अग्नि आलोक
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कहानी : सांझी दुनिया

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      दीपिका पाटिल

मम्मी फिर पीछे पडी थीं, “बेटा, अच्छा नहीं लगता, अब तो तू उस शहर से जा ही रही है। मिल आ एक बार”

“क्या मम्मी, तुम्ही ने तो बताया था, रमेश भैया के बारे में। तब से वहाँ जाने का मन नहीं करता है मेरा, जानती तो हो” “अरे गुड्डी, तेरी बुआजी तुझे कितना याद कर रही हैं। कह रही थीं, गुड्डी से कहना, जाने के पहले एक बार ज़रूर मिल जाए”

अब मम्मी मानने वाली तो थीं नहीं, इसलिए कल यानि रविवार की छुट्टी के दिन चली गयी थी मैं बुआजी के यहाँ ।

“सरोजा दीदी, इधर आइये ज़रा”, चलने के पहले रेनू भाभी मुझे अंदर ले गयीं

“दीदी, आप से कुछ कहना था”

“हाँ हाँ, कहिये न भाभी”

भाभी हिचकिचाते हुए बोलीं, “वो अपने भैया के बारे में तो आपने भी सुना ही होगा। मतलब, जो उनकी दूसरी बीबी की खबरें फ़ैली हैं”

मैं लज्जा से गड़ गयी। न हाँ बोल पायी थी, न ना।

कुछ संयत हुई तो बेसाख्ता पूछ बैठी, “भाभी, आपने क्यों करने दिया भैया को दूसरा विवाह ? इतनी प्यारा, भरा-पूरा घर संसार था आपका”

भाभी कुछ जवाब देतीं, उससे पहले ही बड़ा भांजा मनीष घर में घुसा था। इस समय अंदर कमरे में मेरी उपस्थिति से अंजान रहा होगा। आते ही गुस्से से चिल्ला कर बोला, “मम्मी, अभी तक मेरी बाइक का इंतज़ाम नहीं हुआ ? आखिर कर क्या रही है वो औरत ? उसने बाइक के लिए रुपये नहीं दिए अब तक ? उसको बोलो, जल्दी दे दे। वरना पापा से डाइवोर्स दिलवाता हूँ”।

मनीष की आवाज़ अंदर तक आ रही थी।

       रेनू भाभी ने मुझे कनखियों से देखा और नज़रें चुरा लीं। फिर धीरे से बोलीं, “अब आप से क्या छुपाना सरोजा दीदी। । बच्चों के खर्चे बढ़ रहे हैं। फिर अम्माजी के इलाज का भी काफी हो जाता है। अब कम से कम छोटे-मोटे खर्चे तो पूरे हो जाते हैं”।

मैं भौचक रह गयी थी। बेसाख्ता मुँह से निकल गया, “तो आप लोग उससे पैसे भी लेते हैं ? और उसका अपना परिवार, बच्चे उनका खर्चा ?”

“वो तो दीदी, मैंने शादी की परमिशन ही इसी शर्त पर दी थी कि उससे कोई संतान नहीं होनी चाहिए। अपने पति की वसीयत में कोई हिस्सा-बाँट नहीं चाहिए मुझे”, भाभी की आवाज़ में अपनी चतुराई पर गर्व का पुट था।

“भाभी, इतनी ही बड़ी वसीयत थी आपके पति की, तो उस दूसरी पत्नी से खर्चा लेने की क्या ज़रुरत थी आपको” ? मेरा स्वर कडुवाहट से भर गया था।

“दीदी, भोली हैं आप”। भाभी ने मेरी नासमझी पर तरस खाया । “देखिये, बढ़िया सरकारी नौकरी है उसकी। अच्छा घर भी मिला हुआ है। आगे पीछे कोई है नहीं। जो भी हैं, हम ही लोग तो हैं। हम पर नहीं करेगी तो किस पर करेगी खर्चा”?

“अच्छाss,  तो ये मजबूरी थी आपकी”।

मेरे कथन में व्यंग के पुट की अवहेलना कर भाभी बोलीं, “वैसे भी दीदी, वो भी इन बच्चों को बहुत मानती है”।

“आपको कैसे पता ? मिली हैं आप उससे”? जैसे-जैसे भेद खुलते जा रहे थे, मेरी खीज बढ़ती जा रही थी।

“नहीं, पर पता है मुझे। भाई, जब अपने बच्चे नहीं हैं, तो अपने पति के बच्चे ही तो अपने हुए न”।

भाभी ने एक बार फिर मुझे नासमझ और स्वयं को होशियार साबित कर दिया था।

मेरी आँखों और चेहरे के भावों ने मेरी चुगली कर दी। देख कर भाभी, तुरन्त रंग बदलते हुए,दयनीय सूरत बना कर बोलीं, “क्या करती दीदी। इस बार तो इन्होने साफ़ कह दिया था की मैं उसके बिना रह नहीं सकता। अगर तुम नहीं मानोगी तो मैं उसी घर में उसके साथ ही रहने लग जाऊंगा फिर मेरा तुम लोगो से कोई वास्ता नहीं रहेगा। और अगर मान जाओगी तो सब कुछ पहले जैसे चलता रहेगा बस, मैं उससे भी मिलने जाता रहूंगा”।

