~ कुमार चैतन्य
हरिस त्वं आराध्य प्रणत-जन-सौभाग्य-जननीं
पुरा नारी भूत्वा पुरा-रिपम अपि क्षोभम अनयत्;
स्मरोऽपि त्वं नत्वा रति-नयन-लेह्येन वपुषा
मुनिनां अप्यन्तः प्रभावति हि मोहया महात्म।
आज कल मंत्रों की दुकानें सजी हुईं है। लोगों के पास अपने भी स्टॉक में काफी मंत्र होंगे ही। लेकिन विधि नहीं मिलेगी।
गुरुकुल से तो कोई निकला नहीं है। जहां भी है, शास्त्रोक्त व्याख्या ही है। अनुभव सिद्ध कुछ भी नहीं। अगर शस्त्रों से समझ पैदा हुई होती तो किसी भी सनातनी को दीन, दरिद्र और दुखी नहीं होना चाहिए था।
जड़ और चेतन, अगर स्थूल शरीर को एक नजर में देखा जाए तो इन्हीं दो चीजों से बना है। जितनी ब्रह्म से दूरी है उतनी ही जड़ता है | ब्रह्म पूर्ण चैतन्य; जगत जड़ और चेतन का कॉकटेल है, न तो कहीं पूर्ण जड़ता है और न ही कुछ पूर्ण चेतना है। पत्थर और पहाड़ भी पूर्ण जड़ नहीं हैं उनमें भी चेतना है। सूर्य, चंद्रमा भी पूर्ण चेतन नहीं है उनमें भी जड़ता है। जो जड़ता है वो ही जगत है।
कर्म जड़ आत्मा का जगत है। ये सही है आत्मा में भी गुण होते हैं। जहां गुण हैं वो जड़ता होगी ही। शांति, प्रेम, पवित्रता, शक्ति ज्ञान ये सभी आत्मा के गुण हैं। गुण अच्छे बुरे नहीं होते हैं बस जरूरत के अनुसार उनकी कीमत होती है।
गहरी जड़ता मन का जगत है। जो कुछ भी दृष्टि में गोचर है समझ के दायरे में है, वो सभी जड़ और चेतना से ही बना है। चीजों के जड़त्व और चेतन तत्व में प्रतिशत में फर्क हो सकता है।
सिर्फ पर ब्रह्म के अलावा यहाँ कुछ भी पूर्ण चैतन्य नहीं है। यही पूर्ण चैतन्य और जगत का फर्क भी है। ब्रह्म के अलावा सब कुछ जगत ही है।
आत्मा भी जगत का ही हिस्सा है। आत्मा को लेकर बहुत सारी भ्रांतियाँ हैं। आत्मा न मरता, न जलता, कहने का अर्थ आत्मा का अस्तित्व कभी नाश ही नहीं होता है। अब ये बात कृष्ण ने भगवत गीता में कही तो लोगों को धोखा है सत्य ही होगा। हमने कई बार इस बात को पूरी जिम्मेदारी से कहा है तुम्हें कृष्ण की बात को समझने के लिए कृष्ण ही होना पड़ेगा।
जहां तुम खड़े हो वहां से भगवत गीता या कृष्ण को समझने का भ्रम न पाल लें। जगत में जो कुछ भी है वो सभी आत्मा का ही प्रकाश है। यही चेतना को निर्मित करती है। जितने ज्यादा तुम्हारे पास आत्मा के गुण होंगे उतने ही तुम चेतना सम्पन्न होंगे। लेकिन ये भी देखने की एक दृष्टि मात्र ही है।
जगत को भी पूरी सफलता से जिया जा सकता है | जब एक व्यक्ति वैभव पूर्ण जीवन जीता है तो सभी को शिकायतें होती ही हैं | रावण चालीस हजार साल का वैभव पूर्ण जीवन जीकर इस धरती से गया। वो धरती से सीधा ही परमधाम गया। तो इतना भी बुरा नहीं हो सकता है। लोगों को रावण को लेकर एक नजरिया हो सकता है।
एक बार डॉ. मानवश्री के शिविर में एक ब्राह्मण ने उनसे कहा रावण ने सीता का हरण किया। उन्होंने उससे ने पूंछ लिया यदि कोई तुम्हारी बहन का नाक कान काट ले तो तुम उस व्यक्ति का क्या करोगे ? रावण रेप, गैंगरेप तो नहीं किया. नाक कान भी नहीं काटा. महल से दूर सात्विक परिवेश में सम्मान के साथ रखा.
मुझे यहाँ एक महत्वपूर्ण सूत्र डिकोड करना है। इसलिए हम चाहते है कि बात को कृष्ण के तरीके से न समझें | बल्कि सत्य को स्वीकारने की ताकत अपने अंदर पैदा करें। आत्मा का जो भी सत्य है उसे हम यहाँ कहेंगे।
तुम्हारे अंदर बहुत सारे झूठे सत्य पड़े हैं जिन पर तुमने कभी विचार ही नहीं किया है। हम योगतंत्र के संन्यासी हैं तो स्वाभाविक ही बहुत कुछ से दूर हैं।इसमें खास क्या है ?
