मीना राजपूत (कोटा)
_सुल्ताना डाकू अमावस की रात डाका डालने आने वाला था. उसने चिठ्ठी लिखकर बताया था कि डाके के दौरान औरतों-बच्चों को हाथ नहीं लगाया जाएगा. बड़ों को भी नहीं बशर्ते वे सयाना बनने की कोशिश न करें. डाके से पहले मेज़बान द्वारा घर की ड्योढ़ी में काली माता के मंदिर स्थापित किया जाना था जिसमें प्रस्तावित डाके से तीन रात पहले से सफ़ेद तिल के निखालिस तेल का दिया जलाए रखना था._
अलग से ख़ास हिदायत थी कि चिठ्ठी मिलने के बाद से न पुलिस को इत्तला करनी थी न ज़रा सा भी माल-मत्ता इधर उधर करने की कोशिश. “हमारे मुखबिर तुम्हारी रसोई और सोने के कमरे तक घुसे हुए हैं” – चिठ्ठी में चेताया गया था.
काशीपुर से सुखियाराम साहूकार का कारिन्दा सुल्ताना का संदेसा लेकर जब मक्खन सेठ के सोंठपुर वाले फ़ार्महाउस पहुंचा वहां इलाके के कोतवाल की बड़ी दावत चल रही थी. अंग्रेजबहादुर की कृपा से हासिल की गयी विदेशी व्हिस्की का पहला गिलास हलक में गया ही था और ख़ास मौके के वास्ते नवाब रामपुर के महल से बुलवाया गया खानसामा महमूदुल्ला स्वादिष्ट भुनी बटेर मेज पर परोस ही रहा था.
चिठ्ठी पढ़ते ही मक्खन सेठ की फूंक सरक गई. कोतवाल ने अचानक माथे पर आ गए पसीने का सबब पूछा तो मक्खन सेठ ने कागज़ आगे कर दिया. कोतवाल के मुंह में गिलास लगा हुआ था. चिठ्ठी में लिखी इबारत देखते ही शराब का घूँट उसकी सांस की नाली में जा अटका और उसने बेतरह खांसना शुरू कर दिया. खांसते-खांसते आँखें लाल हो गईं, नाक बहने लगी. जग भर पानी पीया तब जाकर चैन आया.
सांस सामान्य होने पर कोतवाल ने सेठ को अपनी तरफ़ उम्मीदभरी निगाह से देखता पाया.
“पिछली अमावस के दिन सुल्ताना ने गड़प्पू के बनवारी सेठ के वहां डाका डाला था. सारा माल तो लूटा ही, बनवारी के साले को नीम के पेड़ से उलटा लटका कर चला गया था. उसने इतना भर कहा था कि जिज्जी के गहने तो रहने दो सुल्ताना भाई. जाते-जाते सुल्ताना धमकी दे गया था कि तीन दिन तक साले साहब को पेड़ से उतारा न जाए. बताते हैं बिचारे ने चाय तक उल्टे लटके-लटके पी …”
कोतवाल ने गला खंखार कर माहौल में रहस्य पैदा करना शुरू किया ही था कि मक्खन सेठ बोल उठा, “जब सब कुछ सुल्ताना ने ही करना है तो पुलिस काहे भर्ती कर रखी लाट बहादुर ने. उसी को कमिश्नर बना देना चाहिए.”
कोतवाल ने चारों तरफ देखते हुए सहमी हुई आवाज़ में कहा, “सुल्ताना जब भी थाना लूटने की चिठ्ठी भेजता है ना सेठ जी तो हम लोग उसके आने से पहले ही सारी बंदूकें और गोला-बारूद बाहर ला के रख देते हैं. पुलिस वालों के भी बाल-बच्चे होते हैं!”
“मगर कोतवाल साहब इस चिठ्ठी पर आप क्या एक्शन लोगे?” सेठ ने पूछा.
