अनामिका, प्रयागराज
मकरसंक्रांति 15 जनवरी को और लोहड़ी का पर्व मकर संक्रांति से एक दिन पहले 14 जनवरी को मनाया जाता है. कथित ब्राह्मणों की नौटंकी से हमारे अधिकांश पर्व दो-दो दिन मनाये जाते हैं, अलग-अलग लोगों द्वारा. इसी तरह ये दोनों पर्व भी कुछ लोग एक दिन मनाते हैं तो कुछ लोग दूसरे दिन.
लोहड़ी के इस दिन से माघ मास की शुरुआत भी हो जाती है। इस दिन अग्नि जलाकर परिवार के सभी सदस्य परिक्रमा करते हैं और अग्नि को रवि की फसल भेंट की जाती है।
साथ ही परिवार के रिश्तेदारों और प्रियजनों को इस पर्व की बधाई देते हैं और ताल से ताल मिलाकर नृत्य करते हैं।
सिखों और पंजाबियों के लिए लोहड़ी खास मायने रखती है। यह पर्व मकर संक्रांति से एक दिन पहले मनाया जाता है। इस त्योहार की तैयारियां कुछ दिन पहले से ही शुरू हो जाती हैं।
लोहड़ी के बाद से ही दिन बड़े होने लगते हैं, यानी माघ मास शुरू हो जाता है। यह त्योहार पूरे विश्व में मनाया जाता है। हालांकि पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में ये त्योहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।
लोहड़ी की रात को सूर्य धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं, जिसके बाद अगले दिन मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है।
हमारी लोक संस्कृति अति प्राचीन संस्कृति है, उसमें अपने जीवन पर प्रभाव पड़ने वाले ग्रह, नक्षत्र के अनुसार ही वार, तिथि त्यौहार बनाये गये हैं। इसमें से एक है मकर संक्रांति. इस बार 15 जनवरी को मकर संक्रांति मनाई जायेगी।
वैदिक धर्म ने माह को दो भागों में बाँटा है- कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। इसी तरह वर्ष को भी दो भागों में बाँट रखा है : पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। उक्त दो अयन को मिलाकर एक वर्ष होता है।
मकर संक्रांति के दिन सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करने की दिशा बदलते हुए थोड़ा उत्तर की ओर ढलता जाता है, इसलिए इस काल को उत्तरायण कहते हैं।
इसी दिन से अलग-अलग राज्यों में गंगा नदी के किनारे माघ मेला या गंगा स्नान का आयोजन किया जाता है। कुंभ के पहले स्नान की शुरुआत भी इसी दिन से होती है।
सूर्य पर आधारित गणना में मकर संक्रांति का बहुत अधिक महत्व माना गया है। वेद और पुराणों में भी इस दिन का विशेष उल्लेख मिलता है। होली, दीपावली, दुर्गोत्सव, शिवरात्रि और अन्य कई त्यौहार विशेष कथा पर आधारित हैं. मकर संक्रांति खगोलीय घटना है, जिससे जड़ और चेतन की दशा और दिशा तय होती है।
सूर्य के धनु से मकर राशि में प्रवेश को उत्तरायण माना जाता है। इस राशि परिवर्तन के समय को ही मकर संक्रांति कहते हैं। यही एकमात्र पर्व है जिसे समूचे भारत में मनाया जाता है, चाहे इसका नाम प्रत्येक प्रांत में अलग-अलग हो और इसे मनाने के तरीके भी भिन्न हो, किंतु यह बहुत ही महत्व का पर्व है।
*विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नाम-रूप :*
उत्तर प्रदेश :
मकर संक्रांति को खिचड़ी पर्व कहा जाता है। सूर्य की पूजा की जाती है। चावल और दाल की खिचड़ी खाई और दान की जाती है।
उत्तराखण्ड :
इस दिन इसे उत्तरायणी के रूप में बड़े ही हर्षोलाश के साथ मनाया जाता है।
कई स्थानो पर मेले का आयोजन किया जाता है जिसे कुमायूं में उत्तरायणी मेला तथा गढवाल में गिन्दी कौथिक कहते हैं। इस दिन जलेबी खाने का भी प्रचलन है।
गुजरात और राजस्थान :
यहां यह उत्तरायण पर्व के रूप में मनाया जाता है। पतंग उत्सव का आयोजन किया जाता है।
आंध्रप्रदेश :
यहां यह पर्व संक्रांति के नाम से तीन दिन तक मनाया जाता है.
