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कहानी : काका खचेरा

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पुष्पा गुप्ता

    _एक साहित्यिक मित्र की जुबानी : सन् उन्नीस सौ सत्तर में मैट्रिक पास करने के बाद मथुरा नगर में  स्थित किशोरी  रमण इंटर कालेज में प्रवेश लेना पड़ा। कॉलेज में दो पारियां लगतीं थीं। दूसरी पारी में जाने के लिए गांव से लगभग ग्यारह बजे साइकिल से निकलना पड़ता था। कालेज घर से लगभग नौ किलो मीटर की दूरी पर था। लगभग आधी दूरी तय करने के बाद खचेरा काका से मुलाकात होती थी। हम इधर से जाते थे। और उनका शहर की तरफ से लौट कर आने का समय होता था। दूर से ही पहचान में आने लगते थे।_

          लगभग उनहत्तर-सत्तर वर्ष की उम्र। करीव पौनें छ:फीट लम्बा कद, चौड़ा और उठा हुआ माथा। मोटी-मोटी आँखें, चेहरे की आकृति के अनुपात में नाक कुछ छोटी और कान बड़े-बड़े, सफेद चमकते हुए दाँत, गाल पिचके हुए, गर्दन लम्बी, गले में दो लर बंधा हुआ काले रंग का धागा, सर के बाल बिल्कुल छोटे-छोटे जो काड़े न जा सकें। पहनावे में फतूरी पहने हुए, यह बनियान जैसी लगती थी, किंतु सिली हुई होती थी, इसमें आगे की तरफ एक जेब भी हुआ करती थी। नीचे आधी धोती का बना हुआ पंज्जा बाँधे हुए। सर पर झाऊ की लकड़ियों से बनी हुई बहुत बड़े आकार की डलिया, जिसमें वे लगभग बीस किलो मौसम के फल मथुरा शहर की मंडी से भर कर लाते थे। सर पर अंगोछे (स्वाफी) से बनाया मुड़ीसा होता था, जिसके ऊपर डलिया रखी रहती थी ताकि डलिया सर में न चुभे। तपती दोपहरी में पसीना सर के बालों से निकल कपोलों से बह कर गड्डे वाले गालों को लक्षित करता हुआ – लगता था, किसी पहाड़ी से झरने वाला झरना नीचे झील में जाने के लिए अपना मार्ग तय कर रहा है। पैरों में रबड़ की चप्पलें जब रेत ऊपर तक उछालती थीं, तो पसीने से भीगी हुई फतूरी पर एक डिजाइन सी बनाती थीं। उस समय पक्की सड़कें नहीं थीं। गांव के लिए धूल भरी नाले की पटरी ही एक मात्र रास्ता था।

कभी बाएं हाथ से डलिया पकड़ते थे, और दाहिने हाथ की उंगली से पसीना पोंछते थे, तो कभी दाहिने हाथ से डलिया पकड़ कर बांए हाथ से पसीना पोंछते थे। रास्ते की थकान और प्यास से व्याकुल होकर लम्बे-लम्बे कदम बढ़ाते थे। 

सामने नीम वाली प्याऊ जो दिखाई दे रही है – यह शहर से आते समय सबसे पहला और गाँव से शहर आने के वक्त पानी पीने का अंतिम ठिकाना था। यहाँ पथिक पानी पीता था और नीम के विशाल वृक्ष के नीचे बैठकर कुछ पल थकान भी मिटाता था। आखिर खचेरा काका ने अपनी मंजिल का पहला पड़ाव तय कर ही लिया। एक हाथ से डलिया पकड़ कर दूसरे हाथ से इशारा करते हुए,सामने खड़े पथिक से आँखों ही आँखों में डलिया उतरवाने के लिए आग्रह किया। बजन जो था। पथिक ने आग्रह को सहानुभूति पूर्वक स्वीकार करते हुए दोनों हाथों से डलिया को नीचे  उतरवाने में सहयोग किया। मुड़ीसे वाले अंगोछे से पसीना सुखाते हुए, काका ने राहत की साँस ली।

“उफ! कितनी गर्मी है? चलो सात-आठ किलोमीटर का रास्ता तो तय हो ही गया, मंडी शहर के काफी अंदर है, और भीड़-भाड़ भी बहुत रहती है।”

अल्प विश्राम के बाद खचेरा इधर-उधर झाँकते हैं, सब राहगीर चलते बने, दोनों घुटनों को पकड़ते हुए उठते हैं। पिछले काफी दिनों से घुटनों के दर्द से परेशान हैं। अपने ही आप से कुछ कहते हुए, “अरे चल खचेरा बहुत बैठ लिया, बैठने से काम नहीं चलेगा।” 

प्याऊ वाले पंडित जी की ओर देखते हुए, “पंडित जी नेंक उचवइंयों।”

पंडित जी कुछ असहज भाव से, कुछ अलसाए से उठे, फिर डलिया उठवाई। फलों को बेचने की चिंता और बढ़ती हुई भूख से चाल में तेजी, डलिया दोनों हाथों से कस के पकड़, खचेरा लंबी-लंबी डग भरने लगे। घर पहुंचते-पहुंचते एक तो बज ही जाता है, जब कि मंडी जाने के लिए प्रातः चार बजे से दिनचर्या आरंभ करनी पड़ती है।

घर का दरवाजा खटखटाते हुए, “मोंना, दरवाजा खोलो बेटी।“

“आई बापू।“ 

पत्नी की तरफ देखते हुए, “देख क्या रही हो? जल्दी उतरवाओ, बोझ लग रहा है। और खाना भी लाओ, भूख भी जोर से लगी है। मैं तैयार होता हूँ।“

काका ने सबसे पहले फतूरी पर नजर घुमाई। दाहिना हाथ बाँईं ओर बांयां हाथ दाहिनी ओर केंची नुमा हाथों से फतूरी उतार कर उसे दोंनों हाथों से झटकते हुए धूप में डाल दिया। मुड़ीसा वाले अंगोछे से सारे शरीर का पसीना पोंछा, सामने रखे मिट्टी के कच्चे घड़े से बाल्टी में पानी उड़ेल कर हाथ पैर धोए। फिर उसी अंगोछे से हाथ पैर पोंछ कर अंगोछे को दोनों हाथों से पखार धूप में सुखा दिया। बैठते ही काकी ने खाने की थाली को आगे बढ़ाया।

थाली में रखी रोटियों को कुछ पल टकटकी लगाए देख कर बोले, “आज फिर कोई साग सब्जी नहीं हैं? रोज वही लाल की मिर्च की चटनी।“ 

“पैसे कहां थे ? तुम सुबह देकर ही नहीं गए।“ 

“पैसे तुम्हें दे जाता तो फिर मंडी  क्या अपनी शकल दिखाने जाता।“ 

काका ने  रोटी के हर गस्से को उलट-पलट कर देखा और बड़े बेमन से जल्दी-जल्दी दो रोटी निगल लीं, ऊपर से एक लोटा पानी पी लिया।

कुछ आलस्य तो लग रहा था, किंतु तीन बजने वाले हैं। फल बेचने हैं। फिर फतूरी के पास पहुंचे उसे सरसरी नजर से देखा, सूख गई है। फतूरी पहनी, पंजा लपेटा। कल कौन से फल बेचने हैं, बड़ी सावधानी के साथ  छाँट कर निरख-परख करते हुए, आधे फल अलग बर्तन में रख लिए, क्योंकि मंडी तो एक दिन छोड़ कर ही जाना है। अंगोछे का मुड़ीसा बनाया और डलिया सर पर रखी। अब तो बजन आधा ही रह गया है।

आरम्भ हुई जीवन की दैनिक यात्रा। बांयें हाथ से डलिया पकड़ दाहिना हाथ थोड़ा सा ऊपर उठाते हुए –

“ले लो केला, ले लो सेव, ले लो बढ़िया केला, बढ़िया सेव।“

एक छोटी सी बालिका उछलती हुई आई, “बाबा केला क्या भाव है?”

