अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

 देश के वैचारिक फलक का धु्रवतारा है भगतसिंह 

Share

कनक तिवारी

भगतसिंह सम्भावनाओं के जननायक बनकर इतिहास में अपनी धारदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं। उन्हें देश के लिए जीने की ज़्यादा उम्र नहीं मिली। ईश्वर में भगतसिंह को आस्था नहीं थी। वे नास्तिक बने रहे। इक्कीसवीं सदी की दहलीज़ पर भगतसिंह पिस्तौल या बम के आतंक के प्रतीक बताए जा रहे हैं। मातृभूमि के लिए बलिदान करने के सबसे बड़े ऐतिहासिक उदाहरण हैं। ज़रूरत है भगतसिंह के ज़ेहन की पड़ताल की जाए। उन विचारों को खंगाला, पुनर्परिभाषित और समकालीन बनाया जाए जो भारतीय क्रांतिकारियों का दर्शन रहे हैं। राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में सही जगह पर भगतसिंह को स्थापित करने की ज़रूरत है। भगतसिंह का पूरा लेखन आम जनता तक नहीं पहुंचा है। उन्हें एक रूमानी नस्ल के मिथक पुरुष बनाए जाने की शातिर कोशिशें चलती रही हैं। दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद को वीर पूजा की भावना के सहारे अपने बांझ तर्कशास्त्र ढोने की आदत है। ऐसे सभी महापुरुष जो उसकी थ्योरी के प्रचार के लिए वैचारिक तोड़मरोड़ के ज़रिए उपयोग में लाए जा सकते हैं, उनका शोषण करने से भी उसे परहेज़ नहीं है। भगतसिंह को वे एक हिंसक वीर दिखाते हैं। जो विरोधी विचारधारा पर बम फेंक कर भी अपने निर्णय की पुष्टि इतिहास से करा सकते हैं। क्या यही भगतसिंह होने का अर्थ है? 

दुनिया में चौबीस वर्ष से कम उम्र का कोई बुद्धिजीवी पैदा नहीं हुआ जिसने कम से कम पांच वर्ष अपने देश का इतिहास कांधों पर उठाए रखा? कोई जननेता पैदा नहीं हुआ जिसने तेईस चौबीस वर्ष की उम्र में बुद्धिजीविता के स्फुलिंग का निर्झर पैदा किया हो। भगतसिंह ने समाजवाद या साम्यवाद के वैचारिक वर्क की बारीक परतें अपने तर्क से चीरकर दी हैं। वे आज भी रूढ़ वामपंथी विचारकों के लिए मुमकिन नहीं है। यह महान नवयुवक देश के वैचारिक फलक का धु्रवतारा है। एक शोध विद्यार्थी की तरह वह देशभक्ति का जज़्बा मौलिक उत्पाद की तरह प्रयोगशील करता है। उसकी कुर्बानी की धमन भट्टी से नया इन्कलाब पैदा हुआ। लोग भगतसिंह के प्रति अपनी अपनी समझ को पेटेंट करने की होड़ में हैं। भगतसिंह समाजवाद के प्रतिबद्ध सिपाही की हैसियत में लड़ते रहे। संविधान सभा की बहस में समाजवाद का उल्लेख होने पर भगतसिंह के नाम का जिक्र तक नहीं आया। नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण और लोहिया जैसे समाजवादी विचारकों की तिकड़ी ने भी भगतसिंह को एक वैचारिक की मुनासिब तरज़ीह नहीं दी। हर भारतीय समाजवादी विचारक माक्र्सवाद और यूरोप की अन्य समाजवादी अवधारणाओं का कायल रहा है। 