“जो मैंने सहा है सरोजा दीदी, वो किसी पत्नी को न सहना पड़े” और चुन्नी आँखों पर रख, उनका सिसकना शुरू हो गया।

ये ड्रामा मुझसे और बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं चलने को खड़ी हो गयी। पर भाभी ने मेरा हाथ पकड़ लिया, बोलीं, “दीदी एक काम करेंगी मेरा। एक बार वहाँ होकर आइये न। आपकी ही तरफ तो है उसका घर। बी सत्तावन बताते हैं। कुछ भी बहाना निकाल के मिल लीजिये न। बहुत मन है उसे देखने का, उसके बारे में जानने का कैसी है। कैसे इनको फंसा लिया। देखूं तो। क्या मुझसे अधिक सुन्दर है ? देखिये, ये सब मैं किसी और से या इनसे तो कह नहीं सकती न। आपसे ही कह सकती हूँ। प्लीज एक बार मिल कर आइये न”,  रेनू भाभी ने निरीह भंगिमा बना कर कहा।

इसके बाद एक मिनट भी वहाँ रुक नहीं पायी मैं।

कल घर आने के बाद और आज ऑफिस जाते समय मेट्रो में भी रेनू भाभी की बातें मुझे सोचने को मजबूर करती रहीं। ‘छी, एक औरत होकर भी एक औरत को ही कैसे छल सकीं भाभी ? माना भैया ने गलत किया उनके साथ। पर सिर्फ इस वजह से ही क्या उन्हें भी गलती करने का अधिकार मिल गया था ? उस दूसरी स्त्री को माँ बनने से क्यों रोका भाभी ने ? इतना स्वार्थ? जबकि अपना तो भरा पूरा परिवार है उनके पास। पर वो स्त्री किसके सहारे रहेगी ? और भैया ? वो भी ?

     कैसा अनुभव करती होगी उन की दूसरी पत्नी, जिसे माँ बनने का हक़ तक नहीं मिला था। मिला था, तो सिर्फ विवाहिता होने का तमगा। वो भी एक दोयम दर्जे का। और मात्र इतने से ही उसे संतुष्ट होना पड़ा था’।

ऑफिस पहुँच कर काम शुरू ही किया था कि अचानक ट्रांसफॉर्मर ब्रेक डाउन होने के कारण छुट्टी कर दी गयी। इस अचानक मिली छुट्टी से हर तरफ दबी ढकी ख़ुशी दिखाई दे रही थी। मैं भी तेज़ी से अपने मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ ली थी। रास्ते में फिर वही कल वाली बातें ही दिमाग में घूमने लगी थीं।

      हृदय उस अंजान स्त्री के लिए एक करुणा भरी संवेदना का अनुभव कर रहा था, जिसने अपने प्रेम को पाने की ख़ातिर, नारी की सम्पूर्णता के मानक को, यानि मातृत्व सुख को ही तिलांजलि दे दी थी। भैया से प्रेम करने का खामियाजा कब तक भुगतना पड़ेगा बेचारी को ? क्या कभी वो इस सत्य से अवगत हो पाएगी कि भाभी ने कितनी कुशलतापूर्वक उसे स्थायी प्रदाता के पलड़े में बैठा दिया है और स्वयं स्थायी आदाता के पलड़े में विराजमान हो गयी हैं, वो भी ‘बेचारी’ होने का जामा पहन कर।

अपने स्टॉप पर उतरी तो पाँव खुद ही मुड़ लिए ‘बी’ ब्लॉक की तरफ। मस्तिष्क रीता था। कुछ नहीं सोचा था कि उससे मिलूंगी तो क्या बहाना बनाऊंगी, क्या कह कर अपना परिचय दूँगी। बस हृदय में विचारों का झंझावात समेटे ‘बी सत्तावन’ढूंढ रही थी।

रीतनगर के किनारे से ही शुरू हो गए थे सरकारी क्वार्टर्स। किधर पड़ेगा ‘बी सत्तावन’, सोच ही रही थी कि एक ग्रोसरी स्टोर दिखा। सोचा, वहीं पूछती हूँ। एक महिला कुछ सामान ले रही थी। सलीके से बंधी हलके पीले रंग की साड़ी में लिपटी उसकी उजली छरहरी काया और पृष्ठ भाग को देख कर, उसके आभिजात्य सौंदर्य का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता था। कुछ आगे बढ़ने पर कुछ जानी-पहचानी से लगी। कुछ कदम और बढ़ाने पर तो शक की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी।

हाँ, वह कमलिनी ही थी। मेरी प्रिय बाल-सखी ‘लिनी’। कोरियन पिता और कश्मीरी माँ, दोनों से ही अपूर्व नैसर्गिक सौंदर्य विरासत में पाया था उसने। उनकी इकलौती संतान थी वह । इसी से हमारे घर से अधिक ही लगाव था उसका। बचपन की मधुर स्मृतियों से मेरा मन-मयूर नृत्य कर उठा था। मुझे काली कलूटी कह कर चिढ़ाने वाले बच्चों को अपनी तीखी ज़बानी तलवार से वो ऐसी-ऐसी उपाधियों से विभूषित किया करती थी कि सब घबरा कर वहाँ से पलायन कर जाते थे। 

