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इतिहास टीपूसुल्तान…..टीपू सुल्तान का सच

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 प्रो. बिशम्भर नाथ पाण्डेय
( मुग़ल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु (1707) होते ही अंग्रेजों ने जब भारत को ग़ुलाम बनाने की शुरुआत की तो अगले 50 सबसे महत्वपूर्ण वर्षों में ईस्ट इंडिया कंपनी के नापाक इरादों को न तो पेशवाओं ने समझा, न राजस्थान के राजपूत राजाओं ने..उस समय की सबसे मजबूत ताकत पेशवाओं ने तो अंग्रेजों के सामने एक तरह से सिर झुका लिया था..चूंकि अंग्रेज, हिन्दू समाज को बरगलाने में सफल रहे कि वो उनके उद्धारक हैं और मुग़ल सत्ता से उनका उद्धार करने आये हैं..इसलिए अगले सौ साल के दौरान किसी हिन्दू राजा ने अंग्रेजों का प्रतिरोध नहीं किया..अंग्रजों को देश से भगाने का संकल्प लिया तो मैसूर के शासक  हैदर अली और उनके बेटे टीपू सुलतान ने..तब उनका साथ न तो पेशवाओं ने दिया और न हैदराबाद के निज़ाम ने..उसी देश भक्त टीपू सुल्तान के बारे में अंग्रेजों के देसी ग़ुलाम भ्रामक प्रचार करते रहते हैं..और आज तो इस महान देशभक्त के खिलाफ विष उड़ेलने की प्रतियोगिता चल रही हो जैसे)
‘तीन हज़ार ब्राहमणों ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि टीपू उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था।’’ इतिहास के साथ यह अन्याय!!  ओडिसा के पूर्व राज्यपाल एवं इतिहासकार, राज्यसभा के सदस्य और इतिहासकार प्रो. विश्म्भरनाथ पाण्डेय ने अपने अभिभाषण और लेखन में उन ऐतिहासिक तथ्यों और वृतांतों को उजागर किया है, जिनसे भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि हमारे इतिहास को मनमाने ढंग से तोड़ा मरोड़ा गया है…
वो कहते हैं–मैं कुछ ऐसे उदाहरण पेश करता हूं, जिनसे यह स्पष्ट हो जायेगा कि ऐतिहासिक तथ्यों को कैसे विकृत किया जाता है..जब में इलाहाबाद में 1928 ई. में टीपू  सुलतान के सम्बन्ध में रिसर्च कर रहा था तो ऐंग्लो-बंगाली कालेज के छात्र-संगठन के कुछ पदाधिकारी मेरे पास आए और अपने ‘हिस्ट्री-ऐसोसिएशन‘ का उद्घाटन करने के लिए मुझको आमंत्रित किया.. उनके हाथों में कोर्स की किताबें थीं..मेरी निगाह उनकी इतिहास की किताब पर पड़ी… मैंने टीपू सुलतान से संबंधित अध्याय खोला तो मुझे जिस वाक्य ने बहुत ज्यादा आश्चर्य में डाल दिया, वह यह था–तीन हज़ार ब्राहमणों ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि टीपू उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था।’’
इस पाठ्य-पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय डा. शास्त्री थे, जो कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे..मैंने तुरन्त डा. शास्त्री को लिखा कि उन्होंने टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में यह बात किस आधार पर और किसके हवाले से लिखी है। कई पत्र लिखने के बाद उनका जवाब मिला कि उन्होंने यह घटना मैसूर गज़ेटियर से उद्धृत की है। तो मुझे वो मैसूर गज़ेटियर न तो इलाहाबाद में और न इम्पीरियल लाइब्रेरी, कलकत्ता में प्राप्त हो सका..तब मैंने मैसूर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर बृजेन्द्र नाथ सील को लिखा कि डा. शास्त्री ने जो बात कही है, उसके बारे में जानकारी दें.. उन्होंने मेरा पत्र प्रोफेसर डॉ. कन्टइया के पास भेज दिया, जो उस समय मैसूर गजे़टियर का नया संस्करण तैयार कर रहे थे..
प्रोफेसर कन्टइया ने मुझे लिखा कि तीन हज़ार ब्राह्मणों की आत्महत्या की घटना ‘मैसूर गज़ेटियर’ में कहीं भी नहीं है और मैसूर के इतिहास के एक विद्यार्थी की हैसियत से उन्हें इस बात का पूरा यक़ीन है कि इस प्रकार की कोई घटना घटी ही नहीं है। उन्होंने मुझे सूचित किया कि टीपू सुल्तान के प्रधानमंत्री पुनैया ब्राह्मण थे और उनके सेनापति कृष्णाराव भी ब्राह्मण थे। उन्होंने मुझको ऐसे 156 मंदिरों की सूची भी भेजी जिन्हें टीपू सुल्तान वार्षिक अनुदान दिया करते थे। उन्होंने टीपू सुल्तान के तीस पत्रों की फोटो कापियां भी भेजीं, जो उन्होंने श्रृंगेरी मठ के जगदगुरु शंकराचार्य को लिखे थे और जिनके साथ सुल्तान के अति घनिष्ठ सम्बन्ध थे..