“जो भी करना है सुल्ताने ने ही करना है सेठ जी. रामजी सब भली करेंगे. माया का क्या है फिर कमा लोगे मगर जान से हाथ धो बैठे तो … सोच लो!”
कोतवाल के जाने के बाद सेठ ने सबसे पहले महमूदुल्ला को भोर होते ही रामपुर वापस लौट जाने को कहा और फ़ार्महाउस के सारे नौकर-चाकरों को तलब किया. ये कुल जमा पच्चीस-तीस वफादार दिखने वाले लोग थे जिनकी आधी से ज्यादा ज़िंदगी मक्खन सेठ के लिए काम करते हुए बीती थी.
सेठ का मन हुआ एक बार सुल्ताना की चिठ्ठी का हवाला देकर गरजते हुए पूछे कि कौन गद्दार मुखबिरी कर रहा है लेकिन तुरंत उसकी समझ में आ गया कि ऐसा करना बेवकूफी होगी.
उसने उनसे अगली दोपहर तक अपने जंगल से साल के आठ-दस सबसे मोटे दरख्त काट कर लाने का हुक्म सुनाया और बीवी के पास चला गया.
सेठानी को सोते से जगा कर मामला बयान किया गया. सेठानी के चेहरे पर भय की रेखाएं उभरीं और वह बिना एक भी शब्द बोले मंदिर वाले कमरे में घुस कर घंटी टुनटुनाने लगी.
सेठ ने बाहर अँधेरे में आकर सिगरेट सुलगाई और विचारमग्न हो गया.
पिछले तीस-चालीस सालों में उसने पाई-पाई जोड़कर फल-सब्जी और अनाज की आढ़त का बड़ा व्यापार खड़ा किया था. आढ़त से आई पूंजी की मदद से उसने ब्याज पर रुपया देने का काम शुरू किया. साहूकारी के इस धंधे में लंबा मुनाफ़ा हुआ.
उसके ज्यादातर देनदार सोंठपुर और आसपास के रहने वाले गरीब किसान थे. समय पर उधार न चुका सकने के कारण उनमें से ज्यादातर अपनी ज़मीनें औने-पौने में सेठ को बेचकर कहीं और चले गए थे. सोंठपुर से लेकर पगले नाले के ढाल तक की सारी पहाड़ी फिलहाल मक्खन सेठ की थी. बस पानी के तालाब के बगल वाली पांच बीघा जमीन रह गई थी जिस पर धोबी का काम करने वाले कल्लू नाम के बूढ़े का परिवार काबिज़ था. कल्लू ने उससे कभी एक रुपया भी उधार नहीं लिया था.
कल्लू के पास अपनी ज़मीन के पक्के कागज़ थे. मक्खन सेठ के कारिंदे तालाब से पानी लेने जाते तो वह उन्हें गालियाँ बकता और उन पर अपने कुत्ते छोड़ देता. संक्षेप में कल्लू धोबी ने मक्खन सेठ को दिक कर रखा था और बावजूद अपनी ऊंची सरकारी पहुँच के वह उसका एक बाल तक टेढ़ा नहीं कर सका था.
मक्खन सेठ ने घड़ों में भर-भर सोने-चांदी के बर्तन और आभूषण जमा कर रखे थे. ये भी उसके उन्हीं गरीब देनदारों ने गिरवी रखाए हुए हुए थे जिनके वापस सोंठपुर आने की कोई संभावना न थी. आढ़त के काम से हर शाम एक-आध कट्टा भर नोट और सिक्के आते थे.
सबसे नज़दीकी बैंक सत्तर मील देहरादून में था और मक्खन को मुल्क की बैंकिंग व्यवस्था पर कोई यकीन न था. नतीजतन एक पूरा कमरा फर्श से लेकर छत तक रूपये-पैसों से अट गया था.
