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उत्तर प्रदेश में एक और भीमा कोरेगांव बनाने की तैयारी

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5 मार्च 2024 को बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने प्रोफेसर जीएन साईबाबा, हेम मिश्रा, प्रशांत राही, विजय तिर्की और महेश तिर्की को उन पर लगे सभी आरोपों से बरी कर दिया। पांडु नरोटे जिनकी उम्र मात्र 33 साल थी, जेल में रहने के दौरान ही उनकी मौत हो गयी। वास्तव में यह एक हिरासती हत्या है, जिसके लिए संबंधित अधिकारियों पर मुकदमा चलना चाहिए और सज़ा मिलनी चाहिए। क्रूरता की हद ऐसी थी कि बीमारी की हालत में जेल प्रशासन ने उनका इलाज तक नहीं करवाया। जब उनकी मौत हुई, उसके पहले जीवन के अंतिम समय में उनके आंखों और पेशाब से खून आ रहा था।

अन्य पांच अभियुक्तों को बरी कर अपने फैसले में हाईकोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि “केवल इंटरनेट से कम्युनिस्ट या नक्सली साहित्य डाउनलोड करना या कम्युनिस्ट दर्शन के प्रति सहानुभूति रखना यूएपीए के तहत अपराध नहीं है।’’ आज के दौर में जब सरकार से किसी भी प्रकार की असहमति रखना एक जुर्म है, उस समय हाईकोर्ट की इस प्रकार की टिप्पणी बेहद महत्व रखती है।

जेएनयू के छात्र, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता हेम मिश्रा, जो प्रोफेसर जीएन साईबाबा के साथ उसी केस में अंडा सेल में बंद थे, बरी होने के पहले 2015 में जब वे जमानत पर बाहर आए थे तब ‘कैच न्यूज’ नामक मीडिया पोर्टल को दिए गये अपने एक साक्षात्कार में पहले ही कह चुके थे कि  “किसी भी विचारधारा में, यहां तक की माओवाद में विश्वास करना अपराध नहीं है’’। बॉम्बे हाईकोर्ट को इस बात को समझने में 10 साल का समय लग गया।

उल्लेखनीय है कि बॉम्बे कोर्ट ने इस मुकदमे में दूसरी बार सभी लोगों को बरी किया है। यह हिन्दुस्तान के न्यायिक इतिहास का अजूबा केस है। पिछले साल 14 अक्टूबर, 2022 को मुंबई हाईकोर्ट ने सभी आरोपियों को मुकदमे चलाने के दौरान पुलिस द्वारा की गई तकनीकी गड़बड़ियों, जो कि गैरकानूनी भी थीं, के आधार पर बरी कर दिया था। लेकिन माओवाद का भूत सत्ता को ऐसा सताता है कि महाराष्ट्र सरकार ने तुरंत सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ अपील कर दी, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने विशेष सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी और कहा कि “जहां तक आतंकवादी या माओवादी गतिविधियों का सवाल है, मस्तिष्क अधिक खतरनाक है और इसमें प्रत्यक्ष संलिप्तता जरूरी नहीं है।”

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार का कहना मानते हुए इस मुकदमे की सुनवाई फिर से तकनीकी गड़बड़ियों नहीं, (बेशक वे गैर कानूनी ही क्यों न हों) बल्कि गुण-दोष के आधार पर करने का आदेश सुनाया। 5 मार्च को इस आधार पर इस मुकदमे के सभी आरोपी दोबारा बरी हुए। इससे ये साबित होता है कि ये पूरा मुकदमा न सिर्फ फर्जी था, बल्कि इसे गैर कानूनी तरीके से गढ़ा और चलाया भी गया था। लेकिन अफसोस कि इसके खिलाफ पुलिस प्रशासन या इसके लिए जिम्मेदार लोगों पर कोई मुकदमा नहीं चलेगा। यह इस न्याय व्यवस्था की असफलता और सीमा है।

