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आरएसएस और भाजपा को चुनौती विचारहीनता से ग्रस्त राजनीति नहीं दे सकती

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कंवल भारती

कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की यह चेतावनी अकारण नहीं है कि 2024 का लोकसभा चुनाव भारतीय लोकतंत्र का अंतिम चुनाव हो सकता है। यह इसलिए भी लगता है कि वर्तमान चुनाव भारत के संसदीय इतिहास का पहला विपक्ष-मुक्त चुनाव है। हालांकि विपक्ष पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है, पर हकीकत में नाम मात्र का रह गया है, और जो है, वह प्रभावहीन है। इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया दिन भर ‘चार सौ पार’ का कार्यक्रम चला रहा है। इसका कारण है कि अधिकांश विपक्षी दलों के प्रमुख नेता या तो मोदी के आगे समर्पण कर चुके हैं, या जेल भेजे जा चुके हैं। यह भारत की राजनीति में पहली बार हुआ है, जब किसी सत्ताधीश ने फासीवाद की राह चुनी है।

यह फासीवाद अचानक नहीं आया, बल्कि इसे हिंदुत्व की राजनीति के साथ लाया गया है, ठीक उसी रास्ते से, जिस रास्ते से एडोल्फ हिटलर जर्मनी में नाज़ीवाद लेकर आया था। नाज़ीवाद का मूल अंग कट्टर जर्मन राष्ट्रवाद था, और यहूदियों के विरुद्ध सख्त नफ़रत पर खड़ा था। हिंदू फासीवाद का अंग भी राष्ट्रवाद है, और वह मुसलमानों के विरुद्ध सख्त नफ़रत पर खड़ा है। फासीवाद लाने के लिए पहले एक काल्पनिक दुश्मन तैयार किया जाता है, फिर उसी दुश्मन को देश की हर बुराई का दोषी प्रचारित किया जाता है। हिटलर ने अपना काल्पनिक दुश्मन यहूदियों को बनाया था। लेकिन हिंदू फासीवाद ने अपना काल्पनिक दुश्मन मुसलमानों को बनाया। फिर आरएसएस और भाजपा ने अपने पूरे तंत्र को मुसलमानों को दुश्मन प्रचारित करने के काम पर लगा दिया। इसके अंतर्गत भारत की प्रत्येक समस्या के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा। यहां तक कि दिल्ली में कोरोना फैलाने के दोषी भी मुसलमान ठहराए गए। देश की गरीबी और बेरोजगारी के पीछे भी मुसलमानों की आबादी को जिम्मेदार बताया गया, और छुआछूत को भी मुगलों की देन बताया गया। उनकी इबादतगाहों के नीचे हिंदू मंदिरों की खोज की जाने लगी और उसके लिए काल्पनिक कहानियां गढ़ी जाने लगीं, ताकि हिंदू उन्माद को फासीवाद के स्तर तक पहुंचाया जा सके। यही नहीं, सत्ता के संरक्षण में उनके नरसंहार से लेकर रेलों, बसों, सड़कों और बाज़ारों में उनकी मॉबलिंचिंग करवाई गई। साथ ही सुनियोजित ढंग से कराए गए दंगों में उनके मकानों और कारोबारों को भी तबाह किया गया। मुसलमानों के प्रति पैदा की गई इसी नफ़रत ने हिंदू राष्ट्र, रामराज्य और हिंदू राज्य के लिए मार्ग प्रशस्त किया। इस हिंदू फासीवाद को स्थापित करने में आरएसएस और भाजपा को सफलता इसलिए मिली, क्योंकि यहां हिंदू धर्म की वर्णव्यवस्था ने ऐसा ही समाज निर्मित किया था, जो जातिवादी, सांप्रदायिक और ब्राह्मणवादी है। इसी वजह से हिंदू समाज लोकतांत्रिक नहीं बन सका। यह समाज सिर्फ मुसलमानों के प्रति ही नहीं, बल्कि दलित जातियों के प्रति भी नफ़रत का भाव रखता है और उनके साथ सामाजिक अलगाव बनाकर रहता है। इसलिए अगर आने वाले समय में आरएसएस और भाजपा मुसलमानों के साथ-साथ दलितों के विरुद्ध भी नफ़रत को अपने राष्ट्रवाद का अंग बनाते हैं, तो उसमें भी वे कभी असफल नहीं होंगे। भले ही एडोल्फ हिटलर के समक्ष जर्मन लोगों को नाज़ीवाद से जोड़ने के लिए कुछ कठिनाई आई होगी, क्योंकि जर्मन समाज में नाज़ीवाद के बीज मौजूद नहीं थे। लेकिन आरएसएस और भाजपा के समक्ष ऐसी कोई कठिनाई नहीं थी, क्योंकि यहां ब्राह्मणों की वर्णव्यवस्था में फासीवाद के बीज पहले से ही मौजूद थे। बस उन्हें खाद-पानी देकर अंकुरित-पल्लवित करना था।  

