नन्दकिशोर सिंह
लोकसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है. बिहार में सात चरणों में चुनाव होना है. चुनाव के मैदान में एक तरफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) है तो दूसरी तरफ़ महागठबंधन है. एनडीए में भाजपा, जदयू, लोजपा (रामविलास), रालोसपा तथा हम पार्टी शामिल हैं जिन्होंने आपस में सीट शेयरिंग कर ली है. भाजपा 17, जदयू 16, लोजपा (रामविलास) 5, रालोसपा 1 तथा हम 1 लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने जा रही है. दूसरी ओर महागठबंधन में अभी तक सीट शेयरिंग पर अंतिम मुहर नहीं लगी है. अखबारी रिपोर्ट के अनुसार राजद 30 सीट पर लड़ना चाह रहा है, जबकि कांग्रेस को मात्र 7 सीट और वामपंथी दलों को सिर्फ 3 सीट देना चाह रहा है.
केन्द्र की सत्ता में 2014 से काबिज और पुनः इस बार केन्द्र में अपार बहुमत से सरकार बनाने का सपना संजोने वाली भाजपा ने 17 सीट लेकर बाकी 23 सीटें सहयोगी दलों को देने में ज्यादा आनाकानी नहीं की, इधर राजद जैसी क्षेत्रीय पार्टी जिसे 2019 के लोकसभा चुनाव में एक सीट पर भी जीत हासिल नहीं हुई थी और जो आई.एन.डी.आई.ए. (INDIA) गठबंधन में अखिल भारतीय स्तर पर एक छोटी पार्टी है, वह अपनी शर्तों पर कांग्रेस एवं संसदीय वाम पार्टियों को मनवाना चाहती है.
कोई भी संजीदा राजनीतिक व्यक्ति, संगठन या दल तहे दिल से यह चाहता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में फासीवादी एवं साम्प्रदायिक शक्तियों की करारी हार हो और चुनाव में किसी पार्टी की पराजय के लिए उसके खिलाफ खड़े प्रभावी गठबंधन, दल या प्रत्याशी को वोट देने से ही यह संभव हो पाएगा. लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या देश स्तर पर भाजपा को चुनौती देने में सक्षम कांग्रेस पार्टी या महागठबंधन में सबसे ज्यादा जनपक्षधर एवं जनवादी वामपंथी दलों को अपने सामाजिक एवं वर्गीय आधार के बिना पर राजद जैसी क्षेत्रीय एवं जाति आधारित राजनीति करने वाली पार्टी के साथ बिहार में असमान सीट शेयरिंग के लिए राजी होना चाहिए ?
मुझे ऐसा लगता है कि फासीवाद और सम्प्रदायवाद को हराने के दूरगामी लक्ष्य के साथ-साथ इस लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को तात्कालिक रूप से परास्त करने के लिहाज से भी यह उचित नहीं होगा. बिहार में कांग्रेस को 10 सीटों पर और वामदलों को 10 सीटों पर अवश्य उम्मीदवार खड़ा करना चाहिए और राजद को 20 सीट से अधिक पर प्रत्याशी नहीं खड़ा करना चाहिए. देश में चल रहे वर्तमान किसान आन्दोलन और मजदूर आन्दोलन में वामपंथी दलों की मजबूत उपस्थिति है.
मैं मानता हूं कि मजदूर किसान आन्दोलन में व्याप्त अर्थवादी एवं सुधारवादी विच्युतियों से संघर्ष करने तथा उसे क्रांतिकारी दिशा देने की महती आवश्यकता है लेकिन जो पार्टियां खुल्लमखुल्ला धर्म, जाति और सम्प्रदाय आधारित राजनीति में यकीन करती हैं और उसे अमलीजामा पहनाने में दिन-रात लगी रहती हैं और मजदूर-किसान आन्दोलन से दूर-दूर तक जिनका कोई रिश्ता नहीं है, उनके बारे में हमें अवश्य ही संजीदगी से विचार करना चाहिए. जहां भाजपा जैसी पार्टी पूरी तरह मजदूर-किसान विरोधी और कॉरपोरेटपरस्त है, वहीं राजद शासक वर्गों की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों पर भरोसा करने वाली एक व्यवस्था परस्त पार्टी है. ऐसी पार्टियों की सीमाओं को अपने जेहन में हमेशा याद रखना चाहिए और तदनुसार अपनी नीतियां बनानी चाहिए.