भगतसिंह का स्मृति शेष पाकिस्तान में है। उनका इतिहास भारत के भविष्य में है। भगतसिंह की देह दाह संस्कार के लिए परिवार और देश को मिली, वह अधजली और टुकड़े टुकड़े में थी। भगतसिंह के लेखन को पाठ्यक्रम में शामिल कर उस पर शोध किए जाने की लगातार ज़रूरत है। भगतसिंह की टीम ने आज़ादी के लिए साथीपन की भावना से मुकम्मिल संघर्ष किया। साथीपन लोकतंत्र से आज गायब है। समाजवाद को संविधान के जीवित लक्ष्य के रूप में घोषित करने के बाद भी वैष्वीकरण, मुक्त बाजार और साम्र्राज्यवाद के सामने भारत घुटने टेके हुए है। धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मकसद के होने के बावजू़द सांप्रदायिक दंगों का दुनिया का सबसे बड़ा देश भारत है। अछूतों के लिए भाईचारा भगतसिंह ने समझाया था। वे जगह जगह सवर्णों की हिंसा का शिकार हैं। किसान-पुत्र भगतसिंह ने किसानों को अर्थनीति की रीढ़ बताया था। वे आत्महत्या कर रहे हैं। उन पर सरकारें अहसान बताकर कर्ज़ माफ कर रही हैं। उन्हें पैदावार का वाजिब मूल्य तक नहीं मिलता। विरोधाभास में तीन रुपये किलो चावल सरकारें मेहरबान होकर दे रही हैं। नौजवान तो भगतसिंह का सपना थे। वे ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के बेकारी के भत्ते से सड़कों पर उत्पात करने तक की सांस्कृतिक गतिविधियों में लिप्त हैं। मज़दूरों को भगतसिंह सियासी जे़हाद के काम में लगाना चाहते थे। वे अपने अधिकारों में लगातार कटौती किए जाने से लुंज पुंज हैं। भगतसिंह की नास्तिकता के बरक्स अशिक्षित धर्मांध साधुओं का हिप्पीवाद भारतीय संस्कृति का चेहरा बनाया जा रहा है। भगतसिंह छोटे छोटे उपेक्षित सवालों तक के अनाथालय थे। 

न्यायाधीशों के सामने सिर झुकाने से भगतसिंह इंकार करते थे। उनके अनुसार जज इन्साफ करने नहीं बैठते हैं। केवल औपचारिकता का निर्वाह करते हैं। भगतसिंह के प्रखर कर्मों का ताप झेलना किसी के वश में नहीं है। उनकी कुरुचिपूर्ण मूर्तियां केरल और कन्याकुमारी से लेकर गौहाटी और जम्मू तक हैं। उनके नाम पर देश में बहुत बड़ा केन्द्रीय पुस्तकालय खोलने की ज़रूरत है। उनसे ज़्यादा तेज़ गति से पढ़ने वाला भारतीय राजनीति में कोई नहीं है। सरकारें मंत्रियों की सुरक्षा पर खर्च कर रही हैं। उतने धन से भगतसिंह साहित्य को प्रकाशित कर देश के महाविद्यालयीन विद्यार्थियों में बांटा जा सकता है। उससे देश का ज़्यादा भला भगतसिंह कर सकते हैं। जंगली नस्ल के कानून और न्यायिक बीहड़ जनता का शोषण कर रहे हैं। इंकलाब ज़िंदाबाद के मुकाबले देश     ‘इंडिया शाइनिंग‘, ‘स्किल इंडिया‘, ‘स्टार्ट अप‘, ‘बुलेट ट्रेन‘, ‘फील गुड‘, ‘मोदी दर्शन‘, ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र‘ ‘सेंसेक्स‘, ‘परमाणु करार‘, ‘मेक इन इंडिया‘, ‘स्मार्ट सिटी‘ के नवयुग में आ गया है। भगतसिंह की भाषा और तर्कों की चमक धूमिल नहीं हो सकती। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में भविष्यमूलक सवाल इतिहास की छाती पर भगतसिंह ने बिखेरे थे। वे इक्कीसवीं सदी में क्रांति का पुनर्पाठ कर रहे हैं। क्रांति के इतिहास में भगतसिंह ध्रुव तारे की तरह स्थायी हैं।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें