रिया यादव, भोपाल
‘पानी, पानी, पानी दो मुझे. गला सूख रहा है मेरा. ओह मां, कहां हो?’ यह सुन कर अस्पताल के कमरे में बैड के पास ही कुरसी पर आंखें मूंदे बैठी किरण हड़बड़ा कर हरकत में आ गई. उस ने देखा, उस की बहू पूजा होश में आ गई है जो इधरउधर देखती हुई पानी मांग रही है.
रात के 3 बज रहे थे. ऐसे में किरण ने डाक्टर को बुला लेना ही उचित सम?ा कर कौलबेल का स्विच दबा दिया. तुरंत ही डाक्टर व नर्स आ पहुंचे और पूजा का चैकअप करने लगे.
कल शाम पूजा खरीदारी कर के घर लौट रही थी, तभी सामने से तेजी से आते ट्रक ने उस की कार को साइड से टक्कर मार दी थी. कार उलट गई थी और ट्रक वाला भाग गया था. हादसा देखने वाले कुछ लोगों ने तुरंत ही पुलिस की सहायता ली और पूजा को अस्पताल पहुंचाया. उस के सिर पर गहरी चोट आई थी. बहुत खून बह चुका था और वह बेहोश थी. घर पर सूचना मिलते ही किरण, उस का पति विवेक और बेटा जयंत अस्पताल पहुंच गए थे.
डाक्टरों ने पूजा का यथासंभव उपचार किया. उसे खून भी चढ़ाया गया, फिर भी उस की हालत स्थिर नहीं थी. जब तक उसे होश नहीं आ जाता, खतरा मंडरा रहा था. अब उसे होश आया देख किरण की जान में जान आई थी.
किरण कुछ देर तो वहीं खड़ी रही, फिर डाक्टर और नर्स को कमरे में छोड़ कर बालकनी में चली गई और खुली हवा में उस ने सांस ली. मद्धिम चांदनी बिखेरता पूर्णिमा का चांद ढलने को था जिस से तारों में और भी चमक आ गई थी. चारों तरफ शांति थी.
थकी हुई सी किरण वहीं बैंच पर बैठ गई. उस की आंखों से नींद कोसों दूर थी. आंखों के सामने थी उस के अतीत की किताब जिस के पन्ने खुलते जा रहे थे.
किरण मध्यवर्गीय परिवार की बेटी थी. वह 3 बहनों में सब से बड़ी थी, इसलिए जिम्मेदारी का एहसास उसे बचपन से ही कराया गया था. ग्रेजुएशन के बाद उसे एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी मिल गई और उस के लिए मानो समय वहीं रुक गया. 4-5 साल के अंदर ही उस की दोनों छोटी बहनों ने अपनी पसंद के लड़कों से शादी कर के घर बसा लिए लेकिन किरण वहीं की वहीं थी. वह अब भी अविवाहित थी.
पिताजी सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके थे. मातापिता का सहारा अब किरण ही थी. अब उस की शादी कर देनी चाहिए, यह खयाल तो उन्हें आता था लेकिन इस दिशा में वे कोशिश कहां कर रहे थे. किसी चमत्कार के ही इंतजार में थे कि दूल्हा खुदबखुद चल कर आएगा.
वैसे भी, किरण शांत और सुशील स्वभाव की लड़की थी. ऐसी लड़कियों से मांबाप की इज्जत को भी कोई खतरा नहीं होता, फिर भला वे उस की शादी की ज्यादा चिंता क्यों करें.
किरण जब 35 वसंत पार कर चुकी तब पड़ोसिन रमा चाची ने एक रिश्ता किरण के लिए बताया. लड़का विधुर वकील था. पत्नी का हाल ही में निधन हो चुका था और उस के 5 साल का एक बेटा भी था. किरण ने कोई एतराज नहीं किया. मांबाप भी मान गए और उस की शादी विवेक के साथ हो गई.
ससुराल पहुंचते ही सासससुर ने नन्हे गोलमटोल जयंत को किरण के हवाले कर दिया. किरण ने भी खुशी से उसे अपना लिया और मां का प्यार देने की भरसक कोशिश की. लेकिन जयंत को उसे ‘मौसी’ कहने के लिए सम?ाया गया था, सो, वह उसे मौसी ही कहता था. सिर्फ जरूरत पड़ने पर ही वह किरण से बात करता था. बाकी का समय उस का दादादादी के साथ ही गुजरता था.
