जावेद अनीस
‘जेंडर’ एक सामाजिक-सांस्कृतिक शब्द है, जो समाज में ‘पुरुषों’ और ‘महिलाओं’ के कार्यों और व्यवहारों को परिभाषित करता हैं। यह एक ऐसा मानव निर्मित सिद्धांत है जो ऐतिहासिक रुप से उनके बीच शक्ति और सामाजिक स्तरीकरण को स्थापित करता है, जहाँ पुरुषों को महिलाओं से श्रेष्ठ माना जाता है। लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव की जड़ यही सोच है जिसके आधार पर सदियों से समाज में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कमजोर माना जाता रहा है। महिलाओं के खिलाफ लैंगिक भेदभाव का यह चलन मोटे तौर पर पूरी दुनिया में व्याप्त रहा है।
महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने कहीं लिखा है कि ‘भगवान पांच लड़कियों के बाद लड़का देकर अपने होने का सबूत देता रहता है।’ यही हमारे समाज का सच है। दरअसल, महिलाओं को लेकर जीवन के लगभग हर क्षेत्र में हमारी यही सोच और व्यवहार हावी है जो ‘आधी आबादी’ की सबसे बड़ी दुश्मन है। तकनीकी भाषा में इसे पितृसत्तात्मक सोच कहा जाता है, हम एक पुरानी सभ्यता है समय बदला, काल बदला. लेकिन हमारी यह सोच नहीं बदल सकी। उलटे इसमें नये आयाम जुड़ते गये। हम ऐसा परिवार समाज और स्कूल ही नहीं बना सके जो हममें पीढ़ियों से चले आ रहे इस सोच को बदलने में मदद कर सकें। वैसे तो शिक्षा शास्त्री ‘लॉ’ को बदलाव का कारखाना कहते हैं लेकिन देखिये हमारे स्कूल क्या कर रहे हैं। वे पुराने मूल्यों को अगली पीढ़ी में हस्तांतरित करने के माध्यम ही साबित हो रहे हैं।
अब यह विचार स्वीकार किया जाने लगा है कि जेंडर समानता केवल महिलाओं का ही मुद्दा नही है। जेंडर आधारित गैरबराबरी और हिंसा को केवल महिलायें खत्म नहीं कर सकती हैं। लैंगिक न्याय व समानता को स्थापित करने में महिलाओं के साथ पुरुषों और किशोरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका बनती है। व्यापक बदलाव के लिए ज़रूरी है कि पुरुष अपने परिवार और आसपास की महिलाओं के प्रति अपनी अपेक्षाओं में बदलाव लायें।
अगर हम महिला-पुरुष समानता की अवधारणा को अभी तक स्वीकार नहीं कर सके हैं तो फिर तरक्की किस बात की हो रही है? वर्ष 1961 से लेकर 2011 तक की जनगणना पर नज़र डालें तो यह बात साफ तौर पर उभर कर सामने आती है कि देश में पुरुष-महिला लिंगानुपात के बीच की खाई लगातार बढ़ती गयी है, पिछले 50 सालों के दौरान 0-6 वर्ष आयु समूह के बाल लिंगानुपात में 63 प्वाईन्ट की गिरावट आयी हैं। वर्ष 2001 की जनगणना में जहाँ छह वर्ष तक के बच्चों में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की संख्या 927 थी तो वहीं 2011 की जनगणना में यह अनुपात कम होकर 914 (पिछले दशक से -1.40 प्रतिशत कम) हो गया है, ध्यान देने वाली बात यह है कि अब तक की हुई सारी जनगणनाओं में यह अनुपात न्यूनतम है। यानी गिरावट की दर कम होने के बजाय तेज हुई है। यदि देश के विभिन्न राज्यों में लिंगानुपात को देखें तो पाते हैं कि यह अनुपात संपन्न राज्यों में पिछड़े राज्यों की मुकाबले ज्यादा खराब है, इसी तरह से गरीब गांवों की तुलना में अमीर (प्रति व्यक्ति आय के आधार पर) शहरों में लड़कियों की संख्या काफी कम है। कूड़े के ढेर से कन्या भ्रूण मिलने की ख़बरें अब भी आती रहती हैं लेकिन उन्नत तकनीक ने इस काम को और आसान बना दिया है।
उपरोक्त स्थिति बताती है कि आर्थिक रूप से हमने भले ही तरक्की कर ली हो लेकिन सामाजिक रूप से हम बहुत पिछड़े हुए समाज हैं। गैर-बराबरी के मूल्यों और यौन कुंठाओं से लबालब। नई परिस्थतियों में यह स्थिति विकराल रूप लेता जा रहा है। वैसे तो शिक्षा तथा रोज़गार के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या और अवसर बढ़े हैं और आज कोई ऐसा काम नहीं बचा है कि जिसे वो ना कर रही हों, जहाँ कहीं भी मौका मिला है महिलाओं ने अपने आपको साबित किया है। लेकिन इन सबके बावजूद हमारे सामाजिक ढाँचे में लड़कियों और महिलाओं की हैसियत में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है। असली चुनौती इसी ढांचे को बदलने की है जो कि आसान नहीं है।
