विनोद पुरोहित
सबसे खौफनाक है भरोसे का मरना और इन दिनों इसका आंकड़ा चरम पर है। वैसे तो भरोसे में टूटन चौतरफा है। बाजार के बढ़ते पेट के चलते लालच, असंतोष बढ़ गया है और निर्मम कमाई बेकाबू हो गई है। इसके निर्मम पंजों में रिश्ते और भावनाएं जकड़ कर बेबस हैं। दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि इसकी गिरफ्त से अस्पताल भी अछूते नहीं हैं। आखिर ‘धरती के भगवान’ को क्या हो गया है? कुछेक को छोड़कर अधिकांश निष्ठुर हो गए हैं…सिर्फ और सिर्फ कमाई में लगे हुए हैं। चिकित्सा पेशे के लिए जरुरी गुण मसलन-सेवा, दया, करुणा, संवेदना, सहजता अब गायब हो गए हैं।
आज एक बीमार रिश्तेदार को देखने अस्पताल जाना हुआ। जिस डॉक्टर को वर्षों से दिखा रहे हैं। उसी ने थोड़ी सी स्थिति बिगड़ने पर उन्हें एक निजी अस्पताल में भर्ती करवा दिया। बस यही से लूटमारी का सिलसिला शुरू हो गया। भर्ती कराते ही रूम के चार्ज का मीटर ऑन हो गया और दनादन दवाओं के बिल बनने लगे। वो डॉक्टर जो अपने क्लीनिक में 1000 रुपये लेते थे, अस्पताल में विजिट चार्ज तीन गुना वसूलने लगे हैं। इतने के बावजूद वे यह भी स्पष्ट तौर पर नहीं बता रहे हैं कि मरीज की असल स्थिति क्या है। यह दलील देकर कि दवा इंजेक्ट करने के लिए हाथ में लगी कैनुला को पेसेंट निकाल दे रहा है, उसे गर्दन में लगा दिया गया। ऐसे में बीमार लगभग पूरा असहाय हो गया है। दूसरी ओर,डॉक्टर तो डॉक्टर अस्पताल के अन्य सहायकों का रवैया भी हद दर्जे तक निराशजनक और तनाव पैदा करने वाला है। इन स्थितियों से जूझते हुए तीमारदारों की मनोदशा एकदम बीमार जैसी हो गई है। मरीज का जो हाल होना है वह बाद में पता चलेगा, लेकिन यह तय है कि तीमारदार हताशा से लंबे अरसे तक उबर नहीं पाएंगे। यह दृश्य निजी अस्पताल और अमूमन हर मध्यमवर्गीय मरीज व उसके परिवार का हो गया है।
आखिर इस ‘बीमारी’ का उपचार क्या है, यह यक्ष प्रश्न है। इस पर चर्चा होनी चाहिए और कोई समाधान निकलना चाहिए। स्वस्थ राष्ट्र के लिए जरूरी है कि अस्पतालों में चल रही सरेआम लूटपाट पर लग़ाम लगे। कई मामले तो ऐसे देखने, सुनने और पढ़ने में आते हैं कि मरीज की मौत के बाद भी उसे वेंटिलेटर पर रखे रहते हैं। जाहिर है इसका मकसद शुद्ध रूप से कमाई है। इस पर यदि तीमारदार कोई सवाल पूछ लें तो मानो उसने गुनाह कर दिया। डॉक्टर साहब नाराज हो जाएंगे और सख्त फरमान सुना देंगे कि अपनी रिस्क पर पेसेंट को ले जाइए। वैसे भी वे इलाज प्रक्रिया के दौरान हर छोटी छोटी बात पर तीमारदार के दस्तखत ले लेते ताकि खुद पाकसाफ रहें। यानी कुछ भी हो गया तो हमारी जिम्मेदारी नहीं है।
गुरुउच्च शिखर की ओर बढ़ रहे देश मे यह कैसे अंधाधुंध अराजकता है। बड़ी बड़ी बात करने वाले और हर जानकारी से अपडेट रहने वाले नीति नियंताओं को स्वास्थ्य क्षेत्र में फैल रही इस बीमारी का क्या बिलकुल भी भान नहीं है या कमाई और कमीशन के इस निर्मम खेल में सब शामिल हैं?