सुधा सिंह
चलते चलते रूक जाना,
ऐसा क्या? जो तूने जाना।
चलती का है नाम ज़िंदगी,
जब तक है चलते जाना।
कदम थम गयेे, उखड़ी साँसें,
लय टूटी और टूटी आसें,
भय पसरा ना जाने कैसा,
कड़वी लागी सभी मिठासें।
ना बाहर ही रहा भरोसा,
ना भीतर ही रहा भरोसा,
चलन चली सब बहम बहम में,
चुभी रही कदमों में फांसें।
सुधबुध कोई रही न अपनी,
ना अपना खुद होश रहा है,
रस्ता भी है और कदम भी,
दम भी है फिर रहे उसाँसे।
उलझ गया खुद खेल रचाकर
खुद के ही सब फेंके पांसे।
रूका रह गया, पकड़ वहम को,
ऐसा क्या? जो तू ने जाना।
जीवन तो एक राह, राह में,
बाधाऐं भी होती है,
टलकर निकल सके इतनी तो,
सबमें बुद्धि होती है।
चाह अगर हो चलने की तो,
होश आँख में रहता है,
मंजिल कदमों में रहती और,
जीवन संग में रहता है।
जीवन का संग, संग में हो तो,
खुशीयों का संग होता है,
खुशीयों के संग बीता वो ही,
सच में जीवन होता है।
बेचैनी और बेसब्री को,
नर्क भोगना कहते हैं,
सहज सहज जो जिया जा सके,
उसको जीवन कहते हैं।
जीवन को जीवन के जैसा,
जी कर जीवन जी जाना,
गुजर गया वापस नहीं लौटे,
नाहक यूँ ना थम जाना।
तू ही यूँ ही रूका रह गया,
समय हाथ से सरक गया,
बहता पानी बहते बहते,
जाने कब मुल्तान गया।
गुजर गया ये जीवन यूँ ही,
ठिठक ठिठक के जीने में,
अपनी ही सोचों से घिरकर,
अपना चैन करार गया।
जीवन अंतिम अवसर तेरा,
फिर ना मिलता दोबारा,
ऐसा ना हो झोली-आकर,
ये अवसर बेकार गया।
जीवन की जो पढ़े पढाई,
जान गया वो जीवन जीना,
जीना जिसको आया उसके,
जीवन का अंधकार गया।
जीवन का मतलब इतना सा,
खुद का खुद को होश रहे,
तब जीवन का मतलब होता,
ठगे ठगे क्या पछताना।