अग्नि आलोक
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पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है

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र तकी मीर

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है।
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है।।

जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है।।

आगे उस मुतकब्बिर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं।
कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर-ए-ख़ुद-आरा जाने है।।

जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है।।

चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं।
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने हैं।।

जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है।।

मेहर ओ वफ़ा ओ लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं।
और तो सब कुछ तंज़ ओ कनाया रम्ज़ ओ इशारा जाने है।।

जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है।।

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