फासीवाद को पूरी तरह परास्त करने की दिशा में निश्चित रूप से लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन की हार का भारी महत्व है. लेकिन चुनाव में भाजपा की हार और कांग्रेस के नेतृत्व में शासक वर्गों के दूसरे खेमे की विजय मात्र से फासीवादी शक्तियों की हार मानकर आगे की लड़ाई शिथिल कर देने की नीति न सिर्फ गलत साबित होगी बल्कि वह पूरी तरह आत्मघाती होगी. फासीवाद की पूर्ण पराजय का संघर्ष इस मानवद्रोही आदमखोर शोषक व्यवस्था के खात्मे के साथ अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है. इसलिए लोकसभा चुनाव – 2024 के मौके पर हम देश की आम जनता से अपील करना चाहते हैं –
- चुनाव में फासीवादी तथा साम्प्रदायिक भाजपा तथा उसके सहयोगियों को परास्त करने के लिए विपक्षी दलों के सबसे सशक्त प्रत्याशी के पक्ष में अपने मतदान का प्रयोग करें.
- शासक वर्गों की साम्राज्यवादपरस्त जनविरोधी आर्थिक नीतियों का भंडाफोड़ करें.
- आम जनता की समस्याओं के स्थायी समाधान के लिए नव जनवाद और समाजवाद की स्थापना के लिए जनसंघर्षों को तेज करें.
फासिस्ट ताकतों की पराजय की चाहत हम सभी जनपक्षधर, जनवादी, प्रगतिशील एवं वामपंथी संगठनों से जुड़े कार्यकर्ता एवं नेता करते हैं लेकिन सिर्फ अकर्मक चाहत से कुछ नहीं होता. वर्तमान समय में जो आप कर सकते हैं, वह नहीं करके सिर्फ गोल-गोल बात को घुमाने से फासीवाद विरोधी संघर्ष को विकसित करने में मदद नहीं मिलती है.
सभी सच्चे क्रांतिकारी यह मानते हैं कि इस मानवद्रोही शोषणकारी समाज व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव के बिना फासीवाद जैसे गैर जनतांत्रिक, जनविरोधी एवं दमनकारी विचार, प्रवृत्ति एवं शासन व्यवस्था को जमींदोज नहीं किया जा सकता. अपने इस दूरगामी लक्ष्य को एक मिनट के लिए भी आंख से ओझल करना हमारी भूल होगी. लेकिन सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक ब्लादिमीर इल्यीच लेनिन की उस महान सीख का क्या करें जो उन्होंने हम क्रांतिकारियों को दिया है – ‘ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण मार्क्सवाद की जीती-जागती आत्मा होती है.’
हमारे देश में पिछले 10 वर्षों से एक फासिस्ट विचारधारा में यकीन करने वाली पार्टी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार एवं राज्य मशीनरी का संचालन हो रहा है, देश तेजी से फासीवाद के आगोश में समाता जा रहा है, देश में लागू पूंजीवादी संविधान प्रदत्त जनतांत्रिक अधिकारों, नागरिक स्वतन्त्रताओं, सर्वधर्म समभाव वाली धर्मनिरपेक्षता सभी पर तेजी से हमले किये जा रहे हैं. आधे-अधूरे पूंजीवादी जनतंत्र का बधियाकरण करने की साजिशें रची जा रही हैं.
तमाम पूंजीवादी जनतांत्रिक संस्थाओं में फासीवादी बजरंगियों को बैठाया जा रहा है. मजदूरों, किसानों, मेहनतकशों, दलितों, आदिवासियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों, महिलाओं, प्रगतिशील एवं वामपंथी सोच के बुद्धिजीवियों को विशेष दमन का शिकार बनाया जा रहा है. देश में एक नंगी फासीवादी तानाशाही व्यवस्था थोप देने की तैयारी जोरों से चल रही है. ऐसी परिस्थिति में हमारे समक्ष इस लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को हराने और उसके खिलाफ खड़े विपक्षी गठबंधन के प्रभावी एवं सशक्त प्रत्याशी को वोट देने के अलावा विकल्प क्या है ?
कम्युनिस्ट क्रांतिकारी तात्कालिक नारे को अमली जामा पहनाने के मौके पर दीर्घकालीन नारे का उद्घोष करके चुप नहीं बैठ जाते. तात्कालिक नारे और दूरगामी लक्ष्य के नारे का समुचित समन्वय करते हुए वर्तमान समय के दायित्व का निर्वहन करते हैं. यदि हम ऐसा करने में विफल साबित होते हैं तो हम कोरी लफ्फाजी कर रहे होते हैं. और माफ करेंगे लफ्फाजी से न तो फासीवादी शक्तियों का बालबांका होगा और न इस आदमखोर शोषक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन का रास्ता प्रशस्त होगा.