     उसके संरक्षण में मुझे एक मज़बूत सम्बल मिलता था। हांलांकि हमारी जोड़ी को ‘चाक एंड ब्लैकबोर्ड’, ‘ज़ेबरा लाइन्स’, ‘ब्लैक एंड वाइट मूवी’, या ‘साल्ट न पेपर’ जैसी उपाधियाँ भी मिलती रहती थीं। पर बारहवीं पूरी होते-होते उन लोगो का ट्रांसफर दूसरी जगह हो गया था। कुछ समय हाल-चाल मिलते रहे फिर वह सब बंद हो गया था ।

मैंने उसके पास जा, कंधे पर हाथ रख, स्नेह से कहा, “लिनी”।

“हाय तू” —- कह, पलट के, वह इतनी ज़ोर से चिल्ला कर मुझसे लिपट गयी थी कि आसपास की कई जोड़ी नज़रें हम पर चिपक गयीं। मैं संकोच से गड़ी जा रही थी, पर सदा की ही भाँति उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। काम पूरा कर, बड़े ही स्वाभाविक अंदाज़ में उसने अपना पर्स कंधे पर टांगा, सामान का झोला उठाया और “चल घर” कहते हुए, दूसरे हाथ से मेरा हाथ पकड़ ऐसे चलने लगी जैसे सारा कार्यक्रम पूर्व-नियोजित था।

मैंने कहा, “अरे अभी किसी काम से आयी हूँ, फिर किसी दिन आऊंगी।”

“बड़ी आयी काम वाली। चुपचाप चल। पास में ही है घर ।” उसने पहले जैसे अधिकारपूर्ण स्वर में कहा।

मैं पहले की ही तरह उसे कुछ नहीं कह पायी। मेरी आखें रास्ते में पड़ने वाले घरो का नंबर पढ़ती जा रही थी। ‘बी बयालीस’, ‘बी तेतालीस’, ‘बी उनचास’, ‘पचास’। न जाने क्यों हृदय एक अनचीन्हे भय से त्रस्त होता जा रहा था। ‘हे प्रभु, जिस घर में हम रुकें, वह ‘बी सत्तावन’ न हो बस’। 

     हम लिफ्ट से बाहर निकले। आमने-सामने चार फ्लैट्स थे। मैं बुरी तरह भयाक्रांत थी। बायीं तरफ ‘बी सत्तावन’, ‘बी अट्ठावन’, दायीं तरफ ‘बी उनसठ’, ‘बी साठ’। मैं लिनी से दो कदम पीछे हो गयी, कुछ क्षण के लिए नेत्र बंद कर लिए, “हे प्रभु, दया करना।” जब आखें खोलीं तो लिनी ‘बी सत्तावन’ का दरवाज़ा खोल रही थी। गाज गिर चुकी थी मुझ पर।

अंदर पहुँच, मैं निढाल सी सोफे पर ढह गयी। आखें अभी घर का ब्यौरा ले ही रही थीं, कि पीछे से आवाज़ आयी, “ले पहले चाय पी। फिर खाना बनाते हैं”।

मैंने मुड़ कर देखा, लिनी का सौंदर्य पहले से भी कई और सोपान ऊपर चढ़ चुका था। क्या विवाह होने भर से ही कोई इतना सुन्दर बन सकता है। 

    चेहरा थोड़ा सा भर गया था। रंगत पहले ही दूधिया सफ़ेद थी। पर अब उसमे गहरे गुलाबों का रंग और सितारों की चमक भी घुल चुकी थी। हंसने पर उज्जवल दन्त पंक्ति और दोनों गालों पर पड़ने वाले गड्ढे किसी का भी मन मोहने की क्षमत रखते थे। हलकी घुंघराली अपार केशराशि पीठ से नीचे तक लटकती ढीली चोटी में बंधी थी। माथे पर लाल बिंदी दमक रही थी और मांग में लाल सिन्दूर। मेकअप के नाम पर घनी काली बरौनियों से ढकी आँखों में काजल की महीन रेखा थी और प्राकृतिक अरुणिम अधरों पर हलकी गुलाबी लिपस्टिक। सिर्फ इतने से ही लिनी का विवाहिता रूप आखें चौंधिया दे रहा था।

    बी सत्तावन का ताला खुलते ही जो कटु सत्य स्वयं को साधिकार स्थापित कर चुका था, मेरा मन अभी भी उसे झुठलाने में ही लगा था। शायद भैया की दूसरी पत्नी अब तक दूसरे घर में शिफ्ट हो गयी हो और रेनू भाभी को पता ही न हो। “लिनी, तूने शादी कर ली। कहाँ हैं तेरे पति ? क्या नाम है उनका”?, शंका में डूबते उतराते, मैं ढेर सारे प्रश्न उस पर दाग चुकी थी।

