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कानों-कान !

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चंद्रशेखर शर्मा

अपना शहर बहुत बातूनी है। कहें तो बातूनी और जीवंत ठियों का शहर। कोई ऐसा मुद्दा नहीं होता जिसकी यहां चर्चा और चीरफाड़ नहीं होती। शहर में घूमते हुए पत्रकारीय खसलत के चलते ऐसी कई बातें अपने कानों पर चिपक जाती हैं और कई बार चौंकाती भी हैं ! विचार किया है कि गाहे-बगाहे ऐसी बातें यहां आपके साथ साझा हों। तो चलिए कानों-कान के नाम से इसे शुरू करते हैं।

ऐसी पहली बात जो अपने कानों में पड़ी, वो यह है कि सीहोर वाले पण्डित प्रदीप मिश्रा इंदौर में जो शिवपुराण की कथा कर रहे हैं उसके लिए उन्होंने काफी मोटी रकम ली है ! कहते हैं कि पिछले दिनों उन्होंने कहीं और 25 पेटी (लाख) में कथा की थी और पता चला वहां चढ़ावा ही सात सीआर (करोड़) से ज्यादा का आ गया था। इसके बाद ही पण्डितजी ने ‘दक्षिणा’ कई गुना बढ़ा दी है। इंदौर में तो सावन में कथा हो रही है और चढ़ावे में अपनी न कोई रुचि है और न अंदाजा। हां, चौंकाने वाली बात यह है कि इस कथा को शहर के अनेक अग्रणी समाचार पत्रों में अपेक्षित कवरेज नहीं मिल रहा। सुनते हैं कि धार्मिक कार्यक्रमों के प्रेस नोट बनाने में अब अनेक अधकचरे लोग घुस आए हैं !

दूसरी बात यह कि शहर के कलेक्टर कार्यालय में ऊपर से भले सब कुछ चाक-चौबंद और ठीक नजर आए लेकिन भीतरखाने तमाम अमला गहरे तनाव में दिन काटने को मजबूर है ! जी हां, उन्हें अपनी गर्दन पर हर समय धागे से लटकी नंगी तलवार नजर आती है कि ठीक काम करने के बावजूद पता नहीं कब उनके कानों में कड़वे और असहनीय शब्दों का शीशा घोल दिया जाए और उनका आत्म सम्मान तार-तार मिले। आफत यह भी है कि अनेक अनुभवी लोग रिटायर हो चुके हैं और नयी भर्ती के कहीं कोई ठिकाने नहीं। जाहिर है कई लोग तो दो-दो, तीन-तीन लोगों का काम अकेले कर रहे हैं। ज्यादा काम से भी उन्हें गुरेज नहीं अलबत्ता कहते ही हैं कि एक बार तलवार का घाव भर जाए, पर शब्दों के जख्मों का कोई इलाज नहीं। शहर के और जिले के सबसे प्रमुख इस संकुल में यह संताप क्यों पसरा मिलता है, यह तो आप समझ ही गए होंगे !

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