चौदह साल की वह लड़की बेतहाशा भाग रही थी। उसे कहीं जाना नहीं था,उसे सिर्फ़ भागना था,पशुओं के उस बाड़े से दूर, जहाँ उसे सुलाया जाता था,पशु से भी ज़्यादा बर्बर उस धर्मांध लड़ाके से दूर जो उसका शौहर था। वह उजड़ चुके जंगलों और अफ़ीम के खेतों में भाग रही थी कि तभी उसे पहाड़ पर से बहता झरना दिखाई दिया। ‘ओह अभी भी कोई झरना बचा है ‘उसने सोचा और मुस्कुरा दी। उसने झरने से पानी पिया और सुस्ताने के लिए बैठ गई। थोड़ी देर बाद उसने देखा,उसका शौहर अपने कुछ साथियों के साथ उसके सामने खड़ा था !
अब वह बंदूकों और तलवारों से लैस दरिंदों के घेरे में हाँफती हुई पहाड़ चढ़ रही थी। चोटी से थोड़ा पहले एक सपाट जगह पर सब रुक गए। एक लड़ाके ने उसके शौहर के हाथ में तलवार पकड़ा दी और उसके शौहर ने एक झटके में उसकी नाक का कोना काट दिया। सब लड़ाके वापस पहाड़ उतरने लगे। वह कुछ देर अपनी बची नाक से बहते ख़ून को पोंछती रही। उसने इधर-उधर देखा तो पाया कि पास ही पत्थरों के बीच से झरना बह रहा था। यह वही झरना था,जिसका पानी उसने नीचे पिया था। वह झरने पर बैठ ठंडे पानी से नाक के ख़ून को धोती जा रही थी। कुछ देर में अब ख़ून बहना बंद हो गया। अचानक उसने महसूस किया कि कब से उसके वजूद पर तारी दहशत पता नहीं कहाँ ग़ायब हो गई थी। अब वह स्वयं को झरने जैसा गतिमान और पत्थर जैसा मज़बूत महसूस कर रही थी। उसने पत्थरों को और झरने को चूमा। हथियारबंद लड़ाके अब नीचे झरने के पास ठीक वहीं पहुँच गये थे,जहाँ वह उनके द्वारा घेरे में ली गई थी। वह उनकी तरफ़ थूकते हुए ज़ोर से चिल्लाई, “नाक मेरी नहीं, तुम्हारी मर्दानगी की कटी है दरिंदो ! ” और फिर वह तेज़ी से पहाड़ उतरने लगी।
हरभगवान चावला,सिरसा, हरियाणा,संपर्क-93545 45440,
संकलन -निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद,उप्र,