अग्नि आलोक
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*हलाल या झटका– तेरा क्या होगा रे जनतंत्र!*

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*राजेंद्र शर्मा के तीन व्यंग्य*

*1. हलाल या झटका– तेरा क्या होगा रे जनतंत्र!* 

वैसे ये भी अच्छा ही है कि मोदी जी जोर का झटका धीरे से लगाने में विश्वास करते हैं। वन नेशन, वन इलेक्शन का ही देख लीजिए। मोदी जी चाहते तो एक ही झटके में वन नेशन नो इलेक्शन कर सकते थे। कर सकते थे कि नहीं कर सकते थे! था कोई उनका हाथ पकड़ने वाला। संसद में अच्छा-खासा बहुमत है। राष्ट्रपति, मोदी जी जहां कहें, वहीं मोहर लगाने को तैयार हैं। न्यायपालिका बटुए में न सही, जेब में तो जरूर है। विरोध करने वालों के मुंह बंद कराने के लिए ईडी से लेकर सीबीआई, एनआईए तक और नये राजद्रोह कानून से लेकर यूएपीए तक, सारे पुख्ता इंतजामात हैं। मीडिया, गोदी में सवार है। और क्या चाहिए था। 

मगर नहीं किया। एक झटके में वन नेशन मैनी इलेक्शन से वन नेशन नो इलेक्शन नहीं किया। सिर्फ मैनी इलेक्शन से वन इलेक्शन किया; जिससे झटका भले जोर का हो, पर धीरे से लगे। 

इसका मतलब यह नहीं है कि मोदी जी के न्यू इंडिया की प्रगति एक इलेक्शन पर ही रुक जाएगी। आएगा, वन नेशन नो इलेक्शन का भी नंबर आएगा। राम जी ने चाहा, तो जल्द ही आएगा। पर तब तक वन नेशन में वन इलेक्शन। पहले ही कहा, मोदी जी जोर का झटका धीरे से लगाने में विश्वास करते हैं।

वैसे ऐसा भी नहीं है कि मोदी जी हमेशा झटका, धीमे से लगाने में ही विश्वास करते हों। तब तो हलाल का मामला हो जाता और मोदी जी को मुसलमानों के साथ अपना नाम जोड़ा जाना जरा भी पसंद नहीं है। आखिर, मोदी जी के राज में हलाल के सबसे बड़े विरोधी तो उग्र शाकाहारी हिंदू ही हैं। उनकी भावनाओं का आदर तो मोदी जी को भी करना ही पड़ता है। यानी मोदी जी झटके की तरह झटका करना भी बखूबी जानते हैं, हालांकि वह खुद शुद्ध से भी शुद्ध शाकाहारी हैं। 

2002 में गुजरात में क्या हुआ था, भूल गए क्या ? गोधरा में रेल के डिब्बे में आग लगने के बाद, हफ़्तों पूरे गुजरात में हुआ था, उसे हलाल तो किसी भी तरह से नहीं कह सकते हैं। या नोटबंदी में जो हुआ था, उसे? था तो वह भी झटके का ही मामला। एक ही झटके में लोगों को बैंकों की लंबी-लंबी लाइनों में लगा दिया था। और कोरोना काल में भी लॉकडाउन किसी झटके से कम नहीं था। लाखों मजदूरों को पांव-पांव अपने गांव लौटने के लिए, बड़े-छोटे तमाम शहरों से बाहर धकेल दिया गया। रास्ते में पुलिस के डंडे खाए, सो ऊपर से। और तो और, रफाल मामले तक में मोदी जी ने सालों में हुए खरीद के समझौते का झटका कर दिया और छोटे अंबानी के पुंछल्ले वाला, अपना नया सौदा आगे कर दिया।

लेकिन, इस सब का मतलब यह भी नहीं है कि मोदी जी की ज्यादा प्रैक्टिस झटका करने की ही है; कि वन नेशन वन इलेक्शन के मामले में पहली ही बार वह इसका ख्याल रख रहे हैं कि जोर का झटका धीमे से लगे। मोदी जी ने साथ चलाते-चलाते शिव सेना के साथ क्या किया था? अकाली दल के साथ भी। और तेलुगू देशम के साथ। बीजू जनता दल के साथ। अजित सिंह के लोक दल के साथ। और तो और नीतीश बाबू के जदयू के साथ भी। 

