नीरजा चौधरी
रामनवमी के दिन देश के कुछ इलाकों में हिंसा की घटनाएं नई चीज नहीं हैं। पिछले साल भी जब रामनवमी के जुलूस निकले थे, तब तकरीबन 10 प्रदेशों में हिंसा हुई थी। लेकिन यह हर बार होता है तो हर बार क्या तैयारी नहीं की जाती या तैयारी के बावजूद यह हिंसा हो जाती है? यह सवाल है, जिसका जवाब नहीं मिला है। जब यह इतनी बार हो चुका है तो प्रशासन को मुस्तैद रहना चाहिए। मगर जिस तरह से यह इतने सारे राज्यों में हुआ है और एक ही दिन हुआ है तो इसके पीछे क्या चीज है, इसे समझने की जरूरत है।
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ध्रुवीकरण का पैटर्न
सांप्रदायिक हिंसा से ध्रुवीकरण बढ़ता है, जिसका राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश की जाती है। आइए, इसे इन घटनाओं के जरिये समझते हैं:
- पहले बंगाल की बात करते हैं। 2015 के पहले रामनवमी राज्य के बड़े त्योहारों में शामिल नहीं मानी जाती थी। 2015 के बाद से बंगाल में यह सिलसिला शुरू हुआ है।
- यह सब ध्रुवीकरण के लिए किया जाता है। अब सवाल यह है कि इससे फायदा किसे होता है? पत्रकारिता के लंबे अनुभव के बाद मुझे लगता है कि अगर आम जनता के बीच सांप्रदायिक टकराव होता है तो वह लंबा नहीं चलता। आम लोगों के बीच झड़प होती है तो बहुत जल्दी शांत भी हो जाती है।
- जब सांप्रदायिक हिंसा लंबी चलती है तो उसके पीछे राजनीतिक दल होते हैं, जिनका अपना स्वार्थ होता है। ऐसा बार-बार देखा गया है। जब यह एक पैटर्न की तरह एक ही दिन में बहुत जगह होता है तो मन में सवाल आता है कि ऐसा क्यों?
किसे होता है फायदा
इस पर गहन अध्ययन की जरूरत है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई है। लेकिन कुछ बातों से अंदाजा मिल सकता है।
- सांप्रदायिक हिंसा हमेशा राजनीति से जुड़ी रही है। रामनवमी की हिंसा बताती है कि चुनावी सीजन आ चुका है। 2013 में मुजफ्फरनगर के दंगे शायद ही लोग भूले होंगे, उसने प्रदेश को पूरी तरह से ध्रुवीकृत कर दिया था।
- दंगा किसने कराया, क्यों कराया, कौन दोषी थे, कौन पकड़ा गया, ये चीजें गौण हो जाती हैं। लेकिन यूपी में बीजेपी 2013 तक 10 लोकसभा सीटों पर थी, जहां से 2014 में 71 लोकसभा सीटों पर आ गई।
- उन चुनावों से पहले बीजेपी ने राज्य में पार्टी को मजबूत करने के लिए बहुत मेहनत की थी। अमित शाह ने एक तरह से बीजेपी को राज्य में फिर से खड़ा किया, लेकिन इसके बावजूद इस बात से इनंकार नहीं किया जा सकता कि हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण से पार्टी को 2017 के चुनावों में मदद मिली।
- ताजा हिंसा की जहां तक बात है तो मुझे मालूम नहीं है कि यह हुई है या किसी ने कराया है, लेकिन इस तरह की हिंसा होती है और बहुत जगह होती है तो मैं मानकर चलती हूं कि कराया गया है। नहीं तो हमारी पुलिस कोई ढीली पुलिस नहीं है। जिन तीन राज्यों में रामनवमी पर ज्यादा हिंसा हुई है, यानी बंगाल, बिहार और महाराष्ट्र- यहां संभावना है कि बीजेपी को 2024 में नुकसान होगा। कई लोग मानते हैं कि 2019 की तुलना में बीजेपी को इनमें से हर राज्य में दस-पंद्रह सीटों का नुकसान हो सकता है।
- आज देश में चूंकि सोशल मीडिया हावी हो गया है, तो एक प्रदेश में हिंसा होने से उसका असर और प्रदेशों पर भी पड़ सकता है।
- याद कीजिए, हिजाब का विवाद कर्नाटक में हुआ था, लेकिन उसका असर दूसरे राज्यों पर भी पड़ा। अब कर्नाटक में चुनाव होने जा रहा है, जो कांग्रेस और बीजेपी के लिए बहुत अहमियत रखता है। बीजेपी की दक्षिण भारत में उपस्थिति कर्नाटक की वजह से है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि आज बीजेपी इकलौती पैन इंडिया पार्टी है। अगर बीजेपी कर्नाटक हार गई तो वह ऐसा नहीं कह पाएंगे।
- वहीं 2017 में बीजेपी के लिए यूपी की जो अहमियत थी, 2023 में वही अहमियत कांग्रेस के लिए कर्नाटक की है। हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण बीजेपी का आजमाया दांव है। ऐसे में रावनवमी पर हुई हिंसा का कर्नाटक पर क्या असर होगा, यह देखने लायक होगा।
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RSS से आगे
एक चीज और है कि पहले ऐसा कोई जुलूस किसी ऐसे संवेदनशील इलाके से गुजर रहा होता था तो लोग उस ओर जाने से बचते थे क्योंकि वे शांति भंग नहीं करना चाहते थे। आज हिंदू कहता है कि हम जहां जाना चाहें वहां क्यों नहीं जा सकते? सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में भी यही सवाल किया गया है। दूसरी ओर दक्षिणपंथी हिंदू संगठन खुद ही खड़े हो गए हैं, जो RSS से भी आगे चले गए हैं। RSS के ही किसी ने 2015 में मुझसे कहा था कि बीजेपी को चुनौती बाहर से नहीं बल्कि अंदर के दक्षिणपंथी संगठनों से ही है। बहरहाल, बंगाल में हिंसा बीजेपी को ध्रुवीकरण में मदद कर सकता है, लेकिन तृणमूल भी इसका फायदा उठाने की कोशिश करेगी। आपको याद होगा कि पिछले चुनाव में ममता बनर्जी ने बंगाली बनाम बाहरी का मुद्दा उठाया था, जो उनकी जीत का बड़ा कारण बना था। चूंकि रामनवमी सीधे तौर पर बंगाली संस्कृति से नहीं जुड़ी है, यह मामला ममता बनर्जी के लिए ज्यादा मददगार साबित हो सकता है।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)