*रजनीश भारती
कुछ लोग कहते हैं कि चीन हमारे बाजार पर कब्जा करके हमारे देश के कल-कारखानों को ध्वस्त कर रहा है और बेरोजगारी फैला रहा है? चीन के विराट कारखानों के मुकाबले भारत के छोटे-छोटे कारखाने बन्द होते जा रहे हैं। मगर इसका दोष चीन को नहीं दिया जा सकता है। बेरोजगारी बढ़ाने का दोषी हमारे देश की पूँजीवादी व्यवस्था खुद है। हमारे देश के पूँजीपति खुद अपना कारखाना बन्द करके, चीन से माल खरीदकर हमारे देश के बाजार में पाट दे रहे हैं क्योंकि उन्हें उद्योग लगाने से ज्यादा मुनाफा व्यापार में मिल रहा है और व्यापार में जोखिम भी कम है। पूँजीपति यही चाहता है- वह कम से कम जोखिम में अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहता है। पूँजीपति वर्ग को मुनाफा मिलना चाहिए, चाहे जैसे भी मिले। अगर उद्योग से अधिक मुनाफा व्यापार में मिलता है तो वह सारी औद्योगिक पूँजी खींचकर व्यापार में झोंक देगा। दरअसल पूँजीपतियों को सिर्फ मुनाफे की चिन्ता होती है। उसे इसकी चिंता नहीं होती कि उद्योग नहीं रहेंगे तो नौजवानों को रोजगार कैसे दिया जायेगा? यही कारण है कि पूँजीपति वर्ग चीन से माल खरीदकर बेच रहा है। बहुत से पूँजीपति चीन से अर्द्धतैयार माल (कल-पुर्जे आदि) मँगाकर अपने कारखाने में जोड़-तोड़ कर पैक करके अपना ठप्पा लगाकर बेच रहे हैं और भारी मुनाफा कमा रहे हैं। अतः भारत में बेरोजगारी फैलाने एवं कल-कारखाने बन्द करने का दोषी चीन नहीं, बल्कि हमारे देश का पूँजीपति वर्ग ही है, जो भारी मुनाफा के चक्कर में देश को बर्बाद करने पर तुला हुआ है। अतः न तो चीन हमारे देश के बाजार पर कब्जा कर रहा है, न ही हमारे देश के कल-कारखानों को बन्द करवा रहा है, और न ही बेरोजगारी फैला रहा है। वह तो अपने विराट पैमाने के समाजवादी उद्योगों के बल पर सस्ता से सस्ता माल सुलभ करा रहा है। यह उसका कर्तव्य और उसका अधिकार भी है। विराट पैमाने के समाजवादी उत्पादन के कारण ही चीन का माल सस्ता पड़ता है। पर कुछ लोग कहते हैं कि चीन का माल घटिया होने के कारण सस्ता पड़ता है? यानी चीन का माल अच्छी क्वालिटी का नहीं होता इसलिए सस्ता पड़ता है। तब सवाल उठता है कि गुणवत्ताविहीन माल बनाने से ही यदि चीन हमारे देश का बाजार छीन सकता है, तो ऐसा करने में क्या भारत के पूँजीपति किसी से पीछे हैं? ऊँची कूद के लिए बल की जरूरत तो होती है, मगर नीची कूद के लिए बल की कहाँ जरूरत पड़ती है? टाटा, बिड़ला, अडानी, अम्बानी, डालमिया, मित्तल….. नीची कूद कूदने में कहाँ कमजोर हैं? चीन से भी कम गुणवत्ता वाला सस्ता माल बनाकर चीन को अपने बाजार से क्यों नहीं खदेड़ देते? और क्यों नहीं चीन से भी घटिया माल बनाकर चीन के बाजार को छीन लेते? क्यों वे चीन से माल खरीदकर बेच रहे हैं? इन प्रश्नों का जवाब उनके पास नहीं है।
किसी का माल सस्ता होने को प्रायः लोग हल्के में लेते हैं। सोचते हैं कि उसका माल बेकार होगा, बिकता नहीं होगा, उसकी माँग नहीं होगी। यही आरोप लगाकर यह पूँजीपति वर्ग अपने महँगे मालों को बेचने की कोशिश करता है। दरअसल चीन के सस्ते मालों के पीछे पूँजीपति वर्ग जो भी तर्क दे रहा है, वह सब लफ्फाजी है। जो आरोप आज समाजवादी उत्पादन पर पूँजीपति वर्ग लगा रहा है। वैसा ही आरोप सामन्ती उत्पादन करने वाले लोग पूँजीवादी मालों पर लगाया करते थे। किसी के मालों के दाम सस्ते होने को लोग हल्के में भले ही लेते हों, मगर कार्ल मार्क्स ने इसे बहुत गंभीरता से लिया है। घोशणा-पत्र में सामन्तवाद पर पूँजीपतियों की जीत का जिक्र करते हुए लिखा है- ‘‘…………..उसके मालों के सस्ते दाम-यही वह भारी तोपखाना है जिसकी सहायता से वह सभी चीनी दीवारों को ढहा देता है और विदेशियों के प्रति बर्बर जातियों की अत्यन्त अदम्य घृणा को घुटने टेकने के लिये मजबूर कर देता है। वह प्रत्येक राश्ट्र को, अन्यथा विलुप्त हो जाने के भय से, बुर्जुआ उत्पादन प्रणाली अपनाने के लिये मजबूर करता है, वह उन्हें इसके लिये मजबूर करता है कि जिसे वह सभ्यता कहता है, वे उसका अपने बीच प्रचलन करें, अर्थात खुद बुर्जुआ बन जायें। संक्षेप में, वह अपने ही सांचे में ढली दुनिया का निर्माण करता है।’’ -कम्युनिस्ट पार्टी का घोशणा-पत्र पृश्ठ-35 सस्ते मालों को मार्क्स ने भारी तोपखाना कहा और यह बताया कि इसी तोपखाना से पूँजीपति वर्ग सभी चीनी दीवारों को ढहा देता है। अर्थात् सभी देश की सरहदों को पार कर जाता है। अर्थात दूसरे देशों के बाजार पर छा जाता है। अतः सस्ते मालों को गम्भीरता से लेने की जरूरत है। तभी हम औद्योगीकरण की सच्चाई को गहराई से समझ सकते हैं। चीन ने यह भारी तोपखाना कैसे तैयार किया? क्यों उसका माल सस्ता पड़ता है? यह एक गंभीर सवाल है क्योंकि मालों के सस्ते दाम के बल पर ही आज पूरी दुनिया के बाजार पर चीन का नियंत्रण हो चुका है। अमेरिका, यूरोप समेत पूरी दुनिया के पूँजीवादी देशों में भयानक आर्थिक महामंदी आ गयी है। क्योंकि चीन के टक्कर में वे अपना माल बेच नहीं पा रहे हैं। चीन के मालों के दाम के मुकाबले दुनिया भर के पूँजीवादी उद्योग धराशायी होते जा रहे हैं।
तो अब यंहा प्रश्न उठता है कि सस्ता से सस्ता माल कौन सी व्यवस्था उपलब्ध करवा सकती है? जो व्यवस्था कम से कम समय में एवं कम से कम मेहनत में अधिक से अधिक उत्पादन कर सकती है। वही व्यवस्था सस्ता माल उपलब्ध करा सकती है। कार्ल मार्क्स ने लिखा है-‘‘सस्ते से सस्ता माल वही उपलब्ध करा सकता है जिसके श्रम की उत्पादकता अधिक होती है। श्रम की उत्पादकता अधिक कैसे हो सकती है? कार्ल मार्क्स ने पूँजी संचय के नियम में बताया है कि ‘‘यदि अन्य बातें समान हों तो श्रम की उत्पादकता तभी अधिक होगी जब उत्पादन का पैमाना बड़े से बड़ा हो।’’ बात एकदम साफ है कम समय और कम श्रम में अपेक्षाकृत अधिक उत्पादन करने के लिए बड़े पैमाने का उत्पादन ही सफल हो सकता है।
