अक्षय शुक्ला
अखबार में अगल-बगल छपी दो खबरें देश की दो अलग-अलग तस्वीरें पेश कर रही थीं। एक थी मुंबई में बढ़ते अमीरों की और दूसरी बेंगलुरू समेत दक्षिण भारत के राज्यों में गहराते जल संकट की। पहले बात करते हैं रईसों की बढ़ती संख्या की। हुरुन ग्लोबल रिच लिस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल भारत में 94 नए अरबपति बने। इसके बाद अब देश में अरबपतियों की संख्या 271 हो गई है। इन सबकी संपत्ति मिलाकर एक ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर है।
देश में सबसे अधिक अरबपति मुंबई में रहते हैं। यहां के 92 अरबपतियों में 26 तो मात्र एक साल के अंदर बढ़ गए। यहां अमीरों की संख्या में इतनी तेज़ी से इज़ाफा हुआ है कि मुंबई दुनिया में तीसरे और एशिया में पहले नंबर की बिलियनेयर्स कैपिटल बन गई है। इसने बीजिंग को भी पछाड़ दिया है, जहां दो साल पहले तक दुनिया के सबसे अधिक रईस बसते थे। अरबपतियों की राजधानी की लिस्ट में दिल्ली भी पहली बार टॉप टेन में आ गई है।
क्या विडंबना है कि एक तरफ देश में सुपर रिच बढ़ते जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ दक्षिण का एक बड़ा हिस्सा पानी के लिए तरस रहा है। खासकर बेंगलुरू, जो दो साल पहले बाढ़ में डूब गया था, अब सूखे की मार झेल रहा है। करीब डेढ़ करोड़ की आबादी वाले देश के आईटी हब में चार दशक का सबसे भीषण जल संकट छाया हुआ है। नलों में पानी नहीं आ रहा। बहुमंज़िला इमारतों में रहने वाले लोग टैंकरों से पानी भरकर ऊपर ले जा रहे हैं। प्रशासन ने लोगों से पानी के सीमित इस्तेमाल की अपील की है। ऐसा न करने वालों पर जुर्माना लगाया जा रहा है। मॉनसून में अभी दो महीने बाकी हैं। मार्च में ही यह हाल है तो अगले दो महीनों में हालत क्या हो जाएगी?
झीलों का शहर कहलाने वाले बेंगलुरू का आखिर यह हाल कैसे हो गया? दरअसल, 70 के दशक तक यहां ढाई सौ से अधिक छोटी-बड़ी झीलें थीं, जिनमें से अब सौ से भी कम बची हैं, वो भी बुरी स्थिति में। दुनिया की टॉप टेक कंपनियों और अल्ट्रा रिच का ठिकाना बन चुके इस शहर के बेतरतीब विस्तार से यहां के सैकड़ों जलाशय सूख चुके हैं, भूजल स्तर काफी नीचे चला गया है।
यह हाल सिर्फ बेंगलुरू का ही नहीं, दक्षिण भारत के कई शहरों का हो गया है। देश के डेढ़ सौ प्रमुख जलाशयों के स्टोरेज स्टेटस पर केंद्रीय जल आयोग का डेटा देखने पर पता चलता है कि दक्षिण भारत में जल स्तर दस साल के औसत से 29 फीसदी कम हो गया है। आंध्र प्रदेश के जलाशयों में तो दस साल के औसत से करीब 67 फीसदी कम पानी हो गया है।
कितने अचरज की बात है कि अत्याधुनिक तकनीक के इस दौर में भी देश का बड़ा हिस्सा पानी जैसी मूलभूत सुविधा के लिए तरस रहा है, जबकि जल संचय की इतनी समृद्ध विरासत हमें अपने पूर्वजों से मिली हुई है। चार-पांच सौ साल पहले, जब देश की आबादी पूरी तरह बरसात के पानी पर ही निर्भर थी, उस दौर में भी हम साल भर के पानी का इंतज़ाम कर लेते थे। राजस्थान, गुजरात जैसे भीषण गर्मी वाले सूखाग्रस्त इलाकों में बनीं हज़ारों बावड़ियां, कुएं और जलाशय इसके जीते जागते उदाहरण हैं।
आज इनमें से अधिकांश जलाशय सूख गए या प्रदूषित हो चुके हैं। इन पर अतिक्रमण कर ऊंची इमारतें खड़ी कर दी गई हैं। बचा भूजल, तो ज़मीन का सीना चीरकर उसे भी हमने निचोड़ लिया है। हमारे योजनाकारों ने भविष्य की यह कैसी प्लानिंग की है?
मतदान की तारीख नज़दीक ही है। लोकलुभावन वादे और विकास के दावे करने वाले नेता जल्द ही आपके दर पर दस्तक देने वाले हैं। जब ये वोट मांगने आएं तो इनसे ज़रूर पूछें कि आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी आम जनता पानी के लिए क्यों तरस रही है?