दरअसल, लैंगिक समानता एक जटिल मुद्दा है, पितृसत्ता पुरुषों को कुछ विशेषधिकार देती है अगर महिलायें इस व्यवस्था द्वारा बनाये गये भूमिका के अनुसार चलती हैं तो उन्हें अच्छा और संस्कारी कहा जाता हैं लेकिन जैसे ही वो इन नियमों और बंधनों को तोड़ने लगती हैं समस्यायें सामने आने लगती हैं। हमारे समाज में शुरू से ही बच्चों को सिखाया जाता है कि महिलायें पुरषों से कमतर होती हैं। बाद में यही सोच पितृसत्ता और मर्दानगी की विचारधारा को मजबूती देती है। मर्दानगी वो विचार है, जिसे हमारे समाज में हर बेटे के अन्दर बचपन से डाला जाता है। उन्हें सिखाया जाता है कि कौन-सा काम लड़कों का है और कौन-सा काम लड़कियों का। बेटों में खुद को बेटियों से ज्यादा महत्वपूर्ण होने और इसके आधार पर विशेषाधिकार की भावना का विकास किया जाता है।
पितृसत्ता से केवल महिलाओं को ही परेशानी नहीं उठानी पड़ती है, बल्कि इसका शिकार पुरुष भी होते हैं उन्हें ना केवल मर्दानगी ओढ़नी पड़ती है, बल्कि ज्यादातर समय इसकी कसौटी पर खरा उतरना होता है। उन्हें हमेशा अपनी मर्दानगी साबित करनी होती है। समाज मर्दानगी के नाम पर लड़कों को मजबूत बनने, दर्द को सहने, गुस्सा करने, हिंसक होने, दुश्मन को सबक सिखाने और खुद को लड़कियों से बेहतर मानने का प्रशिक्षण देता है। इस तरह से समाज चुपचाप और कुशलता के साथ पितृसत्ता को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक हस्तांतरित करता रहता है।
पिछले 50 सालों के दौरान 0-6 वर्ष आयु समूह के बाल लिंगानुपात में 63 प्वाईन्ट की गिरावट आयी हैं। वर्ष 2001 की जनगणना में जहाँ छह वर्ष तक के बच्चों में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की संख्या 927 थी तो वहीं 2011 की जनगणना में यह अनुपात कम होकर 914 (पिछले दशक से -1.40 प्रतिशत कम) हो गया है, ध्यान देने वाली बात यह है कि अब तक की हुई सारी जनगणनाओं में यह अनुपात न्यूनतम है। यानी गिरावट की दर कम होने के बजाय तेज हुई है।
भूमंडलीकरण के बाद मर्दानगी के पीछे आर्थिक पक्ष भी जुड़ गया और अब इसका सम्बन्ध बाजार से भी होने लगा है। अब महिलायें, बच्चे, प्यार, सेक्स, व्यवहार और रिश्ते एक तरह से कमोडिटी बन चुकी हैं। कमोडिटी यानी ऐसी वस्तु जिसे खरीदा, बेचा या अदला-बदला जा सकता है। आज महिलाओं और पुरुषों, दोनों को बाजार बता रहा है कि उन्हें कैसे दिखना है, कैसे व्यवहार करना है, क्या खाना है, किसके साथ कैसा संबंध बनाना है। यानी मानव जीवन के हर क्षेत्र को बाजार नियंत्रित करके अपने हिसाब से चला रहा है, यहाँ भी पुरुष ही स्तरीकरण में पहले स्थान पर है।
आज़ादी के बाद हमारे संविधान में सभी को समानता का हक दिया गया है और इन भेदभावों को दूर करने के लिए कई कदम भी उठाये गये हैं, नए कानून भी बनाये गए हैं जो कि महत्वपूर्ण हैं परन्तु इन सब के बावजूद बदलाव की गति बहुत धीमी है। इसलिए ज़रूरी है कि इस स्थिति को बदलने का प्रयास केवल भुक्तभोगी लोग ना करें, बल्कि इस प्रक्रिया में समाज विशेषकर पुरुष और लड़के भी शामिल हो। ये जरुरी हो जाता है कि जो भेदभाव से जुड़े सामाजिक मानदंडों को बनाये रखते हैं, वे भी परिस्थियों को समझते हुए बदलाव की प्रक्रिया में शामिल हो।
अब यह विचार स्वीकार किया जाने लगा है कि जेंडर समानता केवल महिलाओं का ही मुद्दा नही है। जेंडर आधारित गैरबराबरी और हिंसा को केवल महिलायें खत्म नहीं कर सकती हैं। लैंगिक न्याय व समानता को स्थापित करने में महिलाओं के साथ पुरुषों और किशोरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका बनती है। व्यापक बदलाव के लिए ज़रूरी है कि पुरुष अपने परिवार और आसपास की महिलाओं के प्रति अपनी अपेक्षाओं में बदलाव लायें। इससे ना केवल समाज में हिंसा और भेदभाव कम होगा बल्कि समता आधारित नए मानवीय संबंध भी बनेंगे। जेंडर समानता की मुहिम में महिलाओं के साथ पुरुष को भी जोड़ना होगा और ऐसे तरीके खोजने होंगे, जिससे पुरुषों और लड़कों को खुद में बदलाव लाने में मदद मिल सके साथ ही वे मर्दानगी का बोझ उतार कर महिलाओं तथा लड़कियों के साथ समान रुप से चलने में सक्षम हो सकें।
जावेद अनीस भोपाल के स्वतंत्र पत्रकार हैं।