विवेक का भी किरण से कोई खास लगाव नहीं था. वह अब भी अपनी मृत पत्नी की यादों में खोया रहता था और बाकी समय काम में व्यस्त रहता. उस के लिए भी किरण की कोई अहमियत नहीं थी. कभी किसी मामले में वह उस की राय नहीं लेता था. किरण मन ही मन दुखी रहती. सोचती कि उस ने क्यों शादी की? क्या शादी का मतलब एक घर से निकल कर दूसरे घर आ कर रहना ही होता है?
विवेक ने उस से शादी से पहले ही कह दिया था कि जयंत के अलावा उसे अब कोई बच्चा नहीं चाहिए और किरण ने भी उस समय हामी भर दी थी. लिहाजा, किरण अपने बच्चे को जन्म भी नहीं दे सकती थी. फिर भी उस की कोशिशें जारी थीं कि जयंत उसे मां समझ कर प्यार करे. विवेक उसे पत्नी समझ कर अपनाए और सासससुर की वह लाड़ली बहू बन कर रहे.
वैसे, किरण को रुपएपैसे की कमी नहीं थी. समाज में वह एक इज्जतदार और अमीर वकील की पत्नी का दर्जा पा चुकी थी.
समय गुजरता जा रहा था. पहले सास और एक साल बाद ससुर भी गुजर गए. जयंत अब 12 साल का हो गया था. अब तो वह किरण को उलटे जवाब देना भी सीख गया था. अपने मित्रों के सामने भी वह किरण को अपमानित कर देता था. विवेक से इस बात की शिकायत करने के बारे में तो किरण सोच भी नहीं सकती थी क्योंकि विवेक स्वयं भी तो ऐसा ही कर रहा था.
किरण अब पछता रही थी कि बच्चे वाले विधुर पुरुष के साथ शादी कर के उस ने बड़ी गलती की थी, लेकिन अब क्या हो सकता था. उस के मांबाप भी अब नहीं थे और बहनें तो थीं ही पराई. अब जीवन ऐसे ही गुजरता जाएगा, किसी दूसरे मोड़ के बारे में तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है कि वह सुखदायी होगा.
बहरहाल, किरण की अच्छी देखभाल से ही जयंत पढ़ाई में अव्वल आता रहा और देखते ही देखते उस ने इंजीनियरिंग भी कर ली. कुछ ही दिनों में उसे अच्छी नौकरी भी मिल गई. अब वह अपनी सफलता का सारा श्रेय अपने पिता को ही देता था, मानो घर में वह सिर्फ पिता के साथ ही रह रहा था. कहता था, ‘मेरी मां तो बचपन में ही गुजर गई. मौसी कच्चापक्का जैसा भी खाना सामने धर देती थी, मैं खा लेता था. वह तो पापा ही थे जिन्होंने मुझे कभी मां की कमी खलने नहीं दी.’
ऐसा कहते वह यह भूल जाता था कि उस के जरा भी बीमार पड़ने पर किरण रातरात भर जाग कर कैसे उस का ध्यान रखती थी, दवाइयां देती थी, डाक्टर के पास ले जाती थी. विवेक के पास समय ही कहां होता था. स्कूल से ले कर कालेज तक उस की किताबें और दूसरी चीजों को किरण ही सहेज कर रखती थी जिस से कि वह अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगा सके.
खैर, जयंत अब एक होनहार, जवान और कमाऊ इंजीनियर था. वह विवेक जैसे मशहूर वकील का बेटा था. उस के लिए रिश्तों की कमी नहीं थी.
पूजा भी अच्छे खानदान की सुंदर कन्या थी. जयंत और विवेक को पसंद आ गई. किरण की राय जानने का तो कोई सवाल ही नहीं था और शादी हो गई. पूजा बहू बन कर घर में आ गई.
शुरू में तो पूजा किरण की इज्जत करती थी. एकदो बार किरण को ‘मम्मी’ कह कर भी उस ने संबोधित किया लेकिन जयंत की देखादेखी जल्दी ही ‘मौसी’ कहना शुरू कर दिया.
अब जयंत के साथसाथ किरण को पूजा के नखरे भी उठाने पड़ते थे. उस की पसंद का खाना बनाना पड़ता था. आदतन वह अपने कपड़े कहीं भी फेंक कर चल पड़ती थी. समेट कर न रखने पर किरण को डांटती भी थी.
एक बार पूजा किसी बात को ले कर किरण से बहुत खुश हुई और ‘मौसी, ले लो’ कह कर उसे 500 रुपए का नोट पकड़ा दिया. उस समय किरण का मन हुआ कि वह दहाड़ें मार कर रोए लेकिन वह चुप रही, मानो सहनशक्ति का दूसरा नाम ही किरण था.
कभी फुरसत मिलने पर किरण सोचती थी कि जिस दूसरे सुखद मोड़ की वह कल्पना करती है वह मोड़ साकार न होने वाली कल्पना बन कर ही रह जाएगा.