“एक रुपये दर्जन।जरा दिखाओगे?”

काका मुस्कराते हुए बोले, “क्यों नहीं,” डलिया उतार केलों की तरफ इशारा करते हुए, “ये देखो।“

बच्ची ने हल्की सी नजर घुमाई, “ये तो अच्छे  नहीं हैं।“

खचेरा काका फिर मुस्कुराए और बोले, “कोई बात नहीं जिस दिन तुम्हें अच्छी लगे उस दिन ले लेना।“

पीछे से आवाज आई, “यह लड़की कुछ ज्यादा ही सरारती है।“

“कोई बात नहीं बच्चा है।“

फल बिकने लगे काका के चेहरे की मायूसी विदा होते हुए दिखने लगी। गांव का चक्कर पूरा हो गया लो शिव मंदिर भी आ गया। काका ने बड़े उत्साह और तेजी के साथ मंदिर में प्रवेश किया। और रोजाना की तरह डलिया से चार  केले निकाले। दो केले  मंदिर के द्वार पर खड़ी गाय को दे कर,  गाय को सहलाते हुए उस पर हाथ फिराया। मंदिर की टंकी में लगी टोंटी से अपने  हाथ धोए। शेष दो केले बड़ी श्रद्धा के साथ शिवलिंग पर चढ़ा कर हाथ जोड़े, और मन ही मन कुछ प्रार्थना भी की। तदुपरांत मंदिर से बड़ी तेजी से निकल लिए। मंदिर वाले साधु बाबा ने आवाज लगाई, “अरे खचेरा, बैठो।“

खचेरा ने पीछे मुड़कर हाथ हिलाते हुए कहा, “बाबा अभी पास वाले  सकना गांव में डलिया फिराने जाना है। शाम को आते समय जब मंदिर में पूजा-पाठ करूंगा, तब ही आपके दर्शन कर लूंगा।“

सूर्यास्त होते-होते खचेरा के सारे फल बिक गए। चेहरे पर रौनक आने लगी। आज की विक्री बारह रुपये की  हुई जो हुई है। बार-बार जेब से पैसे निकाल कर गिनते हैं और मुस्कुराते हैं। फिर उंगलियों पर आज की लागत का हिसाब लगाते हैं। एक,दो,तीन……आठ रुपये वाह! चार रुपये बचे। तीन रुपये  मजदूरी, एक रुपया मुनाफा … बार-बार आकाश की ओर देख कर दोंनों हाथ फैलाते हुए ऊपर वाले का धन्यवाद करते हैं।

गांव में घुसते ही सबसे पहले शिव मंदिर के सामने वाले कुए पर बाल्टी से पानी खींच कर बड़े आनन्द से स्नान करते हैं। जैसे ही बाल्टी का पानी सर पर  गिरता है, मन हरि संकीर्तन में डूब जाता है। सहज ही मुखार विंद से हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे … सारे दिन की थकान काफूर हो गई। मंदिर के एक कोने में रखी हुई जूट की बोरी का आसन बिछाया और नित्य कर्म में लीन हो गए। 

मंदिर के  बृद्ध पुजारी साधु बाबा राम लखन दास विगत काफी दिनों से बीमार हैं। रात-दिन दर्द से तड़फड़ाते रहते हैं। गांव के किसी डॉक्टर ने दवा का पर्चा लिखा है। बाबा मंदिर पर आए हुए गाँव के एक धनी पुरुष को अपना दवाई का पर्चा दिखा कर दवा के लिए गिड़गिड़ाते हैं।

 खचेरा का ध्यान सहसा अपनी पूजा से भंग होकर उस बाबा की वार्ता पर केंद्रित हो गया, और बड़े प्रफुल्ल भाव से स्वयं से  ही कहने लगा – “खचेरा  सच्ची पूजा तो यह है।“ 

जब गाँव का धनी पुरुष कुछ वेरुखी सी दिखाते हुए – अच्छा देखेंगें – कह कर चला गया, खचेरा उठ कर आए और हाथ जोड़ कर बड़े विनम्र भाव में बाबा से पूछने लगे, “बाबा तुम्हारी दवा कितने रुपए की है?”

बाबा बोले, “भैया, दवा महंगी है। पिछली बार चौदह रुपये की आई थी।“

खचेरा काका ने बारह रुपये जेव से निकाले और साधु बाबा के हाथ पर रख दिए। 

बोले, “बाबा दो रुपये कम है, वह कल दे दूंगा।“ 

राम लखन दास खचेरा की तरफ देखते ही रह गए! एक पल बाद बोले, “नहीं भैया, नहीं। मैं तुम्हारे पैसे नहीं लूंगा। मुझे पता है तुम बड़ी मुश्किलों में अपने बच्चों का पालन पोषण कर रहे हो।“

साधु बाबा ने उन पैसों को खचेरा की जेब में रखने की कोशिश की। लेकिन खचेरा काका ने अपनी जेव पर हाथ रख लिया। बाबा के लाख कहने पर भी  पैसे वापस  नहीं लिए। 

“बाबा यह पैसे मैंने आपको खूब सोच समझ कर दिए हैं।“ 

सजल नेत्रों से निवेदन करते हुए बोले।

“अगर आप मेरी यह सेवा स्वीकार करोगे तो मेरा सौभाग्य और आपकी बड़ी कृपा होगी।आपका इलाज बहुत जरूरी है। मैं तो पैसे कल फिर कमा लूंगा।“

साधु ने खचेरा के सच्चे भाव को स्वीकार करते पैसे रख लिए।

खचेरा काका के घर आते ही काकी बोली, “घर में आटा नहीं है। पहले आटा ले आओ उसके बाद बैठना।“

बोले, “आज जितने पैसे  के फल बिके थे, मैंने वे पैसे बाबा राम लखन दास जी की दवा लाने के लिए दे दिए हैं।“

काकी बोली, “यह आपने बहुत अच्छा किया। मैंने कल सुना था कि बाबा राम लखन दास रात-दिन दर्द से बेचैन रहते हैं। हम आज पानी पीकर ही रह लेंगे। एक दिन में भूख से कोई नहीं मरता। जब कल फल बिकें, तो आटा ले आना।“ 

यद्यपि खचेरा काका को अपनी पत्नी के स्वभाव की जानकारी होना एक स्वभाविक सत्य था, किंतु फिर भी उनका समर्थन पा कर काका का मन बाग-बाग हो गया। पत्नी की ओर सस्नेह दृष्टि पात करते हुए उनके कंधे पर हाथ रख कर बोले, “मैं तुम्हारे  इस गुण से बहुत प्रसन्न हूँ। मुझे तुम्हारे ऊपर पूरा भरोसा था कि तुम कुछ ऐसा ही कहोगी।“ 

मोना बेटी को दोपहर की बची डेढ़ रोटी दे कर वे दोंनों उदार भाव से गद-गद बड़ी प्रसन्न मुद्रा में रात्रि विश्राम को चले गए।  

कभी-कभी कोई-कोई-पसीने की बूँद जब किसी असहाय निरीह के जख्म को सहलाती है, तो वह यज्ञ की आहुति  अश्वमेध यज्ञ के समान यशस्वी और फल वती होती है। निर्भर करता है कि वह पसीने की बूंद जिस माथे  पर झलकती है, उस मेहनत कश पुनीत पुरुष के श्रम अधिक साधन सत्य के कितने निकट रहे। 

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