“बताती हूँ बाबा, साँस तो लेने दे”। हम हाथों में चाय के कप लेकर उसके बैडरूम की वुडेन फ्लोर पर ही बैठ गयी थीं।

“रोजा, मैंने एक विवाहित आदमी से शादी की है”, लिनी की आवाज़ का गाम्भीर्य मुझे उसकी बातों पर विश्वास करने के लिए बाध्य कर रहा था। “पापा तो अम्मा के बाद ही कोरिया वापस चले गए थे। रिश्तेदारों वगैरा से भी बहुत मेलजोल कभी रहा नहीं, तो मैं एक तरह से अकेली ही थी। तब पहली पोस्टिंग के दौरान रमेश जी और मेरी जान पहचान हुई थी। परिचय धीरे-धीरे प्रगाढ़ता में, फिर प्रणय में बदल गया था। 

   उस समय उन्होंने मुझे बहुत सहारा दिया था। हर काम में मेरी मदद करते थे। धीरे धीरे मैं उन पर पूरी तरह से डिपेंडेंट हो गयी थी”।

“तुझे पता नहीं था कि वो विवाहित हैं”? मैंने पूछ ही लिया था।

“मुझे पता चला था, पर, काफी समय बाद। पर तब तक दिल की डोर मेरे हाथ से निकल चुकी थी। तब हमने शादी करने की सोची। छोटी जगह में ये सब काफी उछाला जाता है। इसलिए हमने दिल्ली ट्रांसफर ले लिया था। रमेश जी की पहली पत्नी से परमिशन लेकर हमने मंदिर में शादी की। अब यहां सुख से हूँ”।

“ख़ाक सुख से है तू।” तेरे पति कहाँ रहते हैं”?

रेनू भाभी से पूरा विवरण सुनने के बाद भी, मैं उसके मुँह से उसका वर्ज़न सुनना चाहती थी।

“वो वहीं रहते हैं, अपने परिवार के साथ। यहां भी आते रहते हैं। कई बार तो दो दो तीन तीन दिन रह जाते हैं”।

“तुझे लेकर बाहर जाते हैं”?

“हाँ मूवी गए थे हम लोग”

“कितनी मूवीज देखीं”?

“उनके साथ किसी पार्टी, फंक्शन में गयी”? लिनी को मेरे आक्रोश का भान हो गया था। उसने सिर झुका लिया।

फिर बोली, “देख रोजा, तू बिलकुल परेशान मत हो। मेरी दुनिया सांझी है। वहां सब मुझे बहुत मानते हैं। दोनों बच्चे तो मुझे छोटी माँ का दर्ज़ा दिए बैठे हैं”।

“तुझे कैसे पता ? कभी मिली है उनसे”?” मेरे कानो में गूँज गया था मनीष का लिनी के लिए सम्बोधन “वो औरत”।

“नहीं, मिली तो नहीं, इन्होने बताया था”।

‘तो क्या रमेश भैया भी’…….मेरा शक़ गहरा होता जा रहा था।

“अच्छा, वो तुझे पैसे देते हैं”?

“अअअ…. अरे, उसकी ज़रुरत क्या है? अच्छी खासी नौकरी तो है मेरी”।

“तो तेरी सैलरी का क्या होता है ? कहाँ खर्च करती है सारे पैसे”?

“अरे, उनके बच्चे मेरे बच्चे। उनके लिए अच्छा लगता है खर्च करना। उन लोगो को ज़रुरत होती है तो मदद कर देती हूँ”।

“और तेरी अपनी संतान”? रहा नहीं गया मुझसे।

उसने सिर झुका लिया, “वो हम लोगो में पहले ही तय हो गया था  कि मैं उसके बारे में कभी नहीं कहूँगी। वे कहते हैं ये ही तुम्हारे बच्चे हैं”।

“निरी मूर्खा है तू लिनी”। मैंने क्रोध से दांत पीसते हुए कहा। “अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली है तूने”।

“जानती हूँ, पर मैं उनके बिना नहीं रह सकती थी और मेरा प्रेम पवित्र है। इस सांझी दुनिया को मैंने जानते बूझते स्वीकारा है”, लिनी की आखों में प्रेम अथाह सागर हिलोरें ले रहा था।

अजब थी ये सांझी दुनिया। जिसमे एक ओर थीं रेनू भाभी, जिन्होंने आर्थिक सहायता के लालच में अपने पति को एक दूसरी स्त्री के संग साझा कर लिया था। दूसरी ओर थी कमलिनी, जिसने प्रेम की पराकाष्ठा स्वरूप साझा करी थी एक ऐसी दुनिया, जिसमे उसके हिस्से सिर्फ देना ही देना आया था। ये सांझी दुनिया ही उसकी सम्पूर्ण दुनिया थी।

और रमेश भैया? उनके हिस्से क्या-क्या आया, सोचने की ताब नहीं बची थी मुझमें।

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अब तक अपने पढ़ा : कमलिनी एक विवाहित व्यक्ति से प्रेम करती है और उसकी पत्नी से अनुमति पाकर विवाह भी करती है। 

