अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

महिलाएं भी लड़कियों की शिक्षा के प्रति उदासीन

Share

समाज निर्माण में महिलाओं की भूमिका कम नहीं

निशा दानू
कपकोट, उत्तराखंड

वर्ष 2023 राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी दृष्टिकोण से भारत के लिए ऐतिहासिक रहा है. धरती से लेकर अंतरिक्ष तक भारत ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. लगभग हर क्षेत्र में भारत पहले से बदल गया है. लेकिन अगर किसी चीज़ में बदलाव नहीं आया है, तो वह है महिलाओं और किशोरियों के प्रति समाज की सोच में बदलाव. भले ही 21वीं सदी का लगभग एक चौथाई हिस्सा गुजरने को है, लेकिन महिलाओं और किशोरियों के प्रति पुरुषसत्तात्मक समाज अपनी सोच को बदलने के लिए तैयार नहीं है. वह आज भी परंपरा और संस्कृति के नाम पर उन्हें चारदीवारी के पीछे खड़ा देखना चाहता है. भले ही शहरी क्षेत्रों में ऐसी सोच अब कम होने लगी है.

लेकिन ग्रामीण भारत की सामाजिक स्थिति में ज़्यादा बदलाव नहीं आया है. यहां समाज आज भी महिलाओं और किशोरियों के प्रति वही पुरानी सोच का हिमायती है जहां वह उन्हें सामाजिक बेड़ियों में ही बंधे देखना चाहता है. शहर से सटे ग्रामीण क्षेत्रों में जहां परिवर्तन आने लगा है लेकिन देश के दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्रों के सामाजिक ताने-बाने में बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है. इसकी एक मिसाल पहाड़ी राज्य उत्तराखंड का दूर दराज़ गांव जगथाना है. कपकोट ब्लॉक से करीब 30 किमी और जिला बागेश्वर से करीब 35 किमी दूर यह गांव सामाजिक और आर्थिक रूप से पीछे रहने के साथ साथ वैचारिक रूप से भी पिछड़ा हुआ है. इस गांव में आज भी महिलाओं को अपनी मर्ज़ी से जीने का अधिकार नहीं है. जहां लड़कों को वंश का उत्तराधिकारी तो लड़कियों को बोझ समझा जाता है.

इन क्षेत्रों में महिला समानता से अधिक रूढ़िवादी धारणाएं हावी हैं. लड़कियों की तुलना में लड़कों को प्राथमिकता दी जाती है. उसके लिए शिक्षा के विशेष प्रयास किये जाते हैं, जबकि लड़कियों के सपनों को घर की चारदीवारियों तक सीमित कर दिया जाता है. उसे पढ़ाई करने के लिए भी स्कूल कम ही भेजा जाता है जबकि लड़कों की शिक्षा पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है. हालांकि नई पीढ़ी की किशोरियां अब इस सोच पर सवाल उठाने लगी हैं. इस संबंध में गांव की एक 16 वर्षीय किशोरी पूजा प्रश्न करती है कि आखिर एक महिला को उसके अधिकारों से वंचित क्यों रखा जाता है? लड़कियों को पढ़ने और आगे बढ़ने से क्यों रोका जाता है? समाज उसे बोझ क्यों समझता है? जबकि समाज निर्माण में उसकी भूमिका पुरुषों से कहीं अधिक होती है? लड़के से वंश आगे बढ़ाने का सपना देखने वाला यही समाज भूल जाता है कि उस वंश की नींव एक औरत ही रखती है. इसके बावजूद समाज लड़कियों को बोझ समझता है और उसे कोख में ही मार देना चाहता है?

