अंशुल त्रिवेदी
हाल में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी की उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देने की घोषणा से देश की राजनीति में खलबली मच गई। जहां एक तरफ़ समतावादी राजनीति के समर्थकों ने इस फैसले का स्वागत किया वहीं दूसरी तरफ़ विपक्ष की कुछ आवाज़ों ने इस फैसले को “स्टंट” मात्र ठहरा दिया। उनका तर्क है की कांग्रेस ने केवल एक ही राज्य में यह घोषणा क्यों की?
वर्तमान राजनीतिक विमर्श में महिलाओं के मुद्दे मात्र उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने तक सीमित रह गए हैं। महिलाओं का मुद्दा कानून – व्यवस्था दुरुस्त करने का मुद्दा बनकर रह गया है। आलम यह है की दक्षिणपंथी ताकतें महिलाओं पर हो रही हिंसा के लिए कभी चाउमीन तो कभी मोबाइल फोन को दोषी ठहराते हैं। वह इसे सामाजिक संरचना में निहित पुरुषप्रधानता का नतीजा मानने से इंकार कर देते हैं।
नतीजतन हमारे देश की आधी आबादी जिसे हर नेता अपने भाषण में तालियों के लिए देवी का रूप बतलाता है, कैसे रोज़मर्रा का जीवन जीती है और किन चुनौतियों का सामना करती है उससे समाज अभी तक अनभिज्ञ है। यौन हिंसा के अलावा महिलाएं हर क्षेत्र में कठिनाइयों का सामना करती हैं, चाहे वह शिक्षा हो या ऑफिस या घर में कर रहीं श्रम को अनदेखा किया जाना हो या फिर अपने काम का पूरा दाम ना पाना हो, हर कदम पर उन्हें भेदभाव और अन्याय का सामना करना पड़ता है। किसी ने ठीक ही कहा है कि जिस दिन महिलाएं अपने श्रम का हिसाब मांग लेंगी उस दिन मानव इतिहास की सबसे बड़ी चोरी पकड़ी जाएगी। प्रियंका गांधी का फैसला महिलाओं के प्रति इस समग्र दृष्टिकोण से जन्मा है।
ऐसा नहीं है कि इससे पहले किसी राजनीतिक दल या नेता ने महिलाओं के लिए कोई कदम नहीं उठाए। लेकिन यह पहल केवल सरकारी योजनाओं तक सीमित थी। चाहे वह कन्यादान योजना हो, शराब बंदी हो या लड़कियों को मुफ़्त साइकिल वितरण की योजना हो, यह सब प्रशंसा योग्य कदम थे लेकिन यह महिलाओं को “लाभार्थी” की भूमिका में कैद कर देती हैं। प्रियंका गांधी का फैसला सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित कर उन्हें “शासक” बनाने का प्रयास है, चूंकि वे भली भांति जानती हैं कि सामाजिक बदलाव की चाबी राजनीतिक सत्ता ही है।
महिलाओं को लाभार्थी बनाने की सोच की वजह से ही महिला आरक्षण बिल इतने समय से ठंडे बस्ते में पड़ा है। आश्वर्य की बात यह है की शोषित तबकों की राजनीति करने वाले दल भी इस बिल के खिलाफ़ हैं। जबकि राममनोहर लोहिया जी ने अपनी सप्तक्रांति की परिकल्पना में पुरुष-स्त्री असमानता के मुद्दे को प्राथमिकता दी थी। उनका मानना था कि पुरुष और स्त्री के बीच का भेद हमारे समाज में इस कदर जड़ें फैलाया हुआ है कि भविष्य में सारी जाति-जनजातियों का आरक्षण कभी खत्म हो भी जाए तब भी महिलाओं को अवसर में और भागीदारी में तरजीह देते रहना होगा।
क्या यह आरक्षण किसी खास जाति या वर्ग तक सीमित रह जाएगा, यह बाद का मुद्दा है। सर्वप्रथम हमें यह स्वीकारने की ज़रूरत है कि महिलाओं की एक स्वतंत्र पहचान है। जितना महिलाएं राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बनेंगी उतना ही हमारा जनतंत्र पोषित होगा। हिंसा और गुंडाराज कम होगा और फलस्वरूप हमारी बेटियों और साथियों का जीवन सुरक्षित और समृद्ध होगा।
चीन की एक प्राचीन कहावत है कि हजारों मील का सफ़र भी एक छोटे से कदम से शुरू होता है। इस पुरुषप्रधान समाज में सदियों से चली आ रही महिलाओं के समता के संघर्ष के सफ़र में यह भी एक छोटा सा कदम है। एक बहुत महत्वपूर्ण कदम जिसका हम सबको, राजनीतिक दलों की सीमाओं से ऊपर उठकर स्वागत करना चाहिए।