हलाल अगर मुसलमानों के साथ चिपकने की वजह से वर्जित नहीं हो गया होता, तो मोदी जी हलाल के भी मास्टर कहलाते। और हलाल का सलूक सिर्फ साथ चलने वाली राजनीतिक पार्टियों तक ही सीमित नहीं था। कश्मीर के मामले में तो मोदी जी ने एक के बाद एक, हलाल और झटका, दोनों ही आजमा डाले। पहले, महबूबा के साथ सरकार में बैठकर उसी डाल पर धीरे-धीरे आरी चलाते रहे, जिस पर बैठे थे। और जब डाल करीब-करीब कट गयी तो, एकदम से डाल से नीचे कूद गए। और गेयर बदलकर डाल को झटके से हलाल कर दिया। फिर भी हो सकता है, मोदी जी का झटके का ही स्कोर ज्यादा बैठे। मध्य प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तराखंड आदि में विरोधी सरकारों के विधायक खरीद-खरीद के जो झटका किया है, उसे भी तो हिसाब में लेना पड़ेगा।

सच्ची बात तो यह है कि मोदी जी ने इस मामले में विपक्ष वालों को पूरी तरह से कंफ्यूज कर के रखा हुआ है। बेचारे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि मोदी जी देश के संविधान के साथ जो कर रहे हैं, उसे हलाल कहेंगे कि झटका। उन्हें कभी लगता है कि संविधान को हलाल किया जा रहा है और कभी लगता है कि झटका किया जा रहा है। अलबत्ता वन नेशन नो इलेक्शन हो जाता, तो फिर भी विपक्ष वालों को कम से कम कुछ क्लेरिटी तो मिल जाती कि संसदीय जनतंत्र का झटका हो रहा है। लेकिन, उसमें भी मोदी जी ने मामला वन इलेक्शन पर अटका दिया। अब इसे संसदीय जनतंत्र का झटका होना, कहें भी तो कैसे कहें? अब तक कई चुनाव थे, अब एक चुनाव है; फिर भी चुनाव तो है! इसे जनतंत्र का झटका होना कहें भी तो कैसे?

तो क्या जनतंत्र का गला अब भी धीरे-धीरे ही रेता जाएगा—हलाल! हलाल की तोहमत लगवाना मोदी जी को हर्गिज मंजूर नहीं होगा। तभी तो वन इलेक्शन में, मोदी जी ने एक तत्व झटके का भी रखा है। वन नेशन की तुक वन इलेक्शन से बखूबी मिलती तो है, पर वन इलेक्शन में ज्यादा जोर वन पर ही है, इलेक्शन पर नहीं। बेशक, वन इलेक्शन की इजाजत तो होगी, पर यह वन इलेक्शन बार-बार यानी मिसाल के तौर पर हर पांच साल पर हो ही, इसकी कोई गारंटी नहीं है। एक देश है, एक चुनाव है, एक सरकार है, बस। देश क्या हर पांच साल पर बदलता है? नहीं ना। तब हर पांच साल पर सरकार के लिए ही चुनाव कराए जाने की क्या जरूरत है? एक बार चुनाव हो गया, तो हो गया। एक बार सरकार चुन गयी, तो चुन गयी। यानी वन नेशन वन इलेक्शन वह पुल है, जिस से गुजर कर वन नेशन, नो इलेक्शन तक पहुंचा जाना है। यह वह पुल है, जिसके एक ओर संविधान का हलाल किया जाना है और दूसरी ओर झटका। यह पुल, हलाल और झटके को जोड़ने वाला पुल है। यह पुल, संविधान, जनतंत्र, सब को बीच से तोड़ने वाला पुल है। यह पुल इसकी गारंटी का पुल है कि आज अगर संविधान को धीरे-धीरे खोखला किया जा रहा है, तो कल उसे झटके से तोड़ भी दिया जाएगा। हां! अगर पब्लिक ही मोदी जी का खेल बिगाड़ने पर उतर आए, तो बात दूसरी होगी।   

**********

*2. इट इज बहुतै डिफरेंट!*

ये लो कर लो बात। मोदी जी की पार्टी और उनकी सरकार ने बांग्लादेश के हिंदुओं के दु:ख-दर्द की जरा सी सुध क्या ले ली, इन सेकुलर वालों के पेट में दर्द शुरू हो गया। बांग्लादेश पड़ौसी सही, पर ये मामला तो अंतर्राष्ट्रीय हुआ। पर पट्ठों ने उसमें भी हिंदुस्तान को घुसा दिया ; जबकि बात-बेबात हरेक चीज में भारत को घुसाने के लिए, बेचारे संघी बेकार में बदनाम हैं। कह रहे हैं कि बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों की सुध ली, बड़ा अच्छा किया, पर अपने देश के अल्पसंख्यकों की सुध कब लीजिएगा, हुजूर! बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों से मोहब्बत, अपने देश के अल्पसंख्यकों को दुत्कार, यह तो अन्याय है सरकार!

मोदी जी की पार्टी वाले गलत नहीं कहते हैं — ये सेकुलर वाले मुसलमानों से मोहब्बत करते हों या नहीं करते हों, पर हिंदुओं से नफरत जरूर करते हैं। तभी तो उन मोदी जी के हरेक काम में नुक्स निकालते हैं, जो हिंदुओं को बचाने में जुटे हुए हैं, हिंदुस्तान तो हिंदुस्तान, दूसरे देशों में भी। और मोदी पार्टी यह भी झूठ नहीं कहती है कि हिंदू खतरे में हैं ; सिर्फ हिंदुस्तान में ही नहीं बांग्लादेश वगैरह में भी। सच पूछिए तो हिंदुओं के खतरे में होने को, मोदी-योगी आदि के राज से जोडऩा भी सरासर ज्यादती है। वर्ना बांग्लादेश में तो मोदी जी-योगी जी का राज नहीं है, वहां हिंदू खतरे में कैसे हैं? हिंदुओं के खतरे में होने का कारण है, जॉर्ज सोरेस। जॉर्ज सोरेस है, तो अडानी खतरे में है। अडानी खतरे में है, तो मोदी जी खतरे में हैं। मोदी जी खतरे में हैं, तो हिंदू खतरे में है। हिंदू खतरे में है, हिंदुस्तान तो हिंदुस्तान, बांग्लादेश में भी।

और हां, कम से कम हिंदुओं को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि बांग्लादेश में तो हिंदू अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहे हैं, पर भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर कोई अत्याचार-वत्याचार नहीं हो रहे हैं। माना कि यहां-वहां लिंचिंग हो रही है, मस्जिदों-मजारों को खोदा जा रहा है, घरों पर बुलडोजर वगैरह चल रहे हैं, खास कानून वगैरह बन रहे हैं, पर अत्याचार…कभी नहीं। हिंदुओं के शब्दकोष में अत्याचार का तो शब्द ही नहीं है। हिंदुस्तान में हिंदू जो कर रहे हैं, डिफरेंट है। बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ जो हो रहा है, डिफरेंट है। यहां मुसलमान, वहां हिंदू; इट इज बहुतै डिफरेंट!

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*3. जरा गहरा खोदो भाई*

ऊपर वाले का और सिर्फ लखनऊ वाले ही नहीं, दिल्ली वाले ऊपर वाले का भी लाख-लाख शुक्र है कि संभल में खुदाई चल रही है। बल्कि खुदाई से ज्यादा ढुंढाई चल रही है। आखिर, कुछ तो मिलना चाहिए। अब बेचारे लखनऊ और दिल्ली के ऊपर वाले भी क्या करें? खुदाई-वुदाई पर तो सुप्रीम कोर्ट ने कम-से-कम अभी तो रोक लगा दी है। खुदाई छोड़िए, सुप्रीम कोर्ट वालों ने तो सर्वे तक पर रोक लगा दी है। और सिर्फ संभल में ही नहीं, बाकी हर जगह भी सर्वे तक के आदेशों पर तब तक के लिए रोक लगा दी है, जब तक बड़ी अदालत का अगला आदेश नहीं आ जाता है। सच पूछिए, तो शुरू-शुरू में तो संभल का प्रशासन भी इस फरमान से कुछ हैरान-परेशान सा हो गया। शाही मस्जिद तो मस्जिद, उसके आस-पास के इलाके में भी, योगीशाही हाथ-पांव समेट कर बैठ गयी। पर ज्यादा-से-ज्यादा दो दिन। तीसरे दिन तो बुलडोजर बाबा के बुलडोजरों ने बाकायदा मोर्चा संभाल ही लिया।

अब सुप्रीम कोर्ट के ही एक और फैसले को धता बताते हुए, जमीन से ऊपर दुकानों, मकानों वगैरह पर बुलडोजरी खुदाई शुरू हो गयी। न्याय की देवी की आंखों की पट्टी पहले ही खुल चुकी थी, सो बिना किसी मुश्किल से कपड़ों से पहचान-पहचान कर, मुसलमानों के दुकानों, मकानों पर, जमीन के ऊपर वाली बुलडोजरी खुदाई हुई। और जब बुलडोजर ही मैदान में आ गया, फिर बाकी सरकारी अमला पीछे कैसे रह जाता? जिलाधिकारी की लीडरशिप में शाही मस्जिद के इर्द-गिर्द के इलाके में अतिक्रमणों की खुदाई शुरू हो गयी। इससे मन नहीं भरा, तो मस्जिदों वगैरह पर लाउडस्पीकरों की तलाशी शुरू हो गयी। उससे भी संतोष नहीं हुआ, तो बिजली चोरी की ढुंढाई शुरू हो गयी। आखिरकार, यह गहरी खोज सफल हुई। इस इलाके में भी जमीन के ऊपर खुदाई में एक मंदिर निकल आया, वर्षों से बंद पड़ा मंदिर। रहीम दास जी इसलिए तो सैकड़ों साल पहले कह गए थे — जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ। कहीं भी गहरा खोदोगे, मंदिर मिल ही जाएगा!

जब मस्जिद की बगल में मंदिर मिल गया है, तो क्या मस्जिद के अंदर मंदिर नहीं मिल जाएगा? बस जरा तबियत से खुदाई हो जाए। खैर, जब तक मस्जिद के अंदर मंदिर खोदकर नहीं निकाल लिया जाता है, तब तक मस्जिद की बगल वाला मंदिर सही। इस मंदिर की बस एक ही प्राब्लम है। न उसे किसी ने तोड़ा है, न कोई मंदिर को मस्जिद या मजार जैसा कुछ भी बताता है। मंदिर बस मंदिर है, बंद पड़ा मंदिर। यानी न कोई स्टोरी और न कोई विवाद। ऐसा मंदिर किसी के किस काम का? पर व्हाट्सएप इतिहास में इस मंदिर की भी एक स्टोरी है। मंदिर मुसलमानों के इलाके में है और दसियों साल से बंद पड़ा है ; यानी यह जरूर एक हिंदू मंदिर पर मुसलमानों के जबरन कब्जा करने का मामला है। अभी मंदिर पर ताला लगवाया है, एक दिन वहां मस्जिद या दरगाह भी बना देंगे। वह तो योगी जी का डर है, वर्ना कभी की शाही मस्जिद की बगल में, एक नन्ही सी मस्जिद बन गयी होती। बस इस स्टोरी में एक ही समस्या है। मंदिर जिनकी मिल्कियत का हिस्सा है, वे हिंदू खुद कह रहे हैं कि मंदिर पर ताला उनके परिवार वालों ने लगाया था। करते भी तो क्या करते, मंदिर को चलाने के लिए पुजारी मिलता नहीं है और घर वाला कोई अब वहां रहता नहीं है! पर इस समस्या का समाधान भी निकलेगा। मंदिर की मिल्कियत वालों का बयान भी बदलेगा। बस खुदाई जारी रहे। जरा गहरा खोदो भाई! 

*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)*

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