राजदंड के प्रतीक ‘सेंगोल’ ग्रहण करते नरेंद्र मोदी

असल में हिंदू समाज को आज़ादी के बाद से ही लोकतांत्रिक समाज में बदलने में रुकावट पैदा की गई। यह काम राजनीतिक सत्ताओं से ज्यादा, धर्म की सत्ताओं ने किया। शंकराचार्यों, संतों और कथावाचकों ने हिंदुओं के बीच जाकर वर्णव्यवस्था का उपदेश दिया, और आज तक वे वही उपदेश देते घूम रहे हैं। यही वर्णव्यवस्था हिंदू फासीवाद की सबसे बड़ी ताकत है। 

इस फासीवाद ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हिंदुओं का महानायक बना दिया। इसने मोदी के प्रति हिंदुओं की अंधभक्ति इस सीमा तक पहुंचा दी कि जो थोड़ी-बहुत लोकतांत्रिक सोच जनता में दलित विमर्श और राजनीति के कारण विकसित हुई थी, वह भी खत्म हो गई। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के सवाल अब उनके लिए मायने नहीं रखते, क्योंकि अब वे अपनी मुक्ति रामराज्य में देख रहे हैं, और अपने आर्थिक विकास के लिए जातीय जनगणना या सर्वे की कोई आवश्यकता अनुभव नहीं करते। आरक्षण के लिए भी उनकी आवाजें खत्म हो गई हैं। और इसी के साथ उन्होंने हिंदू राज्य में ब्राह्मणों, ठाकुरों और बनियों को अपने ऊपर शासन करने के लिए खुला छोड़ दिया है। 

हिंदू फासीवाद की सबसे खतरनाक स्थिति यह हो गई है कि कोई गिरफ्तार हो, हमें का हानि? कोई कितना चंदा दे रहा है, कितना लूट रहा है, हमें का हानि? नामी-गिरामी फार्मा कंपनियों की हृदय-रोग, उच्च रक्तचाप, डायबिटीज की दवाइयां परीक्षण में फेल हो गईं। लेकिन भाजपा को करोड़ों रुपए का चंदा देने के बाद वे सारी दवाइयां बाज़ार में बिक रही हैं। वे दवाइयां, जिन्हें मरीज डाक्टर के नुस्खे पर खरीद रहे हैं, असर नहीं कर रही हैं, और मरीज मर रहे हैं, पर भक्तों को इससे कोई मतलब नहीं। गोया, इन दवाइयों से पाकिस्तान और चीन के लोग मर रहे हैं। संजय सिह की गिरफ्तारी पर न ठाकुरों में हलचल हुई और न अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी से बनिया वर्ग उद्वेलित हुआ। इस फासीवाद की चरम सीमा यह है कि जज तक सत्ता को खुश करने के लिए अपने फैसलों में मोदी और योगी की तारीफें कर रहे हैं, गीता और मनुस्मृति से उद्धरण दे रहे हैं। लेकिन भक्तों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इस चुनाव में भाजपा के मुद्दे न शिक्षा के हैं और न रोजगार के। उनके मुद्दे हैं राममंदिर, रामराज्य, धारा 370, नागरिकता क़ानून, समान नागरिक संहिता, ज्ञानवापी और मथुरा के मंदिर, और अबकी बार चार सौ पार। और ये सारे मुद्दे न लोकतांत्रिक हैं और न संवैधानिक। इसी को फासीवाद कहते हैं, जो न लोकतंत्र की चिंता करता है, और न संविधान की।