     इस विवाह में उसे ये शर्त भी मंज़ूर करनी होती है कि इस विवाह से उसके कोई संतान नहीं होनी चाहिए। उसके पति रमेश के परिवार की, कमलिनी अक्सर आर्थिक सहायता भी करती है, वो रमेश के प्रेम में है और अपनी इस ‘सांझी दुनिया’ में खुश है।

    अब आगे पढ़ें :

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     उस दिन लिनी के घर से आकर मैं ट्रांसफर की पैकिंग में उलझ गयी थी। नए शहर में सेटल होते-होते भी समय लग गया था। कई दिनों बाद लिनी को मैंने ऑफिस के बाद फ़ोन मिलाया। उस समय लैंडलाइन फोन ही चलन में थे।

“हेलो” उधर से रमेश भैया की भारी सी आवाज़ सुनायी दी।

मैंने सकपका कर फ़ोन रख दिया। दोबारा फ़ोन मिलाने की हिम्मत नहीं हुई। काफी समय बाद एक दिन मैंने फिर से नंबर मिलाया तो पता चला वह नंबर किसी और को अलॉटेड है। इस तरह से एक बार फिर हमारा संपर्क टूट गया था।

कई वर्षों बाद, एक दिन ऑफिस की डाक से मेरे नाम का एक ‘पर्सनल’ पत्र आया। ऑफिस के पते पर मुझे ‘पर्सनल’ पत्र कौन भेजेगा, सोचते हुए मैंने लिफाफा देखा। क्षण-मात्र में ही लिखावट पहचान गयी थी मैं। लिनी की थी। छोटा सा पत्र था। साथ में एक विवाह का कार्ड था। उतावली में सब कुछ एक सांस में पढ़ गयी। सार यही था कि बड़ी मुश्किल से मेरे ऑफिस का पता मिल पाया है। अगर ये पत्र मुझे मिल जाता है, तो मैं अंदर लिखे नंबर पर जल्दी से जल्दी उससे बात कर लूँ।

हर्षातिरेक में मैंने तुरंत नंबर डायल कर दिया। पता चला, वह कई वर्षों से अहमदाबाद में है। कहने लगी, “रोजा सारी बातें तुझे मैं विस्तार से बाद में बताऊंगी। अभी ज़रूरी बात यह है कि अगले सप्ताह मेरी बिटिया का विवाह है। 

    सपरिवार आना होगा और मुझे तो काफी पहले से ही आना होगा”। हमेशा की तरह उसके स्वर में अधिकार था।

बोली, “देख तुझे निमंत्रण नहीं दे रही हूँ। बता रही हूँ कि तुम सब आ रहे हो”।

मना करने का सवाल ही नहीं था। इनके और बच्चों के बाद में पहुँचने का इंतज़ाम करके मैं तीसरे दिन सुबह की फ्लाइट से अगमदाबाद पहुँच गयी। एयरपोर्ट पर मुझे लेने के लिए उसकी गाड़ी आयी हुई थी। वेन्यू पर पहुँच कर बेहद मनमोहक नज़ारा दिखा। हर तरफ रंग-बिरंगी खूबसूरत सजावट की गयी थी। कुछ युवा लड़के-लड़कियों का जत्था इधर से उधर मस्ती करता काम में जुटा था। मैं ठगी सी दरवाज़े पर ही खड़ी देखती रह गयी। इतने भव्य आयोजन की तो मैंने कल्पना ही नहीं की थी। एक उम्रदराज़ महिला भारी सी गुजराती साड़ी में आईं और प्रेम से बोलीं, “स्वागत छे। स्वागत छे। तमे केम छो। मोटी बेन। जुओ कोना आव्युं छे”।

शायद आवाज़ सुनकर अंदर से लिनी आयी। देखते ही खुशी के मारे मेरे गले से लग गयी। गुजराती ढंग से पहनी साड़ी में वह बेहद खूबसूरत लग रही थी। आयु उस पर अधिक असर नहीं कर पायी थी।

    मेरा हाथ पकड़ खींचते हुए वह मुझे अंदर एक कमरे में ले गयी, “खुशी, देख तेरी मासी आ गयी। अब सब काम इसी से करा लेना”।

एक नाज़ुक सी, परी जैसी तन्वंगी मुस्कुराते हुए मेरे सामने आ, मेरा अभिवादन कर रही थी। मैंने स्नेह से उसे गले लगा लिया। तभी एक नवयुवक भारी सा पैकेट उठाये हुए अंदर आया, “दीदी, लो सम्हालो अपनी ड्रेस। बाप रे, इतने भारी-भारी कपड़े कैसे मैनेज करते हो तुम लोग”?