किरण कभी पूजा के बारे में सोचने लगती कि पूजा की दोनों बहनें अमेरिका में हैं. मम्मीपापा भी ज्यादातर वहीं रहते हैं. फिर भी पूजा मेरी तरह अकेली नहीं है. ससुराल में वह प्यारी, लाड़ली बहू और पति की प्रेमिका है. मायके में वह प्यारीदुलारी गुडि़या है. मेरा तो कहीं भी, कोई भी नहीं.
पूजा ने बेटे को जन्म क्या दिया, मानो घर खुशियों से भर उठा हो. अब किरण को फुरसत मिलनी बिलकुल ही बंद हो गई. नन्हे ‘चिपी’ के साथ किरण के दिन गुजरने लगे. अब वह दादी बन गई थी लेकिन जानती थी कि चिपी जब बोलना शुरू करेगा, उसे मौसी के अलावा कुछ नहीं कहेगा.
चिपी जब एक साल का हुआ, उस ने एकएक शब्द बोलना शुरू किया. अब तक वह मौसी कहना सीखा नहीं था. विवेक को वह ‘दा’ कहता था तो किरण को भी वह ‘दा’ ही कहता था.
इस पर किरण को जरा सी आशा बंध गई कि किसी दिन वह दादी भी कह देगा और कल यह हादसा हो गया. जब पूजा को अस्पताल पहुंचाया गया था तब उस की हालत देखते हुए डाक्टर ने विवेक की तरफ मुखातिब हो कह दिया था, ‘हम अपनी तरफ से बचाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं लेकिन कुछ कहा नहीं जा सकता. केस बहुत ही गंभीर है. अगर और कुछ घंटे यह होश में न आई तो आप सम?ा सकते हैं कि क्या होगा.’
उस समय विवेक, जयंत और चिपी को गोदी में उठाए किरण सभी तो वहां मौजूद थे. फूटफूट कर रोते जयंत को विवेक और किरण दिलासा दे रहे थे कि बेटे, पूजा को कुछ नहीं होगा. डाक्टरों पर भरोसा रखो. सब ठीक होगा.
इस समय किरण इस परिवार की एक सदस्या थी. उसे कोई अलग नहीं समझ रहा था. शायद दुख की घडि़यों में अपने और पराए में फर्क करना लोग भूल जाते होंगे.
महिला वार्ड में पूजा के पास रहने की इजाजत किसी एक को, वह भी किसी महिला को ही मिल सकती थी, सो, किरण ने यह जिम्मेदारी खुद पर ली और विवेक, जयंत तथा चिपी को घर भेज दिया.
पूजा के साथ अब अस्पताल के कमरे में किरण ही अकेली थी. आंखें बंद कर के बिस्तर पर बेहोश पड़ी पूजा को देख कर किरण मन ही मन उस के ठीक होने के लिए प्रार्थना कर रही थी. शायद उस की प्रार्थना सुन ली गई और पूजा होश में आ गई.
डाक्टर और नर्स अब भी अंदर ही थे. किरण बाहर बैठी उन का इंतजार कर रही थी. करीब आधे घंटे बाद नर्स ने आ कर किरण को सूचना दी कि खतरा टल गया है. पूजा ठीक है और वह कमरे में जा कर पूजा के पास बैठ सकती है. नर्स और डाक्टर चले गए. किरण कमरे में आ गई. पूजा की चादर ठीक की और कुरसी पर बैठ गई.
पूजा होश में थी और किरण की तरफ ही अपलक देख रही थी. शायद कुछ कहना भी चाह रही थी पर कमजोरी या दवाइयों के असर के कारण वह जल्दी ही नींद की आगोश में चली गई. किरण ने भी राहत की सांस ली और कुरसी पर बैठेबैठे ही उस की आंख लग गई.
15 दिन अस्पताल में रह कर पूजा घर आई. अस्पताल में किरण ने पूजा की जो देखभाल की वह देख कर तो कोई भी यही कहता कि यह पूजा की सास नहीं बल्कि मां है. घर आ कर भी वह पूजा की सेवा में लगातार जुटी हुई थी. डाक्टर के मुताबिक तो किरण की सही देखभाल ही पूजा को बचाने में कारगर साबित हुई थी. विवेक और जयंत की आंखों में भी अब किरण के प्रति आदरभाव झलकने लगा था.