इस मुकदमे को चलाने के पीछे राज्य और उसकी रक्षा में लगी पुलिस व्यवस्था, न्याय व्यवस्था की क्या मंशा थी, यह पूरे मुकदमे के दौरान एक नहीं कई-कई बार उजागर हुई है। इस रूप में भी यह मुकदमा एक नज़ीर है। 2017 में गढ़चिरौली सेशन कोर्ट के जज ने भी जीएन साईबाबा सहित सभी अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाते हुए कहा था- ‘‘मेरी राय में आजीवन कारावास आरोपियों के लिए पर्याप्त नहीं है, (इन्हें फांसी होनी चाहिए) लेकिन गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) की धारा 18 और 20 के कारण अदालत के हाथ बंधे हैं। मेरी राय में यह सजा देने के लिए उपयुक्त मामला है।’’

जज साहब ने इस फैसले में आगे अपनी इस नफरत का कारण भी बताया। उन्होंने जीएन साईंबाबा व अन्य को गढ़चिरौली जिला के विकास में बाधा घोषित करते हुए कहा- “गढ़चिरौली आज भी वैसा है जैसा साल 1982 में था। इसके लिए सभी आरोपी प्रतिबंधित संगठन भाकपा माओवादी के फ्रंटल आर्गेनाइजेशन रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट (आरडीएफ) के सदस्य जिम्मेदार हैं, जिन्होंने यहां विदेशी निवेश नहीं होने दिया, इस कारण यह अविकसित रह गया।’’

फैसले में लिखी गई इस बात से जज साहब की कानून की जानकारी से ज्यादा पक्षधरता साफ-साफ उजागर हो जाती है, इससे उन्होंने कोई परहेज भी नहीं किया है, जो कि कानूनन गलत भी है। जिस विकास मॉडल के पक्ष में जज साहब फैसला लिख रहे थे, वह ऐसा मानव विरोधी मॉडल है जिसमें प्राकृतिक संसाधनों की लूट को, आदिवासियों के जनसंहार को सही माना जाता है।

जबकि इस मॉडल को सारी दुनिया के सामने उजागर करने वाले प्रोफेसर जीएन साईबाबा, हेम मिश्रा, प्रशान्त राही, विजय टिर्की को आजीवन कारावास की सजा दी गई दी गई उस पर से जज साहब के अनुसार यह सजा उनके लिए पर्याप्त नहीं थी क्योंकि न्यायपालिका के हाथ कानून से बंधे थे, वरना प्रोफेसर व उसके साथ अन्य लोगों को फांसी की सजा भी दे सकते थे।

दरअसल प्रोफेसर जीएन साईंबाबा हेम मिश्रा और अन्य ऐसे लोग विकास में बाधा नहीं हैं, बल्कि ये लोग तो राज्य द्वारा संरक्षित और पोषित देशी-विदेशी साम्राज्यवादी कंपनियों द्वारा की जा रही संसाधनों की लूट में सबसे बड़ी बाधा हैं। जब तक वे जेल से बाहर थे तब तक लगातार आदिवासियों की जमीनों और उसके नीचे पाए जाने वाले तमाम कीमती संसाधनों की लूट और आदिवासियों के जनसंहार को, जो राज्य प्रायोजित “ऑपरेशन ग्रीन हंट” के माध्यम से चलाया जा रहा था, उसे पूरी देश-दुनिया के सामने उजागर कर रहे थे। लूट पर आधारित इस विकास के मॉडल को बिना किसी बाधा के जारी रखने के लिए जीएन साईबाबा जैसे बहुत से लोगों को जेल में डाला गया है, ताकि विरोध की आवाज पर चुप्पी लगाई जा सके।

झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह जो अपनी रिपोर्टों के जरिए विकास के इसी मॉडल को नंगा कर रहे थे इसलिए वह भी आज माओवादियों से संबंध रखने के आरोप में भागलपुर जेल में बंद हैं। दरअसल यह किसी एक जगह की नहीं, पूरे देश की कहानी बन गयी है। राज्य की पुलिसिया एजेंसियों-एनआईए, एटीएस आदि सभी को इस काम में लगाया गया है कि वे विकास के इस मॉडल की मुखालफत करने वाले लोगों के पीछे जी-जान से लगे रहें, ताकि साम्राज्यवादी लूट में कोई बाधा न आने पाये।