तमिलनाडु :
किसानों का ये प्रमुख पर्व पोंगल के नाम से मनाया जाता है। घी में दाल-चावल की खिचड़ी पकाई और खिलाई जाती है।
महाराष्ट्र :
यहां लोग गजक और तिल के लड्डू खाते हैं और एक दूसरे को भेंट देकर शुभकामनाएं देते हैं।
पश्चिम बंगाल :
यहां हुगली नदी पर गंगा सागर मेले का आयोजन किया जाता है।
असम :
भोगली बिहू के नाम से इस पर्व को मनाया जाता है।
पंजाब :
एक दिन पूर्व लोहड़ी पर्व के रूप में मनाया जाता है। धूमधाम के साथ समारोहों का आयोजन किया जाता है।
इसी दिन से हमारी धरती एक नए वर्ष में और सूर्य एक नई गति में प्रवेश करता है। वैसे वैज्ञानिक कहते हैं कि 21 मार्च को धरती सूर्य का एक चक्कर पूर्ण कर लेती है तो इसे माने तो नववर्ष तभी मनाया जाना चाहिए।
मकर संक्रांति ऐसा दिन है, जबकि धरती पर अच्छे दिन की शुरुआत होती है। ऐसा इसलिए कि सूर्य दक्षिण के बजाय अब उत्तर को गमन करने लग जाता है। जब तक सूर्य पूर्व से दक्षिण की ओर गमन करता है तब तक उसकी किरणों को ठीक नही माना गया है, लेकिन जब वह पूर्व से उत्तर की ओर गमन करने लगता है तब उसकी किरणें सेहत और शांति को बढ़ाती हैं।
मकर संक्रांति के दिन ही गंगा नदी का धरती पर अवतरण हुआ था।महाभारत में पितामह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही स्वेच्छा से शरीर का परित्याग किया था, कारण कि उत्तरायण में देह छोड़ने वाली आत्माएँ या तो कुछ काल के लिए देवलोक में चली जाती हैं या पुनर्जन्म के चक्र से उन्हें छुटकारा मिल जाता है।
दक्षिणायन में देह छोड़ने पर बहुत काल तक आत्मा को अंधकार का सामना करना पड़ सकता है। सब कुछ प्रकृति के नियम के तहत है, इसलिए सभी कुछ प्रकृति से बद्ध है। पौधा प्रकाश में अच्छे से खिलता है, अंधकार में सिकुड़ भी सकता है। इसीलिए मृत्यु हो तो प्रकाश में हो ताकि साफ-साफ दिखाई दे कि हमारी गति और स्थिति क्या है। क्या हम इसमें सुधार कर सकते हैं?
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भी उत्तरायण का महत्व बताते हुए गीता में कहा है कि उत्तरायण के छह मास के शुभ काल में, जब सूर्य देव उत्तरायण होते हैं और पृथ्वी प्रकाशमय रहती है तो इस प्रकाश में शरीर का परित्याग करने से व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त हैं।
इसके विपरीत सूर्य के दक्षिणायण होने पर पृथ्वी अंधकारमय होती है और इस अंधकार में शरीर त्याग करने पर पुनः जन्म लेना पड़ता है।
(गीता : श्लोक-24-25)
*क्या करें मकर संक्रांति को?*
धर्मग्रंथो के अनुसार tमकर संक्रांति या उत्तरायण दान-पुण्य का पर्व है। इस दिन किया गया दान-पुण्य, जप-तप अनंतगुना फल देता है। इस दिन गरीब को अन्नदान, जैसे तिल व गुड़ का दान देना चाहिए। इसमें तिल या तिल के लड्डू या तिल से बने खाद्य पदार्थों को दान देना चाहिए। कई लोग रुपया-पैसा भी दान करते हैं।
उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण का जप विशेष हितकारी है बताया गया है।
ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नम: मंत्र से सूर्यनारायण की वंदना कर लेना, उनका चिंतन करके प्रणाम कर लेना चाहिए।
यदि नदी तट पर जाना संभव नही है, तो अपने घर के स्नान घर में पूर्वाभिमुख होकर जल पात्र में तिल मिश्रित जल से स्नान करें। इस जन्म के पूर्व जन्म के ज्ञात अज्ञात मन, वचन, शब्द, काया आदि से उत्पन्न दोषों की निवृत्ति हेतु क्षमा याचना करते हुए सत्य- धर्म के लिए निष्ठावान होकर सकारात्मक कर्म करने का संकल्प लें। कहते हैं जो संक्रांति के दिन स्नान नहीं करता वह 7 जन्मों तक निर्धन और रोगी रहता है।
*तिल का महत्व :*
विष्णु धर्मसूत्र में उल्लेख है कि मकर संक्रांति के दिन तिल का उपयोग करने पर जातक के जीवन में सुख व समृद्धि आती है।
इस समय तिल का उपयोग है : तिल के तेल मिश्रित जल से स्नान करना। तिल का उबटन लगाना। तिल की आहूति देना। तिल का दान करना। तिल का सेवन करना।