच्छे से भुनाया। वहीं, गीतों को रिलीज करने के लिए गायकों की प्राइवेट कंपनियों से निर्भरता धीरे-धीरे खत्म होने लगी। गाने डिजिटल प्लैटफॉर्म पर रिलीज होने लगे। अश्लील गीत सस्ती लोकप्रियता का माध्यम बन गए। खासकर भोजपुरी भाषा में बड़ा श्रोता वर्ग होने की वजह से ऐसे अश्लील गीतों की बाढ़ आ गई। ऐसे में भोजपुरी गीत डबल मीनिंग नहीं, खालिस अश्लील हो गए।

अगर घर में चार लोग हैं तो सबके पास अपना प्राइवेट स्क्रीन है। अश्लील गीतों को ज़्यादा बढ़ावा इंटरनेट ने दिया। यह आरोप ठीक नहीं है कि अश्लील गाने सिर्फ पंजाबी या भोजपुरी में हैं। लेकिन उनका बाज़ार बड़ा है। बड़ी बात यही है कि अश्लील गीतों की उम्र लंबी नहीं है। ऐसे गीतों को रोकने के लिए अपने भीतर भी एक सेंसर तैयार करने की ज़रूरत है।

-दीपक दुआ, फिल्म समीक्षक

फिल्मी गानों में अश्लीलता

फिल्म ‘चमकीला’ के रिलीज होने के बाद कुछ लोग इसके गानों का विरोध कर रहे हैं तो कुछ लोग इसको जस्टिफाई करने में लगे हैं। लेकिन भारतीय सिनेमा पर यह आरोप लगभग 80 बरसों से लग रहे हैं। हिंदी फिल्मी गीतों पर भी अश्लीलता का आरोप कोई नया नहीं है। साल 1944 में एक फिल्म आई थी, जिसका नाम था ‘मन की जीत’। इस फिल्म में उस दौर के जानेमाने शायर जोश मलियाबादी ने एक गीत लिखा था, जिसके बोल थे, ‘मेरो जोबना का देखो उभार’, जो एक बानगी मात्र है। इसके अलावा भी ऐसे गीतों की कई मिसालें मिलती हैं। ‘खलनायक’ फिल्म में जब आनंद बक्शी ने गीत लिखा था कि ‘चोली के पीछे क्या है’ तो इसको लेकर कितना बवाल हुआ। लेकिन उसके बाद कई गाने आए, जिनको रेखांकित किया जा सकता है। कुछ दिनों तक सुनने के बाद इस तरह के गाने काफी सामान्य लगते हैं। 90 के दशक में पूरे साउथ के सिनेमा पर अश्लीलता का असर था। 80 के दशक में मराठी में दादा कोंडके की फिल्मों ने तो डबल मीनिंग संवाद के मामले में सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। वहीं, साल 2000 के बाद जो भोजपुरी फिल्मों का स्वर्ण काल होना चाहिए था, वह पूरी तरह अश्लीलता में डूब गया और आज भोजपुरी फिल्मों को दर्शक नहीं मिल रहे हैं।

अश्लीलता पर चर्चा ही अश्लीलता को बढ़ावा देना है क्योंकि पिछले 20 बरसों में अश्लीलता के खिलाफ खूब चर्चा हो रही है और खूब अश्लीलता बढ़ रही है। कीचड़ से कीचड़ नहीं धोया जाता। उसके समानांतर अच्छे गीतों को बनाने और परोसने पर ज़ोर होना चाहिए। साथ ही हमें अपने देखने का नज़रिया भी बदलना होगा।

-मनोज भावुक, गीतकार, फिल्म समीक्षक

chamkila

डिमांड के लिए सप्लाई का तर्क

अश्लील गीतों की जब भी चर्चा शुरू होती है तो एक बात निकलकर सामने आती है कि समाज में ऐसे गीतों को सुनने वाले बड़ी संख्या में हैं। जब ऐसे गीतों की डिमांड सोसायटी में है तो इसी वजह से इन्हें बनाया जा रहा है। लेकिन यह तो ऐसा ही हुआ कि जैसे कहीं ड्रग्स की ज़्यादा डिमांड हो तो वहां इसकी सप्लाई को कानूनी मान्यता दे दी जाए। मांग के आधार पर डबल मीनिंग और अश्लील गीतों को बनाना और उसे समाज में परोसा जाना बिलकुल गलत है। स्थिति यह है कि हम लोग इन गीतों के इतने आदी हो चुके हैं कि यह हमें सामान्य लगने लगे हैं। आने वाली हमारी पीढ़ी को लगेगा कि गीत ऐसे ही होते हैं, जिसे लोग गा रहे हैं या सुन रहे हैं। ऐसा भोजपुरी गीतों के साथ हुआ है। ऐसा कह कर हमारा सिस्टम, हमारे समाज के लोग, ऐसे गाने लिखने और गाने वाले अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं।