सवाल है कि क्या इस फासीवाद का कोई दल मुकाबला कर रहा है? उत्तर है– कोई नहीं? दक्षिण के राज्यों को छोड़ दें, तो संपूर्ण हिंदी पट्टी, जिसे गोबर पट्टी भी कहते हैं, कोई आंदोलन, न  सामाजिक और न राजनीतिक स्तर पर, भाजपा के फासीवाद के विरोध में दिखाई दे रहा है। क्या कांग्रेस इस फासीवाद से लड़ रही है? जवाब मुश्किल नहीं है, क्योंकि जिस तरह की राजनीति कांग्रेस कर रही है, उसमें मोदी का विरोध तो है, पर हिंदुत्व का विरोध नहीं है। और जब तक हिंदुत्व के विरोध में कांग्रेस आंदोलन नहीं करती है, उससे भाजपा के हिंदू फासीवाद को खत्म करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। सच तो यह है कि वर्तमान हिंदू फासीवाद कांग्रेस के कंधों पर सवार होकर आया है। बाबरी मस्जिद का ताला राजीव गांधी ने खुलवाया था और ढांचा ध्वस्त कराने में कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की भूमिका थी। 1947 से ही कांग्रेस का ब्राह्मण-तंत्र हिंदुत्व के प्रसार में लगा हुआ था। जैसे दीमक अंदर ही अंदर इमारत को खोखला करती है, उसी तरह कांग्रेस का ब्राह्मण-तंत्र धीरे-धीरे लोकतंत्र को हिंदुत्व की ओर ले जाकर कांग्रेस को खोखला कर रहा था। और जब 2014 में भाजपा सत्ता में आई, तो वही ब्राह्मण-तंत्र भाजपा में शामिल हुआ। कांग्रेस में ब्राह्मण नेता धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के कारण घुटन महसूस करते थे। भाजपा में आकर उनकी घुटन खत्म हो गई, और वे हिंदुत्व के मुखर प्रवक्ता हो गए। अब भी जो ब्राह्मण और अन्य उच्च जातियों  के नेता कांग्रेस में रह गए हैं, वे भी कांग्रेस के जातिगत सर्वे के विरुद्ध अपना विरोध दर्ज कर रहे हैं और किसी भी समय भाजपा में जाकर परम शांति प्राप्त कर सकते हैं। कांग्रेस के संदर्भ में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस दक्षिणपंथी विचारधारा की पार्टी है। उसके पास लोकतंत्र का कोई सुस्पष्ट समाजवादी मॉडल नहीं है।

क्या इस फासीवाद के खिलाफ दलित-बहुजन राजनीति आंदोलन कर रही है? सच यह है कि वह भी सिर्फ जुमलेबाजी की राजनीति कर रही है। मिसाल के तौर पर समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को लीजिए, क्योंकि अन्य दलित-पिछड़ी जातियों (पासवान, पटेल और राजभर) की पार्टियों के मुखिया भाजपा के साथ चले ही गए हैं। निश्चित रूप से यह उनमें राजनीतिक विचारधारा का संकट और निजी मुक्ति की चाहत है। 

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का यह बयान इसी वैचारिक संकट का परिणाम है कि सत्ता में आने पर वह भगवान परशुराम और भगवान विष्णु का विशाल मंदिर बनवाएंगे। उनके इस बयान ने आरएसएस और भाजपा का खूब मनोरंजन किया था। जो नेता मंदिर निर्माण को ही समाजवाद समझ रहा है, वह उसी ब्राह्मणवाद के आगे समर्पण कर रहा है, जो हिंदू फासीवाद का जनक है और भारत की विशाल श्रमशील आबादी को अछूत और पिछड़ा बनाए रखने का प्रमुख कारण है। यह अखिलेश यादव की कौन-सी विचारधारा है? क्या इसी विचारधारा के साथ वह सत्ता में आने का सपना देख रहे हैं? अगर वह आरएसएस और भाजपा से हिंदुत्व की प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, तो यह उनकी अज्ञानता ही है, जो हिंदुत्व के खेल में आरएसएस और भाजपा से बाजी मार ले जाने का भ्रम पाले हुए हैं। जिस पार्टी के मुखिया को जनता में फासीवाद के विरुद्ध अलख जगानी चाहिए थी और लोकतंत्र का एक बेहतरीन समाजवादी मॉडल पेश करना चाहिए था, वह अपने ब्राह्मणवादी होने का परिचय दे रहे हैं। 

असल में अखिलेश यादव को अपने पिता मुलायम सिंह यदव से यही राजनीति विरासत में मिली है। अपने को लोहियावादी समाजवादी कहने वाले उनके पिता डॉ. आंबेडकर के घोर विरोधी थे। अपने आंबेडकर-विरोध में इस सीमा तक चले गए थे कि वह खुलेआम अपने भाषणों में न केवल आंबेडकर प्रतिमाओं को तोड़ने की बातें करते थे, बल्कि एससी-एसटी एक्ट को भी खत्म करने की बातें करते थे। यह सब वह सवर्णों को खुश करने के लिए कहते थे, और यह उनका भ्रम था कि सवर्ण उन्हें पसंद करते थे। सच तो यह है कि वे समाजवादी पार्टी को आज भी पसंद नहीं करते।

बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती भी इसी वैचारिक संकट की शिकार हैं। जब से कांशीराम आरएसएस और भाजपा का हाथ मायावती के हाथ में पकड़ा कर गए हैं, तब से वह उसी हाथ को पकड़े हुए चल रही हैं, और उसी हाथ में अपना हित भी समझ रही हैं। भले ही इस हाथ के कारण पिछले आम चुनावों में उनकी पार्टी का सफाया हो गया था, पर वह खेल अब भी भाजपा के लिए ही रही हैं। 2024 के चुनावों में उनका सारा जोर सपा और कांग्रेस गठबंधन का खेल बिगाड़कर भाजपा की मदद करने पर ही है। मायावती के कारण ही रामपुर, मुरादाबाद और अमरोहा क्षेत्रों में भाजपा की जीत आसान हो गई है। उन्होंने कुल सोलह उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं, जो उत्तर प्रदेश की अस्सी लोकसभा सीटों के मुकाबले भाजपा के पक्ष की ही रणनीति है।

बहुजन राजनेताओं को साफ-साफ समझ लेना होगा कि राजनीति में दो ही विचारधाराएं हैं– (1) दक्षिणपंथी, और (2) वामपंथी। इसमें बीच का रास्ता नहीं होता है। या तो आपको दाएं चलना होगा या बाएं। दोनों तरफ चलने वाले लोग अवसरवादी होते हैं और उनकी, स्वार्थ के सिवा, कोई विचारधारा नहीं होती है। दलित-पिछड़ों की राजनीति धुर दक्षिणपंथी है। इसीलिए वह वामपंथ को पसंद नहीं करती। वरना, एक मजबूत राजनीतिक विकल्प तैयार हो सकता था। इसलिए दक्षिणपंथी दलों में ही सबसे ज्यादा अवसरवादी लोग भी हैं। सच यह है कि दक्षिणपंथी राजनीति में विचारधारा केवल आरएसएस और भाजपा के पास ही है, और उसे कोई चुनौती विचारहीनता से ग्रस्त बहुजन राजनीति नहीं दे सकती। अगर उसे चुनौती मिल रही है, तो सिर्फ वाम विचारधारा से ही। इसलिए भाजपा और आरएसएस दलित-पिछड़े वर्गों और आदिवासी समुदायों में वाम विचार को रोकने के लिए ही उन्हें हिंदुत्व के दलदल में फंसाने की मुहिम चलाए हुए हैं। और हैरान करने वाली बात यह है कि यह मुहिम विचारहीन बहुजन दलों तथा उसके अवसरवादी नेताओं के सहारे ही चल रही है।   

यह इसी का परिणाम है कि आरएसएस और भाजपा ने अपना रास्ता निर्विघ्न कर लिया है। उसे कहीं से चुनौती नहीं मिल रही है। क्योंकि उसका हिंदू फासीवाद सिर्फ राजनीतिक ही नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक भी है। उसने हिंदू मस्तिष्क को इस कदर अपने अधीन कर लिया है कि केवल साधारण हिंदू ही नहीं, केवल हिंदू व्यापारी ही नहीं, बल्कि कला, संस्कृति, सिनेमा, पत्रकारिता, साहित्य, विज्ञान, चिकित्सा और शिक्षा से जुड़े उच्च बुद्धिजीवी भी उसके प्रभाव में हैं। वह संवैधानिक संस्थाओं में पहुंच गया है, और ऐसा कोई प्रशासनिक क्षेत्र नहीं है, जहां वह सक्रिय नहीं है। मोदी सरकार एक ऐसे हिंदू भारत के निर्माण की ओर बढ़ गई है, जिसका मूर्त रूप हमें सिर्फ पुष्यमित्र शुंग (185-149 ईसवी पूर्व) के राज्य में मिलता है। इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि 22 जनवरी को अयोध्या में की गई प्राण-प्रतिष्ठा को मोदी और साधु-संतों द्वारा रामराज्य की प्राण-प्रतिष्ठा के रूप में देखा गया था।

हिंदू फासीवाद एक पार्टी, एक झंडा और एक चुनाव की ओर जनता को ले जा रहा है। यह स्थिति लोकतंत्र और संविधान के लिए सबसे खतरनाक होगी। और जो स्थिति संविधान और लोकतंत्र के लिए खतरनाक होगी, वह दलित-पिछड़ी जातियों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक मुसलमानों के लिए कितनी भयावह होगी, इसकी कल्पना करके देखिए। 

सवाल यह है कि समाधान क्या है? समाधान है फासीवाद का खात्मा और लोकतंत्र की बहाली। पर फासीवाद आसानी से जाने वाला नहीं है। ये दो सूरतों में जा सकता है, या तो राष्ट्रपति कार्यवाही करें या सुप्रीम कोर्ट संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए कदम उठाए।

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