“अच्छा बच्चू, पूछूँगी अगले साल” खुशी ने उसके कान खींचते हुए कहा।

“और ये मेरा बेटा नलिन”, लिनी ने मुझे मिलवाया। नलिन ने मेरे चरण स्पर्श किये। मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी थी।

शाम को संगीत था। गुलाबी लहंगे में हर काम में मदद करवाती एक प्यारी सी लड़की को लिनी ने मुझे दिखाया था, “देख वह है नलिन की होने वाली बहूँ। दोनों बचपन से ही साथ पढ़े हैं”।

दूसरे दिन सुबह हल्दी, फिर शाम को बरात थी। शादी में ‘आबोजी’, यानि लिनी के पापा भी आये थे। घर के बड़े-बुजुर्ग की सभी रस्में वह खुशी-खुशी निभा रहे थे। बड़े ही हौसले और दिल से की थी लिनी ने अपनी बेटी की शादी। छोटी-छोटी चीज़ों का भी पूरा ध्यान रखा था। विदाई के समय खुशी और लिनी एक दूसरे से लिपट, ऐसे हिलक-हिलक कर रो रही थीं कि उन्हें सम्हालना मुश्किल हो रहा था।

ये और बच्चे तो विदाई के बाद ही वापस जा चुके थे। मुझे लिनी ने रोक लिया था। उसे सोने की दवा देकर सुला दिया गया था। 

     दोपहर में खाना ख़तम होने पर राधा मेरे पास ही आकर बैठ गयी थी। किस्से सुनाती रही थी कि लिनी बच्चों को कितना प्यार करती है। उनको देर होने पर, कैसे उनके लिए छटपटा उठती है। ऑफिस से दिन में कई बार फ़ोन करके उनका हाल पूछती है। उधर बच्चे भी अपनी माँ के बिना एक दिन भी नहीं रह पाते।

लिनी शाम को ही उठ पायी थी। हम दोनों बालकनी में बैठ गए थे। राधा दो बड़े मगों में कॉफी भर कर हमें पकड़ा गयी थी।

लिनी बराबर खुशी की याद करती रही। अब तो वह परसों ही आएगी पगफेरे के लिए। उसकी चिंता और आंसू देख कर लगा ही नहीं कि उसने खुशी को जन्म नहीं दिया है। वह अपने आप ही बातें करती रही, ‘कैसे उसके बिना रह पाएगी’। हालांकि समीर अच्छा लड़का है, घर वाले भी अच्छे हैं। दोनों साथ ही नौकरी करते हैं। पर ससुराल वाली तो हो ही गयी न’।

लिनी विगत के सागर में गोते लगाने लगी थी। ‘आज भी याद है उसे, कैसे ईश्वर ने इतनी प्यारी भेंट दे दी थी’।

मैंने उसे छेड़ा नहीं। अपनी ही रौ में बहने दिया।

‘आबोजी मतलब मेरे पापा मुझे बीच-बीच में फ़ोन कर हालचाल लेते रहते थे। पर इतनी दूर थे वे, मैं उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थी। हमेशा कहती थी कि मैं बहुत खुश हूँ। पर यहाँ – भारत में – मेरी आँखों पर बंधी प्यार की पट्टी खुलने लगी थी। हमारे बीच का शाश्वत प्रेम घनसार बन, धीरे-धीरे उड़नछू होने लगा था। 

    छोटी छोटी बातों पर हमारे झगड़े होने लगे थे।

अब ये तभी आते थे, जब वहाँ घर में कोई झगड़ा या टेंशन होती थी। मेरे पास उस समस्या से दूर भागने और उसका निदान पाने के लिए ही आते थे। और ये निदान अधिकतर मोटी रकम के रूप में ही होता था। अक्सर ये मुझसे कहते थे कि ‘शायद मेरी नौकरी चली जाए। बहुत टेंशन है। कैसे परिवार को पालूंगा’?

और मैं घबरा कर, जितने भी पैसे ये मांगते, पकड़ा देती थी। कभी अगर हलके से भी पूछ लेती थी कि अभी उस दिन दिए तो हैं, उनसे पूरा नहीं हुआ काम’? तो उत्तेजित हो उठते थे। कहते “अरे, जब यह नयी ज़रुरत अचानक बीच में आ गयी तो क्या उन पैसों का मुँह देखता”।

कभी कहते, “कोई अहसान नहीं कर रही हो तुम। मेरा एक और परिवार है जिसकी ज़िम्मेदारी है मुझ पर। ये सब तो पहले से ही जानती थीं न तुम फिर अब क्यों इस तरह से सुनाया करती हो”?

    ‘कभी कभी मुझे लगता मैं इनके लिए बस एटीएम मशीन बन के रह गयी हूँ। फिर भी मैं अपने-आप को यह ही कह कर समझा लेती थी कि जो समस्या पैसों से हल हो जा। वह सबसे छोटी समस्या है’। पर मेरा मन करने लगा था कि मेरा भी परिवार हो, बच्चे हों। मैं भी एक आम गृहिणी की तरह सुख से बच्चे पालूँ’।

‘फिर एक बार रास्ते में इनसे इनके परिवार के साथ सामना हो गया। उस दिन सारी सच्चाई सामने आ गयी। बहुत परेशान हो गयी थी मैं उन दिनों। लगता था, कोई तो हो मेरे पास, जिससे मैं अपने दिल का हाल कह सकूं, जो मुझे स्नेह से मनाये, समझाए, पर वह वाले रमेशजी तो जैसे कही ग़ुम हो गए थे’।

उस दिन इकत्तीस मार्च थी। ऑफिस से घर आते-आते काफी देर हो गयी थी। शरीर थक कर चूर हो रहा था। घर आयी तो देखा ये आँखों पर उल्टी बांह रखे, अपनी कुर्सी पर अधलेटे थे। आहट सुन, इन्होने आँखों पर से हाथ हटाया बोले, “इतनी देर कैसे हो गयी ?”