एक दोपहर विवेक घर पर ही थे और जयंत औफिस गया हुआ था. पूजा सोई हुई थी और किरण पास ही कुरसी पर बैठी हुई थी. तब विवेक ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘किरण, तुम इतना प्यार करती हो अपनी बहू से? सच में, अगर तुम्हारा प्यार और आत्मीयतापूर्ण देखभाल पूजा को नसीब न होती तो बेचारी का न जाने क्या हुआ होता. सच में तुम्हें वह इतनी प्यारी है?’’ मानो विवेक भावना के प्रवाह में बह कर किरण का मन टटोलने की कोशिश कर रहे थे.
‘‘नहीं, मैं प्यार नहीं करती पूजा से,’’ किरण लगभग चिल्लाई.
यह सुन कर विवेक को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. न ही किरण से दोबारा कुछ पूछने की वह हिम्मत जुटा पाए. कुछ देर चुप्पी छाई रही.
‘‘विवेकजी, मैं किरण से यानी अपनेआप से प्यार करती हूं, क्योंकि मुझसे से कोई प्यार नहीं करता,’’ चुप्पी तोड़ती हुई किरण एक छोटे बच्चे की तरह बोली, ‘‘सोचो, अगर पूजा को कुछ हो जाता तो आप की ही तरह जयंत की भी दूसरी शादी हो जाती. जयंत की दूसरी पत्नी घर में आ जाती.
क्या जयंत उस से प्यार करता? क्या चिपी उसे मौसी न कहता? क्या वह आप की लाड़ली बहू होती? नहीं होती न? वह बिलकुल मेरे जैसे होती. अरे, दूसरी किरण होती वह. प्यार नाम की चीज से कोसों दूर, ‘‘कहती हुई किरण ने एक लंबी सांस ली फिर आगे बोली, ‘‘देखिए, मैं ने उस दूसरी किरण को जन्म लेने ही नहीं दिया. अच्छा किया न मैं ने? कहो मैं ने अच्छा किया या बुरा?’’
विक्षिप्त सी किरण विवेक को ?िं?ाड़ कर पूछ रही थी. किरण को पता नहीं था कि पूजा जाग गई है, सुन रही है और जयंत भी न जाने कब आ कर पास ही खड़ा उस की बात सुन रहा है.
‘‘जवाब क्यों नहीं देते, मैं ने अच्छा किया या बुरा?’’ किरण ने फिर पूछा तो विवेक ने कुछ कहे बिना उस का हाथ कस कर पकड़ लिया, मानो अपनी अब तक की गलतियों की वे क्षमा मांग रहे हों.
तभी जयंत आगे बढ़ा और किरण को गोद में उठा कर उस का माथा चूमता हुआ बोला, ‘‘मां, मेरी प्यारी मां, तू मेरे सामने थी और मैं तु?ो तसवीर में देखता रहा,’’ कहते हुए जयंत ने उसे बिस्तर पर पूजा के साथ लिटाया. इधर विवेक के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे और जयंत अब किरण को चुप कराने की चेष्टा कर रहा था.
‘‘किरण, तुम मेरे जीवन में उजाला ले कर आईं, फिर भी मैं ने तुम्हारी कद्र नहीं की. इस घर की स्वामिनी होते हुए भी मैं ने तुम्हें तुम्हारे हक से वंचित रखा. जयंत और पूजा भी मेरा ही अनुसरण करते हुए तुम्हारी उपेक्षा करते रहे. इन सब का जिम्मेदार मैं ही हूं. न जाने क्यों, मैं ने तुम्हारे से, वास्तविकता की दुनिया से दूरी बनाए रखी, लेकिन अब मैं तुम्हारे पास आ गया हूं. अब मु?ो अपना लो, किरण,’’ कहते हुए विवेक ने किरण का हाथ कस कर पकड़ लिया.
अब किरण का मन धीरेधीरे शांत हो रहा था. वह चुप थी. छत की तरफ टकटकी लगाए देख रही थी. उस के साथ लेटी हुई पूजा अब हरकत में आ गई और उस का दूसरा हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘बोलो मम्मी, मैं आप की कौन हूं? बेटी हूं या बहू? बताइए?’’ फिर चिपी को संबोधित करती हुई बोली, ‘‘चिपी, आप दादी को ‘दा’ क्यों कहते हो? बोलो, दादी.’’ और चिपी भी जब तोतली जबान में दादी बोला तो किरण हंस पड़ी.
उसे लगा, जिस दूसरे सुखदायी मोड़ की वह कल्पना किया करती थी वह आ चुका है. पहला मोड़ कंकड़, पत्थर और कांटों भरा था तो दूसरा मोड़ हरियाली, महकते फूल और प्यार की बौछारों से सराबोर है. इंतजार रंग लाया है. अब उस की बाकी की जिंदगी इसी मोड़ पर आगे बढ़ती जाएगी, इस में कोई शक नहीं.
(चेतना विकास मिशन)