मैसूर के राजाओं की परम्परा के अनुसार टीपू सुल्तान प्रतिदिन सुबह रंगनाथ जी के मंदिर में जाते थे, जो श्रींरंगपट्टम के किले में था.. प्रोफेसर कन्टइया के विचार में डा. शास्त्री ने यह घटना कर्नल माइल्स की किताब ‘हिस्ट्री आफ मैसूर‘  से ली होगी.. इसके लेखक का दावा था कि उसने अपनी किताब ‘टीपू सुल्तान का इतिहास‘ एक प्राचीन फ़ारसी पांडुलिपि से अनुदित किया है, जो महारानी विक्टोरिया की निजी लाइब्रेरी में है.. खोज-बीन से मालूम हुआ कि महारानी की लाइब्रेरी में ऐसी कोई पांडुलिपि थी ही नहीं और कर्नल माइल्स की किताब की बहुत-सी बातें बिल्कुल ग़लत एवं मनगढंत हैं..
डा. शास्त्री की किताब पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, ओडिसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में पाठ्यक्रम के लिये स्वीकृत थी.. मैंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर आशुतोष चौधरी को पत्र लिखा और इस सिलसिले में अपने सारे पत्र-व्यवहारों की नकलें भेजीं और उनसे निवेदन किया कि इतिहास को इस पाठ्य-पुस्तक में टीपू सुल्तान से सम्बन्धित जो गलत और भ्रामक वाक्य आए हैं, उन पर समुचित कार्रवाई की जाए.. सर आशुतोष चौधरी का शीघ्र ही जवाब आ गया कि डा. शास्त्री की उक्त पुस्तक को पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है..परन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आत्महत्या की वही घटना 1972 ई. में भी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाईस्कूल की कक्षाओं में इतिहास के पाठ्यक्रम की किताबों में उसी प्रकार मौजूद थी..
इस सिलसिले में महात्मा गांधी की वह टिप्पणी भी पठनीय है, जो उन्होंने अपने अखबार ‘यंग इंडिया‘ में 23 जनवरी 1930 के अंक में पृष्ठ 31 पर की थी.. उन्होंने लिखा था कि टीपू सुल्तान को विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया है कि मानो वह धर्मान्धता का शिकार था.. इन इतिहासकारों ने लिखा है कि उसने अपनी हिन्दू प्रजा पर जुल्म ढाए और उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाया, जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत थी.. हिन्दू प्रजा के साथ उसके बहुत अच्छे सम्बनध थे। …… मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) के पुरातत्व विभाग (Archaeology Department) के पास ऐसे तीस पत्र हैं, जो टीपू सुल्तान ने श्रृंगेरी मठ के जगदगुरु शंकराचार्य को 1793 में लिखे थे.. इनमें से एक पत्र में टीपू सुल्तान ने शंकराचार्य के पत्र की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उनसे निवेदन किया है कि वे उसकी और सारी दुनिया की भलाई, कल्याण और खुशहाली के लिए तपस्या और प्रार्थना करें.. अन्त में उसने शंकराचार्य से यह भी निवेदन किया है कि वे मैसूर लौट आएं, क्योंकि किसी देश में अच्छे लोगों के रहने से वर्षा होती है, फसल अच्छी होती हैं और खुशहाली आती हैं।’’
यह पत्र भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है। 
‘यंग इण्डिया में आगे कहा गया है-टीपू सुल्तान ने हिन्दू मन्दिरों विशेष रूप से श्री वेंकटरमण, श्री निवास और श्रीरंगनाथ मन्दिरों को ज़मीनें एवं अन्य वस्तुओं के रूप में बहुमूल्य उपहार दिए.. कुछ मन्दिर उसके महलों के अहाते में थे..यह उसके खुले जहन, उदारता एवं सहिष्णुता का जीता-जागता प्रमाण है..
इससे यह वास्तविकता उजागर होती है कि टीपू एक महान शहीद था, जो किसी भी दृष्टि से आजादी की राह का हकीकी शहीद माना जाएगा.. उसे अपनी इबादत में हिन्दू मन्दिरों की घंटियों की आवाज़ से कोई परेशानी महसूस नहीं होती थी.. टीपू ने आजादी के लिए लड़ते हुए जान दे दी और दुश्मन की लाश उन अज्ञात फौजियों की लाशों में पाई गई तो देखा गया कि मौत के बाद भी उसके हाथ में तलवार थी- वह तलवार जो आजादी हासिल करने का ज़रिया थी..
उसके ये ऐतिहासिक शब्द आज भी याद रखने के योग्य हैं : ‘शेर की एक दिन की ज़िंदगी लोमड़ी के सौ सालों की ज़िन्दगी से बेहतर है।‘ उसकी शान में कही गई एक कविता की वे पंक्तियां भी याद रखे जाने योग्य हैं, जिनमें कहा गया है कि ‘खुदाया, जंग के ख़ून बरसाते बादलों के नीचे मर जाना, लज्जा और बदनामी की जिंदगी जीने से बेहतर है।
( साभार राजीव मित्तल )#vss

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