    मैंने इनके पास बैठते हुए कहा, “आज तो देर होनी ही थी, इकतीस मार्च है। फाइनेंशियल ईयर क्लोजिंग थी। इतना काम था। थक के चूर हो गयी हूँ”।

उम्मीद थी, ये कहेंगे कि ‘अच्छा, तुम आराम करो चाय मैं बनाता हूँ’। पर जिन गहरी नज़रों से ये देर तक मुझे देखते रहे, मुझे आभास हो गया था कि इस समय इनसे ऐसी कुछ उम्मीद करना निरी मूर्खता के सिवाय कुछ भी नहीं था।

    तत्क्षण एक और आभास भी हो गया था इनकी चपल जिह्वा से मेरी ओर आने वाले हृदय भेदी बाणों का। इस स्थिति को टालने का भरसक प्रयत्न करते हुए, मैंने तुरंत उठते हुए कहा, “चाय बनाती हूँ, पिएंगे ना ?”

प्रत्युत्तर में वज्र सा प्रहार आया, “चाय क्यों, सीधे ज़हर ही पिला दो न”।

“क्या हुआ ? ऐसा क्यों कह रहे हैं”? मैंने पूछा।

“क्या हुआ ? तुम दोनों औरतों ने मेरे ज़िंदगी तबाह कर के रख दी है। तुम्हे कोई और नहीं मिला था क्या शादी करने के लिए। ज़बरदस्ती मुझे ही फंसाना था”, ये गुस्से से बोले।

“मैंने आप को फंसाया ? छुपाया तो आपने मुझसे था कि आप शादीशुदा हैं”। मुझे भी बहुत गुस्सा आ रहा था।

“मैंने तो सिर्फ शादी की बात छुपाई थी और तुम जो कर रही हो वो “? ये तेज़ी में बोले।

“मैं? मैं क्या कर रही हूँ “? मैंने पूछा।

“ये इतनी रात रात तक कौन सा ऑफिस खुला रहता है, ज़रा मैं भी तो सुनूँ । बताओ। कहाँ थीं इतनी रात तक? किसके साथ थीं” ? ये चिल्लाये।

अब ये इलज़ाम मेरे बर्दाश्त के बाहर था।

“क्या कह रहे हैं आप? इतना गन्दा इलज़ाम लगा रहे हैं मुझ पर। सभी रुके थे ऑफिस में। मैं आपकी तरह नहीं हूँ। जो शादीशुदा होकर भी —–” क्रोध में इंसान कडुआ सच बोलने से भी गुरेज़ नहीं करता है। मेरे इस कथन ने इनके अहम् बुरी तरह चोट पहुँचाई थी। 

     ये लपक कर उठे और मेरे गाल पर एक ज़ोर का थप्पड़ रसीद कर दिया। मैं कुछ समझ ही नहीं पायी, हक्की-बक्की खड़ी रह गयी थी। पानी का गिलास फर्श पर छन्न से टकरा कर बिखर गया था। उसी के साथ मेरे ह्रदय, मेरे स्वाभिमान के भी टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गए थे।

बाहर का दरवाज़ा ज़ोर से बंद होने की आवाज़ आयी। ये जा चुके थे। मैं वहीं सोफे पर ढेर थी, स्पंदनहीन, अवश। करीब आधे घंटे बाद घंटी बजी। मुझमे चेतना आ गयी। ये वापस आ गए, ज़रूर मुझ पर हाथ उठाने का अफ़सोस हुआ होगा। क्षमा मांगने आये होंगे। इनके अंदर आने का मैं साँस रोक कर इंतज़ार करती रही। पर घंटी फिर बजी। 

    फिर एक दो बार और बजी थोड़ा तेज़, बेसब्री से। अब दिल ने चेताया, अगर ये होते, तो घंटी क्यों बजाते सीधे अंदर ही आ जाते। मैंने व्यवस्थित होकर दरवाज़ा खोला। सामने मेरे ऑफिस के दो लड़के घबराये से हाथ में कुछ पकड़े खड़े थे। उनके चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थीं। रंग सफ़ेद पड़ा हुआ था। हड़बड़ाए हुए से सीधे अंदर आ गए।

“मैडम, मैडम, ये देखिये”। हाथ आगे कर दिखाया, एक नवजात शिशु था। मैं अवाक सी देख रही थी उन दोनों को।

“ये क्या है। कहाँ से ले आये हो”?