सिर्फ इतना ही नहीं जाति, समुदाय और रंग के आधार पर भी लड़कियों के साथ भेदभाव किया जाता है. शिक्षा का मंदिर कहे जाने वाले स्कूल में लड़कियों को प्रोत्साहित करने की जगह उसका मनोबल तोड़ा जाता है. स्कूल के वार्षिक समारोह में मंच पर भाषण देने के लिए शिक्षक लड़कियों से अधिक लड़कों को प्राथमिकता देते हैं. उनकी संकुचित सोच होती है कि लड़कों की तुलना में लड़कियां बोल नहीं सकती हैं, अपनी बात नहीं रख सकती हैं. जबकि हकीकत इसके विपरीत होता है. यदि लड़कियों का उत्साहवर्धन किया जाए तो वह पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी बात रख सकती हैं. लेकिन घर से लेकर स्कूल और समाज तक उसके मनोबल को केवल लड़की होने के नाम पर तोड़ा जाता है. इस संबंध में गांव की एक 52 वर्षीय महिला महादेवी कहती हैं कि वह लड़कियों के आगे बढ़ने और उनके आत्मनिर्भर बनने की पक्षधर हैं, लेकिन किशोरियों के प्रति समाज की बेतुकी बातें उनका मनोबल तोड़ देती हैं और वह चाह कर भी अपनी बेटियों का हौसला बढ़ा नहीं पाती हैं. वहीं 40 वर्षीय रेवती देवी कहती हैं कि सरकार ने लड़कियों को आगे बढ़ने के लिए अवसरों का द्वार खोल दिया है, लेकिन ग्रामीण समाज की नकारात्मक सोच लड़कियों को आगे बढ़ने में बाधा बन जाती है.

रेवती देवी की बातों का समर्थन करते हुए 42 वर्षीय शांति देवी कहती हैं कि ग्रामीण समाज को लगता है कि किशोरियों का पढ़ लिख कर आत्मनिर्भर बनना और सही-गलत के फैसले पर आवाज़ उठाना दरअसल उनका सर चढ़ना और मनमानी करना है जो समाज के हित में नहीं होगा. लेकिन यही काम यदि लड़के करें तो समाज को इस पर कोई आपत्ति नहीं होती है. वहीं एक अन्य महिला मालती देवी कहती हैं कि समाज किशोरियों को पढ़ाने में इसलिए भी ज़्यादा रूचि नहीं रखता है क्योंकि शिक्षा पर खर्च करने के बाद भी उसके दहेज़ में पैसे खर्च होते हैं. ऐसे में वह लड़की को शिक्षित करने की जगह गृहस्थी के कामों को सीखने पर अधिक ज़ोर देता है. वहीं 38 वर्षीय निर्मला देवी कहती हैं कि ग्रामीण समाज में लड़कियों को शिक्षित होकर आत्मनिर्भर बनने का ख्वाब देखने की आज़ादी तो मिल सकती है, लेकिन उसे पूरा करने की छूट नहीं मिलती है. जागरूकता के अभाव में आज भी ग्रामीण समाज किशोरियों के प्रति संकुचित मानसिकता का ही पक्षधर होता है. वह कहती हैं कि यह किसी एक परिवार या जाति की सोच नहीं बल्कि जगथाना गांव के उच्च हो या निम्न समुदाय, किशोरियों और महिलाओं के प्रति सभी की सोच एक जैसी है. जिसे समाप्त करने की ज़रूरत है.

ऐसा नहीं है कि पितृसत्तात्मक समाज में किशोरी शिक्षा के प्रति नकारात्मक सोच केवल पुरुषों की है, बल्कि जागरूकता के अभाव में कई महिलाएं भी लड़कियों की शिक्षा के प्रति उदासीन नज़र आती हैं. गांव की 48 वर्षीय चंपा देवी कहती हैं कि आखिर लड़कियों को इतना पढ़ा लिखा कर क्या करना है? एक दिन तो उन्हें पराया घर जाकर खाना ही पकाना है. ऐसे में अच्छा है कि हम उनकी शिक्षा पर खर्च करने से अधिक उनकी दहेज़ पर पैसा खर्च करें. वह जितना अधिक दहेज़ लेकर जाएंगी, ससुराल में उनका मान उतना ही बढ़ेगा. दरअसल चंपा देवी की यह सोच किशोरियों के प्रति समाज की नकारात्मक सोच को उजागर करता है. जिसे बदलने की ज़रूरत है. समाज को इस बात के लिए जागरूक करने की आवश्यकता है कि सभ्य समाज के निर्माण में लड़कियों की लड़कों के बराबर भूमिका है. इससे न केवल विकास में संतुलन पैदा होता है बल्कि यह महिला हिंसा को भी ख़त्म करता है. यदि किशोरियों को भी उचित मंच दिया जाए तो वह बखूबी अपनी आवाज़ बुलंद कर सकती हैं. इसका उदाहरण शहरी क्षेत्र है जहां किशोरियां विकास के हर क्षेत्र में बराबर का योगदान दे रही हैं. ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि ग्रामीण समाज किशोरियों के प्रति अपनी संकुचित मानसिकता से बाहर निकले और लड़कियों को भी पढ़ने लिखने से लेकर अपने फैसले खुद करने की आज़ादी दे. (चरखा फीचर)

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें