रविश कुमार
2009 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी आडवाणी जी EVM के विरोध में सुप्रीम कोर्ट पहुंचे. उसके बाद आडवाणी धीरे-धीरे पार्टी में साइडलाइन हो गए.
संघ के तथाकथित बुद्धिजीवी इलेक्शन ऐनालिस्ट जीवीएल नरसिम्हा राव ने 2010 में EVM के प्रयोग के विरोध में एक पुस्तक लिखी, जिसका विमोचन तत्कालीन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी ने किया. उसके बाद नितिन गडकरी को दूसरा कार्यकाल नहीं मिला बल्कि सही शब्दों में लिखूं तो संघ की पूरी कोशिश के बाद भी नहीं मिला. कारण कुछ और पेश किए गए.
आम आदमी पार्टी ने 2017 में पंजाब चुनाव के बाद EVM पर सवाल उठाए. आम आदमी पार्टी के विधायक सौरभ भारद्वाज ने विधान सभा में सत्र के दौरान EVM को हेक करके दिखाया. सौरभ भारद्वाज ने दावा किया कि किसी भी चुनाव से दो घंटा पहले आप हमें सारी EVM मशीन दे दो और विधान सभा तो दूर की बात है, कोई बूथ जीतकर दिखा दो. उसके बाद पता नहीं क्या हुआ, सौरभ भारद्वाज आज तक EVM के विरोध में नहीं बोले.
इसके बाद चुनाव आयोग को एक हेकाथॉन करवाने का ड्रामा करना पड़ा, जिसमें उन्होंने सभी को इन्वाइट किया कि कोई भी EVM को हेक करके दिखाए. चुनाव आयोग ने शर्त बड़ी शानदार रखी थी – आपको EVM हेक करनी है लेकिन उसे छुए बिना. अब आप ही बताइए EVM को कोई आंख के इशारे से कैसे सेट करे ? इस शर्त के चलते कोई उसे हेक नहीं कर पाया और EVM पाक साफ़ घोषित हो गयी.
सुप्रीम कोर्ट ने हर EVM में VVPAT लगवाने का आदेश दे दिया. अब VVPAT से पर्ची तो निकलती है लेकिन गिनी नहीं जाती थी. फिर कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट गए तो सुप्रीम कोर्ट ने हर विधान सभा में रैंडम तरीक़े से कम से कम पांच बूथ की VVPAT पर्चियों का EVM से मिलान का आदेश दिया, जिसका किसी भी चुनाव की गिनती में या तो मिलान नहीं होता या फिर मिलान अंत में होता है, तब सरकार बन जाती है और प्रत्याशी अधिकारियों के दबाव में आ जाता है.
2019 के चुनाव में 370 से ज़्यादा लोकसभा सीट पर पड़े गए वोट और गिने गए वोट मैच नहीं हुए. हंगामा हुआ. चुनाव आयोग ने अपने साइट से पड़े गए वोट की इन्फ़र्मेशन ही हटा दी. बदायूं लोकसभा सीट पर पड़े गए वोट और गिने गए वोट में 25 हज़ार से ज़्यादा वोट का अंतर था. सपा प्रत्याशी धर्मेंद्र यादव इसके ख़िलाफ़ हाई कोर्ट गए लेकिन उसके बाद इस केस में क्या हुआ, ना तो किसी को पता है और ना ही धर्मेंद्र यादव ने कभी इसका कोई ज़िक्र किया है.
अब EVM का सबसे क्लासिक केस बताता हूं. अभी कुछ महीने पहले ही महाराष्ट्र विधान सभा के स्पीकर और कांग्रेसी नेता नाना पटोले ने विधान सभा के पटल पर EVM के सम्बंध में एक बिल रखा, जिसमें पास होना था कि महाराष्ट्र के किसी भी चुनाव में EVM का प्रयोग नहीं होगा. बिल पास होने से पहले अगले ही दिन अचानक नाना पटोले को कांग्रेस ने महाराष्ट्र का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया और उन्होंने स्पीकर के पद से इस्तीफ़ा दे दिय. बिल कहां ग़ायब हो गया, यह आज तक नहीं पता चला.
लगभग हर राजनीतिक दल मानता है कि EVM के चलते निष्पक्ष चुनाव नहीं होते, फिर भी कोई भी राजनीतिक दल इसका खुलकर विरोध नहीं करता. जब आपको EVM पर भरोसा नहीं है, जब आपको लगातार EVM की निगरानी करनी पड़ती है, जब आपको हर चुनाव में EVM के ख़राब होने और कोई भी बटन दबाने पर कमल को वोट जाने की शिकायत मिलती है, जब हर चुनाव में EVM के बक्से कभी भाजपा नेता के होटल में, कभी भाजपा नेता की गाड़ी में, कभी ट्रक में मिलते हैं तो फिर आप लोग EVM से चुनाव लड़ने को तैयार क्यों होते हो ? ऐसा कौन-सा दबाव है जो आप EVM का पूरी तरह विरोध नहीं कर पाते हो ?
वो कौन है जिसके दबाव में हम उस प्रणाली को अपनाए हुए हैं जो अमेरिका, फ़्रान्स, जापान जैसे विकसित देश तक नहीं अपनाते ? किसका दबाव है ? इतना ही बता दो कि दबाव देश के भीतर से ही किसी का है या कोई देश के बाहर बैठा हुआ भी सब कुछ मैनिज कर रहा है ?
नोटः बंगाल में ममता जीते और पंजाब में आप जीते और यूपी में सपा जीते तब भी मैं EVM पर यक़ीन नहीं करता. इसका बीजेपी की हार या जीत से कोई संबंध नहीं है. चुनाव में उसी चीज का इस्तेमाल होना चाहिए जो सब समझ सकें, जिसे समझने के लिए इंजीनियर होना ज़रूरी न हो !