“मैडम आप लोगों के जाने के काफी देर बाद सर्वर चलना शुरू हुआ था, तो closure करते करते बहुत समय लग गया था। हम ऑफिस से निकलने वाले आखिरी बन्दे थे। बाइक के पास पहुंचे तो गेट वाले छोटे मंदिर के पास से एक बच्चे के रोने की आवाज़ सुनायी दी। हमे तो समझ ही नहीं आया क्या करें। गार्ड को भी कुछ नहीं पता था। पहले सोचा पुलिस स्टेशन में दे दें। फिर लगा नहीं, वहां नहीं, आपके पास चलते हैं, वहाँ जैसा भी तय होगा। अब क्या करें मैम”।

मुझे उन दोनों लड़कों पर बहुत गुस्सा आ रहा था। “यहां अपना जीवन तो सम्हल नहीं रहा है, दूसरे को क्या सम्हालूँगी”।

खैर, काफी विचार-विमर्श करने के बाद यही तय हुआ कि इस समय इसे पुलिस स्टेशन में छोड़ना ठीक नहीं रहेगा। सुबह बात करेंगे। 

    मैंने अपनी मेड राधा को को बुलाया, उसी ने सम्हाला उसे किसी तरह। राधा के घर परिवार में कोई नहीं था। मुझसे ही वो अपने परिवार जैसा स्नेह रखती थी। मुझे बच्चे सम्हालने का अनुभव नहीं था। इसलिए उसे अपने यहां ही रहने के लिए रख लिया। वो उस बच्ची को बहुत प्यार से सम्हालती थी। इस बीच न इनका कोई फ़ोन ही आया, न खुद ही आये।

तीन-चार दिन बीत चुके थे, पुलिस स्टेशन से भी कुछ जानकारी नहीं मिल पा रही थी। बच्ची मेरे ही घर पर थी। अंततः यह तय हुआ कि बच्ची को अनाथाश्रम में भेज दिया जाए। इस बीच हमने इसे खुशी कह कर बुलाना शुरू कर दिया था। मेरे लिए यह एक नवीन अनुभव था। बहुत ही सुखद। खुशी, राधा और मैं एक अनजानी डोर से बंध रहे थे। हममें किसी का किसी से खून का या सामाजिक रिश्ता नहीं था। पर, हम एक मज़बूत डोर से जुड़ रहे थे। स्वार्थ रहित डोर से । जिसमे कोई भी किसी का अपना नहीं था, पर तीनों एक दूसरे के ही अपने होते जा रहे थे।

इनके साथ हुई उस आखिरी घटना के पश्चात मैं अपने अपरिपक्व स्वप्नलोक से यथार्थ के ठोस, परिपक्व धरातल पर आ गिरी थी। मस्तिष्क अब तक के अपने जीवन का मूल्यांकन कर रहा था। एक क्रिटिकल एनालिसिस से, यह कांच की तरह पारदर्शी हो गया था कि अब तक मैंने क्या-क्या खोया और क्या पाया। अब समय था, एक कठोर सत्य को आत्मसात करने का और एक बड़ा निर्णय लेने का।

मैंने एक साथ दो ऍप्लिकेशन्स दीं। डिवोर्स के लिए और खुशी को अडॉप्ट करने के लिए। समय लगा, पर फाइनली, सब हो गया। अपने ट्रांसफर के लिए भी अप्लाई कर ही चुकी थी। सीनियर्स ने भी मदद की। ट्रांसफर ऑर्डर्स आते ही यहाँ अहमदाबाद आ गयी। एक भरे-पूरे परिवार की चाहत तो कब से थी ही मुझे। यहां एक छह महीने के बेटे को भी अडॉप्ट किया। क्योंकि मुझे लगता था कि ख़ुशी को एक भाई भी मिलना चाहिए। सच कहती हूँ रोजा, इन बच्चों के संग मुझे वह खुशी मिली, जो पहले कभी नहीं मिली थी।

बेहद प्यारा था लिनी का यह परिवार। जहाँ, देखा जाए तो कोई किसी का नहीं था। पर तीनों एक दूसरे के ही थे, सिर्फ एक दूसरे के। दिल से, आत्मा से। किसी का अपना कोई सगा नहीं था, स्वार्थ नहीं था। खुश थे तीनों एक दूसरे के साथ। जो लिनी की जीवन भर की साध थी कि उसका विवाह हो, वो एक सुखी, संतुष्ट गृहिणी का जीवन जिए, अपना भरा-पूरा परिवार हो, वह उसने अपनी बच्चों के माध्यम से जी लिया था।

    मैं खुश थी कि अंततः लिनी को सच्चे रिश्ते मिल तो गए थे।

अनाधिकृत घुसपैठिये की तरह, एक बार फिर, मेरी यादों में चटख गुजराती साड़ी पहने, आंसू भरी आँखें लिए लिनी झूम-झूम के नाच रही है, और कानो में गूँज रहे हैं, उसी गीत के बोल,

“बन्नो री बन्नो मेरी चली ससुराल को,  अखियों में पानी दे गयी, दुआ में मीठी गुड़धानी ले गयी.” (चेतना विकास मिशन).

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