कुछ लोग कहते हैं कि ‘चीन में ज्यादातर घरों में छोटे-छोटे कुटीर उद्योग हैं। इसीलिए वहाँ कम से कम श्रम में अधिक से अधिक माल पैदा हो जाता है। जिससे चीन का माल सस्ता पड़ता है। इसलिए यंहा भारत में भी कुछ लोग गाँधियन समाजवाद के तर्ज पर कुटीर उद्योग को बढ़ावा देकर छोटे-छोटे उद्योग लगाने की बात करते हैं पर छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों से कम से कम श्रम में अधिक से अधिक माल पैदा नहीं हो सकता है क्योंकि छोटी-छोटी मशीनों पर अधिक से अधिक उत्पादन करने के लिए अधिक से अधिक श्रम लगाना पड़ता है। अधिक श्रम लगाने पर माल का मूल्य महँगा पड़ता है। अतः श्रम की उत्पादकता जब अधिक होगी तभी माल सस्ता हो सकता है। तो क्या चीन में छोटे-छोटे कुटीर उद्योग नहीं हैं? अथवा क्या चीन में सारे उद्योग बड़े पैमाने के हैं? चीन में छोटे-छोटे कुटीर उद्योग जरूर हैं। परन्तु उन कुटीर उद्योगों के बदौलत सस्ता माल नहीं पैदा होता है। क्योंकि उत्पादन में उन कुटीर उद्योगों की भूमिका नगण्य है। उत्पादन एवं पुनउर्त्पादन विराट पैमाने के कल-कारखानों में ही हो रहा है। कुटीर उद्योगों की भूमिका बस इतनी ही है कि वे इन विराट पैमाने के उद्योगों द्वारा पैदा किये गये अर्ध तैयार मालों को असेम्बल करते हैं। उदाहरण के लिए जैसे विराट पैमाने के कारखाने में प्लास्टिक तैयार होती है और विराट पैमाने के कल-करखाने से कलम के अलग-अलग पार्ट-पुर्जे तैयार होते हैं। छोटे पैमाने के कुटीर उद्योग उन्ही पार्ट-पुर्जों को जोड़कर कलम बनाकर पैक कर देते हैं।
अतः चीन के कुटीर उद्योग, उत्पादन नहीं बल्कि असेम्बलिंग या पैकिंग जैसे छोटे-मोटे काम करते हैं। ये कुटीर उद्योग बड़े पैमाने के उद्योगों के मुकाबले कोई प्रतियोगिता नहीं करते बल्कि बड़े पैमाने के उद्योगों से जुड़कर सहयोगी भूमिका निभाते हैं। इसलिए सस्ता माल पैदा करने में कुटीर उद्योगों की कोई भूमिका नहीं होती है। वे तो सिर्फ सस्ते मालों को असेम्बल करते हैं अर्थात जोड़कर तैयार करते हैं। दरअसल बड़े पैमाने का उत्पादन करने पर कम लागत में अपेक्षाकृत अधिक माल तैयार हो जाता है। एक उदाहरण से इसे समझना बेहद आसान हो जायेगा- जैसे कोई माँ अपने प्रत्येक बच्चों का भोजन छोटे-छोटे बर्तनों में अलग-अलग पकाये तो महँगा पड़ेगा और बड़े बर्तन में इकट्ठा पकाये तो सस्ता पड़ेगा। इसी तरह अपना भोजन बनाने के लिए दस आदमी अलग-अलग अपना छोटा-छोटा चूल्हा जलायें तो दस आदमियों का भोजन तैयार तो हो जायेगा मगर इसमें दस आदमी बनाने वाले लगेंगे, दस चूल्हे व दस सेट बर्तन, तथा दस रसोईघर लगेंगे और दस जगह ईंधन खर्च होगा। उसकी बजाय उन्हीं दस आदमियों का भोजन एक बड़े चूल्हे पर इकट्ठा बने तो सिर्फ एक बड़ा चूल्हा, एक सेट बड़ा बर्तन, एक रसोई घर लगेगा, ईंधन भी एक ही जगह जलेगा। इस प्रकार एक ही आदमी एक घंटे में सबका भोजन तैयार कर सकता है। इस तरीके से जो भोजन बड़े पैमाने पर बनेगा वह सस्ता पड़ेगा क्योंकि इकट्ठा बनाने पर पहले के मुकाबले नौ चूल्हों की बचत होगी। नौ जगह ईंधन जलने से बचेगा। खाना बनाने वाले नौ आदमियों के श्रम की बचत होगी। इस प्रकार इकट्ठा बनाने पर लागत खर्च कम हो जायेगा। अतः माल सस्ते में तैयार हो जायेगा। इसी तरह सौ आदमी का इकट्ठा बनेगा तो और सस्ता पड़ेगा, हजारों का इकठ्ठा बनेगा तो और सस्ता, लाखों का बनेगा तो और सस्ता, करोड़ों का और ……। कल-कारखानों में भी यही नियम लागू होता है।
*रजनीश भारती**राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा उ. प्र.*