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जान निकालता नहीं, डालता है इश्क़

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सुधा सिंह

नहीं मिली चहक-बहक मिलने पर तो,
लगी नज़र उनको हमने,नज़र मिला उतार ली।

तेरा पता मेरा दिल है, मेरा पता तेरा दिल है,
कोई आ सके दिल में तेरे तो मुझ से मिलना हो।

मैंने हम दोनों को ख्याल में मिलाके देखा,
वज़ूद के परे मिलन को,लेजा के देखा,
सकूं के सागर में अपनी पहचान को खो के देखा,
इश्क़-ऐ-हकीकी-रब को,रूह-ब-रूह होते देखा।

रात को दिन का सुबह को शाम का नहीं इंतज़ार,
खुशबु की बदबू खुद ब खुद फैल ही जाती,
जिंदगी भी वक्त की मुन्तज़िर नहीं,
जिस कली को खिलना है वो खिल ही जाती।

कई जनम लगे खुद से मिलने में,
मिलेतो ये पता चला,’मैं’ जैसा तो कुछ नहीं।

वज़ूद की जरुरत से,सब कुछ बदल रहा,
यह भी वह भी मैं भी तू भी,हर पल बदल रहा।

दिखती रोशनी सब को,चाहत सभी की रोशनी,
मुरीद आफताब का,कोई कोई ही मिलता।
चाँदनी से राब्ता,हर कोई रखता,
मुरीद चाँद का लेकिन,कोई कोई ही मिलता।

दिल में जो भर रखा वही,काम आयेगा,
हो सके तो दिल में,रब को बिठा रखिये।

होश में रहूँ तब तक,सोहबत में रहने दे,
फिर कौन पड़े रहने देता,लेजा कर दफना देते।

इश्क़ सोने के हिरन सा,माँगने से कब मिला,
जब जब हुई कोशिश कोई रावण बीच में आ गया।

इश्क़ की समझ मिली,अल्लाह की अमानत,
रख संभाल के,नहीं इसकी कोई ज़मानत।
मिलना-बिछुड़ना भी तो,अल्लाह की मर्ज़ी से ही,
शुक्रिया अदा कर, मत कर कोई खयानत।

अधूरा इंसान अधूरी बातें,पूरे को तो क्या चाहिये,
पूरी मोहब्बत को,अधूरापन कभी नहीं बचता।

तकलीफ गुस्से के पीछे,को भी समझियेगा,
तकलीफ में इंसान पे बस प्रेम ही बरसाइये।

योग और वियोग से परे मोहब्बत आशिक़ी,
दिल की दुनिया में वक्त जैसी चीज ही नहीं।

उसूल-ऐ-किताब-ऐ-इश्क़ दिल,में झांक करके देख,
माशूक दिल में ही मिलेतो समझो आशिक़ी।

आलम -ऐ-आशिक़ी खसूसियत फिरदोस की,
वक्त-ओ-दूरी के, मायने से तो दुनियादारी।

तबीयत को इंसान की,परिंदे भी समझते,
इंसान धोखा खाता और धोखा भी देता।

जो डूबा सो पार उलट-बांसी इश्क़ की,
हकीकत-ऐ-इश्क़ तो,सर देकर ही मिलती।

खिलावट जो कुदरत में है,मोहब्बत से,
उल्फत के रंगों से,प्यार के असबाब से।

सूखे को क्या हुआ,गीले को क्या हुआ,
इक डोलता डाली पर,दूजा बदन को ढ़ो रहा।
इक बंधा बंधा जी रहा,आज़ाद दूसरा फिर रहा,
पर बोध नहीं दोनों को की,वज़ूद है हो रहा।
इश्क़ को मज़बूरी मत कहियेगा,
मुर्दों में भी जान डाल देता है इश्क़।

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