बहुत से गृहस्थ भी इन अनुशासन का पालन करते हैं। लेकिन जब कोई बात बार-बार कही जाए तो शंका स्वाभाविक है। जब कोई बात बार-बार कही जाए तो वो गलत ही होती है। जब कोई बात ताकत लगाकर कही जाए तो वो अक्सर गलत होती है।
जब कहा गया आत्मा अमर है। ये कहा ही क्यों गया।अगर ये सनातन सत्य है तो अर्जुन को पहले से क्यों पता नहीं था ?
जितना कहा गया आत्मा अजर अमर है उससे विचार और गहरा हुआ। जितना कहा गया आत्मा अजर अमर है उतनी ही आत्मा शंका के घेरे में आ गई।
जब तक आप मन के जगत में हैं तब तक मन अजर अमर है। जैसे ही आप आत्मा के जगत में कदम रखोगे मन मरना शुरू हो जाएगा। अगर किसी को पता चल जाए उसकी मृत्यु अब सुनिश्चित है। तो उसके अंदर भय की क्या स्थिति होती है ?
इसे तो कोई भी विचार कर सकता है।
अगर मन को ये ज्ञात हो जाए उसकी मृत्यु होने वाली है। तो उसकी बेचैनी का अंदाज क्यों नहीं लगाते हो ?
तुम्हारे वो सभी कृत्य जिसमें ध्यान, ज्ञान जैसा कुछ करते हो तो ये तो मन की ही हत्या की साजिश है। तो मन आपके ऐसे कामों में क्यों न बाधा डाले | वही मन करता है।
मन के जगत में क्या चलता है ?
छल, कपट, व्यभिचार, पाप ऐसा ही कुछ जो गलत है। वास्तव में गलत क्या है जो मन को पुष्ट करे वही मन को अनुकूल होगा। तो जो कुछ भी आत्मा से विपरीत है वो सभी मन के जगत का हिस्सा है। इसे ही आप नकारात्मक कहते हैं। जो कुछ भी मन के विपरीत है वो आत्मा के जगत का हिस्सा होता है। इसे सकारात्मक कहा जाता है।
ये जो कुछ भी सकारात्मक है वो चेतना के ही कारण है। अब इसे ऐसे भी कह सकते हैं जो कुछ भी चेतना या आत्मा के जगत से आता है वो ही सकारात्मक है। अब तुम्हें रहना तो मन के जगत में है तो ये फॉर्मूला व्यर्थ का है। चेतना जैसे-जैसे बढ़ेगी तुम बैराग में जाते ही जाओगे। ये धोखा मत पाल लेना कि हम संत होकर दुकान सजा सकते हैं और मन के जगत में दाल रोटी चलाने के लिए कुछ तो चालबाजी करनी ही होगी। इसीलिए कहा जाता है मन पर नियंत्रण करें।
जहां मन पर नियंत्रण शुरू किया खुली जंग शुरू हो जाती है। वास्तव में मन पर नियंत्रण करें ऐसा कह दिया जाता है पर करना गलत चीजों पर नियंत्रण है क्यों की इस मन के जगत में जो कुछ भी सही कहे जाने वाला हो रहा है वो भी मन ही कर रहा है |
प्रेम, आनंद, सुख, शांति, पवित्रता, शक्ति और ज्ञान होते हैं ये सातों आत्मा के गुण हैं।आत्मा के जगत में चलते हैं। चलना भी चाहिए इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है। बुद्ध, महावीर जब इन शब्दों की बात करते हैं तो करना भी चाहिए क्योंकि वो आत्मा के जगत के ही लोग हैं। लेकिन वो जब मन के जगत के लोगों से यही बात कहते हैं तो बुद्ध, महावीर जैसे लोग मन घाती हैं। ये सभी मन के हत्यारे हैं। क्योंकि ये तुम्हारा मन के जगत का सत्यानाश करते है।
जब आत्मा के जगत की चीजें मन के जगत में आ जाएं तो मन बेचैन हो जाता है। अब तुम उसमें शांति ढूंढते रहो कहां से मिलेगी ?
लोग ध्यान, ज्ञान करने में लगे हैं | कोई फायदा नहीं होगा।इसलिए कहा जाता है यदि भक्ति, ज्ञान, ध्यान, तंत्र मंत्र करना ही है तो पहले विश्वास, दृढ़ इच्छा शक्ति को पैदा करो। ये दोनों ही शब्द आते हैं आत्मा के जगत से। जब भी आप ध्यान, भक्ति, ज्ञान, योग या हर वो विधान जो आपको आत्मा के जगत से संपर्क करा सकता है, ऐसी हर वस्तु व्यवस्था से मन को दिक्कत होगी ही।
आप मन के सभी अनुशासन को मान लीजिए और खूब रहिए मन के जगत में; जीवन व्यवधान रहित होगा। लेकिन जैसे ही तुमने आत्मा जगत का विचार भी किया; बात बिगड़ने लगेगी।
आपने देखा होगा जब आप देवी देवता का पूजा पाठ शुरू करते हो तो काम बनने से ज्यादा बिगड़ना शुरू हो जाते हैं। उसका मुख्य कारण यही है मन को सख्त एतराज है। मन के जगत में मन का अनुशासन पालन कीजिए।
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