जहां तक भोजपुरी गीतों की बात है तो आजकल के ज़्यादातर गीत सिर्फ अश्लील ही नहीं महिला विरोधी भी हैं। इन गीतों का सहारा लेकर राह चलती लड़कियों से छेड़खानी भी होती है। खुद हम लोग जब गांव से स्कूल जाते थे तो हमारे साथ भी ऐसा हुआ है। ये गीत हमारी संस्कृति को भी दूषित कर रहे हैं। ये गीत महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए कैटलिस्ट का भी काम करते हैं।

-नेहा सिंह राठौर, भोजपुरी लोक गायिका

समाज को संक्रमित करते स्त्री विरोधी गीत

अश्लील गीत हमारी भाषा, संस्कृति और संस्कारों को संक्रमित करते हैं। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कामगार लोग देश-दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में गए। अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए अच्छे-बुरे गीत भी अपने साथ लेकर गए। परिवार से दूर प्राइवेट स्पेस में अश्लील गीतों ने ज़्यादा जगह बनाई। इसकी वजह से जो लोग भोजपुरी भाषी नहीं हैं, उन्हें लगता है कि भोजपुरी के लोकगीत ऐसे ही होते हैं। जबकि भोजपुरी लोक गीतों की बहुत ही समृद्ध परंपरा रही है। लगभग 15 साल पहले भोजपुरी में एक गीत आया ‘ए डबल चोटी वाली तोहके टांग ले जाइब हो’। यहां डबल चोटी से मतलब उन बच्चियों से है जो दो चोटियां बनाकर स्कूल जाती हैं। मनचलों ने इस गीत को माध्यम बनाकर स्कूल जाने वाली बच्चियों को छेड़ना शुरू कर दिया। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं। इस तरह के गीत समाज के बड़े वर्ग को लड़कियों व महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध के लिए उकसाते हैं।

अश्लील लोक गीत लगातार दोहराए जाने के बाद परंपरा का हिस्सा बन जाते हैं। बाहरी दुनिया के लोगों को लगता है कि भोजपुरी के वास्तविक लोक गीत वही हैं, जिन्हें वे लोग सुन रहे हैं जबकि ऐसा नहीं है। ऐसे गीतों का विरोध सरकार और समाज दोनों को करना चाहिए। ऐसे गीत हमारी भाषा और संस्कारों पर प्रहार करते हैं।

-कुमार विमलेन्दु सिंह, फिल्म इतिहासकार

फिल्मी गीत अपनी पटकथा की ज़मीन पर उगते हैं। अगर किसी ऐसे किरदार को लेकर गीत लिखे गए हैं, जिसने पूरी जिंदगी यही किया है तो इस पर हाय-तौबा मचाना ठीक नहीं है। लेकिन फिल्म में अश्लील कंटेंट जानबूझ कर डाला गया है तो यह आपत्तिजनक है। लोकगीतों में अश्लीलता का तत्व हमेशा से रहा है।

-यूनुस खान, सिनेमा व संगीत इतिहासकार

ऐसे गीतों को सेंसर करना जरूरी

आज के दौर में गाने डिजिटल प्लैटफॉर्म से ही रिलीज हो रहे हैं। ऐसे में जिन प्लैटफॉर्म से गीत रिलीज हो रहे हैं, उनके लिए सरकार की ओर से गाइडलाइंस होनी जरूरी हैं। जिस तरह फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड है, ठीक उसी तरह गीतों के लिए भी सेंसर बोर्ड होना चाहिए। साथ ही ऐसे गीतों को रिलीज होने से रोकने के लिए डिजिटल और सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म को कानून के दायरे में लाना चाहिए। लेकिन सबसे बड़ी समस्या है कि OTT प्लैटफॉर्म के लिए भी कोई सेंसर बोर्ड नहीं है। चूंकि OTT प्लैटफॉर्म के लिए ही अभी सेंसर बोर्ड जैसी कोई व्यवस्था नहीं है तो लोक गीतों के लिए तो दूर की बात है। बिहार में अश्लील गीतों को पब्लिक प्लैटफॉर्म पर बजाने से रोकने के लिए गाइडलाइंस जारी की गई थीं। कुछ दिनों तक सख्ती रही लेकिन फिर स्थिति वैसी ही हो गई। डिजिटल प्लैटफॉर्म पर ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि अगर कुछ प्रतिशत लोग किसी गाने को अश्लील बताते हुए रिपोर्ट करते हैं तो उस गाने पर फौरन रोक लग जाए। AI के आने के बाद तो ऐसा होना आसान हो सकता है।

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