सुल्ताना की चिठ्ठी से मक्खन सेठ की हवा संट थी लेकिन वह अपनी मेहनत की कमाई ऐसे ही कैसे किसी डाकू को ले जाने देता! उसके मन में एक योजना थी जिसके लिए उसने अगली सुबह साल के पेड़ मंगवाए थे. अमावस आने में छः दिन बाकी थे.
ऊंची दीवारों से घिरे फ़ार्महाउस में घुसने के लिए एक ही मुख्य प्रवेशद्वार था. उस खासे चौड़े गेट को बंद कर देने से सुल्ताना तो क्या किसी मक्खी तक का भीतर घुसना मुमकिन न था.
प्रवेशद्वार को साल के तीन-तीन फुट चौड़े तनों से ढंकने-बंद करने में तीन दिन लगे. इसके बावजूद इस बीच उसने अपने आठ-दस अफसर दोस्तों से भी मदद मांगने की कोशिश जरूर की लेकिन सुल्ताना का नाम सुनते ही उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए.
अमावस की रात सुल्ताना आया और खूब आया. मक्खन सेठ भूल गया था कि सुल्ताना का गिरोह सेंध लगाने का वर्ल्ड चैम्पियन था. दो ढाई घंटे की मशक्कत के बाद उसके जांबाज साथियों ने फ़ार्महाउस की दीवार की नींव के नीचे इतना बड़ा गड्ढा खोद डाला कि उसमें से आदमी ही नहीं एक बार में दो घोड़े आर-पार हो सकते थे.
सुल्ताना को गेट बंद करने की सेठ की हरकत नागवार गुज़री लिहाज़ा उसने लूट से पहले सारे नौकरों के सामने उसकी बढ़िया ठुकाई की. देवी की पूजा उसके बाद हुई.
मक्खन सेठ के घर इतनी दौलत निकलने का सुल्ताना को अंदाज न था. जब उसके लाये सारे थैले और चादरें भर गए, उसने सेठ के बारदाना गोदाम से निकाले गए जूट के दो दर्ज़न कट्टों में माल भरा. मुश्किल यह आन पड़ी कि उतना माल लेकर जाया कैसे जाय! गिरोह के पास नौ घोड़े थे जिन पर हद से हद अठारह कट्टे लादे जा सकते थे.
सुल्ताना के पास इलाके की हर तरह की खुफिया जानकारी थी. उसने अपने दो साथियों से कहा कि नीचे तालाब के पास जाकर कल्लू धोबी के तीन गधों को नकद रकम देकर खरीद लाएं. यह भी हिदायत दी गयी कि कल्लू सौ रुपये मांगे तो उसे पांच सौ दिए जाएं. सुल्ताना उसूलन कभी किसी गरीब को तंग नहीं करता था. कल्लू के गधे ले आये गए.
पौ फटने में आधा-पौन घंटा बचा था जब सुल्ताना सारा माल लाद कर सेंध के रास्ते बाहर निकला.
पहाड़ों का घुमावदार रास्ता था. आधे रास्ते में यूं हुआ कि सबसे पीछे आ रहा एक बूढ़ा गधा झुण्ड से बिछड़ गया और वापस अपने मालिक के पास पहुंच गया.
कभी सोंठपुर का इत्तफाक हो तो के. डी. एस्टेट देखने जरूर जाएं. एस्टेट की सीमा के बाहर मुख्य सड़क पर किराने की दुकान है. एम. एस. एंड सन्स यानी मक्खन सेठ के पुत्रों द्वारा अस्सी साल पहले स्थापित की गई इस बड़ी दुकान में बैठे रहने वाले खब्ती बूढ़े से कभी एस्टेट का रास्ता न पूछें. एस्टेट उसके ठीक सामने है.
भीतर घुसते ही गधे की एक प्रस्तर-प्रतिमा दिखाई देगी जिस पर हर रोज़ फूल चढ़ाए जाते हैं.
अब के. डी का फुल फॉर्म न किसी से पूछने लगियो.
(लेखिका चेतना विकास मिशन की संयोजिका हैं.)