भीमा कोरेगांव मुकदमे की साजिश इसका सटीक उदाहरण हैं, जिसमें इसी विकास के मॉडल के खिलाफ बोलने-लिखने वाले लोग जेल में हैं, जो बाहर हैं, उन्हें इसके माध्यम से धमकी दे दी गयी है कि उनका भी हश्र यही होना है। भीमाकोरेगांव सरकारी साजिश पूरी दुनिया में राजकीय दमन का एक नमूना बन गया है, जिस पर किताबें लिखी जा रही हैं, लेख लिखे जा रहे हैं और अपीलें जारी की जा रही हैं, लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है।

उत्तर प्रदेश में एक और भीमा कोरेगांव केस बनाने की तैयारी

जीएन साईबाबा के माओवादी कनेक्शन केस के बाद भीमाकोरेगांव मुकदमे की साजिश के बाद कई जगह एनआईए और एटीएस देश भर में भीमाकोरेगांव मुकदमे को मॉडल बनाकर सत्ता से असहमति रखने वालों पर मुकदमे दर्ज कर, उनके घरों पर ‘रेड’ डालकर उन्हें प्रताड़ित कर रहे हैं। मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा की 75वीं वर्षगांठ से एक दिन पहले उत्तर प्रदेश में राजनीतिक कार्यकर्ता प्रभा उर्फ अनिता आजाद का जेल में गर्भपात हो गया या यह कहना ज़्यादा उचित होगा कि उनके स्वास्थ्य की स्थिति को जानबूझकर नजरंदाज किया गया। यह असहमति को दबाने के क्रूरतम तरीके हैं, जो जेल में भेजे जाने के बाद भी जारी रहते हैं।

उनका मकसद ही है सत्ता से असहमति रखने वाले को इतने प्रकार से शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना दो, कि नई आवाजें उठनी बंद हो जाएं और यह हुआ भी। अनिता के बच्चे की इस तरह से हत्या पर जितना गुस्सा और रोष नागरिक समाज में दिखना चाहिए वह उभर कर आया ही नहीं। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि अनिता द्वारा अपनी मेडिकल कंडीशन रखने के बावजूद उन्हें एटीएस वाले उनकी मां के घर रायपुर से लखनऊ ले आये। लखनऊ स्पेशल कोर्ट में अपनी पेशी के दौरान भी उन्होंने अपनी मेडिकल स्थिति का बयान किया। गर्भपात के 10 दिन पहले लखनऊ स्पेशल कोर्ट ने चिकित्सकीय आधार पर दाखिल की गयी अनिता की जमानत याचिका को खारिज कर दिया, जबकि उसमें इसका भी जिक्र था कि कुछ ही महीनों पहले उनका एक गर्भपात हो चुका था।

एक साल में यह दूसरा गर्भपात है, जो कि जेल के अन्दर हुआ। अनिता और बृजेश, जो कि किसान और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, को 18 अक्टूबर 2023 को उत्तर प्रदेश के आतंक निरोधी दस्ते (एटीएस) द्वारा 2019 में दर्ज एक केस में आरोपी बनाया गया है। 2019 में इस मुकदमे में उन्हें पूछताछ के लिए बुलाया गया था, फिर उन्हें छोड़ दिया गया। एटीएस का कहना है कि 4 साल पहले 2019 में उनके घर में छापे के दौरान जो इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस जब्त किया गया था, उन्हीं डिवाइस की फोरेंसिक जांच रिपोर्ट के आधार पर उनको अरेस्ट किया गया है।

एटीएस का कहना है कि वो दोनों माओवादी पार्टी के लिए ‘मजदूर किसान एकता मंच’ और ‘सावित्रीबाई फुले संघर्ष समिति’ जैसे संगठन बनाकर काम कर रहे थे। उन्होंने कहा कि दम्पत्ति दो संगठन बनाकर माओवादी और राष्ट्र विरोधी विचारधारा का प्रचार कर रहे थे। जबकि संगठनों के नाम से ही साफ है कि मजदूर किसान की एकता की बात करना और सावित्रीबाई फुले के विचारों को फैलाना किसी भी प्रकार से देश विरोधी    गतिविधि नहीं है।

उत्तर प्रदेश एटीएस यहीं पर नहीं रुकी। इस दम्पति का केस लड़ने वाले एडवोकेट कृपा शंकर और हाईकोर्ट में टाइपिस्ट उनकी पत्नी बिंदा को 5 मार्च, जिस दिन प्रोफेसर जीएन साईबाबा को आरोपों से बरी किया गया, उसी दिन सुबह एटीएस ने इसी मुकदमें मे माओवादी बोलकर गिरफ्तार कर लिया। इससे उनकी मंशा साफ है कि ‘अर्बन नक्सल’ या माओवादियों का ‘ओवर ग्राउंड वर्कर’ का नैरेटिव समाज में जाता रहे। वास्तव में कृपा शंकर उत्तर प्रदेश के मानवाधिकार वकील हैं, जो उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत कर रहे थे और लोगों पर हो रहे राजकीय दमन के खिलाफ कोर्ट में लड़ाई लड़ रहे हैं।

कृपा शंकर के बारे में यह महत्वपूर्ण बात है कि वे यूएपीए जैसे दमनकारी कानूनों को समझने के लिए इस पर विशेष रूप से पढ़ाई कर अपने को तैयार कर रहे थे। वे यूएपीए विशेषज्ञ वकील के रूप में विकसित हो रहे थे, लेकिन खुद उन्हें इसी कानून के तहत फंसाकर जेल भेज दिया गया है। कृपा शंकर और भीमाकोरेगांव केस में जेल में बंद सुरेन्द्र गाडलिंग दोनों की हालत आज बिल्कुल एक जैसी है। दोनों अपनी कानूनी लड़ाई की कीमत जेल जाकर चुका रहे हैं। 6 साल पहले सुरेंद्र गाडलिंग के साथ यही हुआ था, जिन्होंने जीएन साईबाबा व अन्य बहुत सारे लोगों की कानूनी लड़ाई लड़ने की कीमत जेल जाकर चुकाई। आज वही कीमत लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने के लिए कृपा शंकर चुका रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में पिछले एक साल से लगातार एक और भीमा कोरेगांव केस बनाने की तैयारी जोर- शोर से चल रही है। एनआईए लगातार स्टूडेंट्स, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों के यहां छापेमारी कर रही है और ‘एल्गार परिषद’ की तरह झूठी कहानी गढ़ी जा रही है। अबकी बार कहानी प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश की नहीं है, बल्कि यह है कि उत्तर भारत में माओवादी अपने पैर पसार रहे हैं। ये लोग माओवादी पार्टी के ‘ओवर ग्राउंड वर्कर’ हैं।

‘ओवर ग्राउंड वर्कर’ भारतीय ब्राह्मणवादी हिंदुत्ववादी फासीवादी राज्य की नई शब्दावली का हिस्सा है जो ‘अर्बन नक्सल’ का विस्तार है। एनआईए का कहना है कि उत्तर भारत की हिंदी बेल्ट में माओवादी पार्टी के काम को पुनर्जीवित करने की कोशिश की जा रही है। इसी कहानी को आधार बनाकर एनआईए जगह-जगह पर छापेमारी कर रही है, ताकि लोकतांत्रिक आवाज को माओवाद के नाम पर कुचला जा सके। इसकी साफ तस्वीर हाल ही में एनआईए द्वारा जारी प्रेस वक्तव्य में नजर आता है, जिसमें उन्होंने कहा कि माओवादी “संगठन की नापाक योजनाओं को विफल करने के लिए एनआईए हाल के महीनों में आक्रामक तरीके से आगे बढ़ रही है”।

इस प्रोपोगंडा को फैलाने में बहुत से हिंदी अखबारों का महत्वपूर्ण हाथ रहा है। इस तरह के अखबार पिछले कई सालों से अलग-अलग समय पर बिना किसी तथ्य और संदर्भ के इस राज्य प्रायोजित प्रोपोगंडा को फैलाने में एनआईए जैसी एजेंसी से भी एक कदम आगे हैं।

आम आपराधिक कानून की तरह इस्तेमाल होता यूएपीए

तेलंगाना में लोकतांत्रिक अधिकार आंदोलनों से निपटने में राजकीय दमन का क्रूर इतिहास रहा है। अतीत में पुलिस ने खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर कई लोकतांत्रिक अधिकार कार्यकर्ताओं को फर्जी मुठभेड़ों में खुलेआम मार डाला है। पिछले एक साल में, तेलंगाना में आश्चर्यजनक रूप से विभिन्न एफआईआर देखी गई हैं, जिसमें 140 से अधिक नागरिक समाज और जन संगठन के नेताओं को यूएपीए मामलों में फंसाया गया है। कई लोगों पर तो तीन से चार केस यूएपीए के तहत दर्ज हैं। इन एफआईआर की सच्चाई इसी बात से पता चलती है कि इसमें कई ऐसे लोगों के नाम भी हैं जो कई साल पहले ही मर चुके हैं।

जैसे भीमाकोरेगांव मामला है, जहां एनआईए ने कथित तौर पर भारत के प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश वाले कुछ संदिग्ध पत्रों का इस्तेमाल करके देश भर के जाने-माने कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों पर फर्जी केस गढ़े। इसी तर्ज पर तेलंगाना में एक नई कहानी गढ़ी गई। गोदी मीडिया के माध्यम से यह नैरेटिव तैयार किया कि गिरफ्तार माओवादी नेता के पास एक डायरी मिली, जिसमें कई महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ-साथ इन कार्यकर्ताओं के नाम हैं।

इसी बात को आधार बनाकर विभिन्न वकीलों, स्टूडेंट्स, पत्रकारों, प्रोफेसरों और लोकतांत्रिक अधिकार कार्यकर्ताओं के घरों पर छापे मारे गए और वही कहानी दोहराई गई। एनआईए विभिन्न कार्यकर्ताओं को झूठे मामलों में फंसाने के लिए पूरे भारत में टूलकिट की तरह इस तरह की तमाम झूठी डायरियों का उपयोग करती है।

अल्पसंख्यक निशाने पर

माओवाद की विचारधारा के लिए हम फिर भी कह सकते हैं कि ये व्यवस्था में परिवर्तन की मांग करती है, इसलिए ये मौजूदा व्यवस्था के निशाने पर है, लेकिन दायरा इससे कहीं आगे बढ़ चुका है। इस व्यवस्था में ही जनवादी सुधार करने वाले भी सत्ता के निशाने पर हैं। 2019 में जब नागरिकता कानून लागू हुआ उसके विरोध में मुखर रहने वाले और केवल आन्दोलन को समर्थन देने वाले लोगों के लिए भी ‘दिल्ली दंगा साजिश’ नाम से एक मुकदमा गढ़ा गया। और दुखद ये है कि इसमें छात्रों/नौजवानों को अरेस्ट करके जेल में डाला गया, जिसमें से अधिकांश 4 साल बाद भी बाहर नहीं आ सके हैं।  

लड़कियों के हॉस्टल के समय को बढ़ाने की मांग के साथ लड़ने वाली ‘पिंजरा तोड़’ आन्दोलन तक को सरकार बर्दाश्त नहीं कर सकी। सभी से बदला लेते हुए ‘दिल्ली दंगा’ नाम से मुकदमा गढ़कर सबको जेल भेज दिया गया। जबकि दिल्ली दंगे को भड़काने वाले, ‘गोली मारो सालों को’ का बयान देने वाले मंत्री पद से नवाजे जा चुके हैं।  दिल्ली दंगा मुकदमा खासतौर पर अल्पसंख्यकों और महिलाओं के खिलाफ गढ़ा गया है, यहां भी जमानत न देने में सरकार एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। ‘दिल्ली दंगा’ मुकदमा आज के समय में अल्पसंख्यकों पर दर्ज मुकदमों का प्रतिनिधि मुकदमा है, लेकिन देश भर में ऐसे कई मुकदमे हैं जो उन्हें ‘आतंकवादी’ ‘देशद्रोही’ बताने के लिए बड़े पैमाने पर गढ़े गये हैं।

औपनिवेशिक समय में राज्य ने औपनिवेशिक शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ लड़ रहे लोगों के आंदोलन को दबाने के लिए मेरठ षड्यंत्र और लाहौर षड्यंत्र जैसे केस गढ़े थे, ताकि क्रांतिकारी धारा के लोगों को कुचला जा सके। वर्तमान समय में, हम देख रहे हैं कि ब्राह्मणवादी हिंदुत्व फासीवादी भाजपा-आरएसएस सरकार अपने औपनिवेशिक आकाओं से सीख लेते हुए लोगों के शोषण और उत्पीड़न के साथ-साथ विदेशी और घरेलू कॉरपोरेट्स द्वारा देश के संसाधनों की लूट के खिलाफ आवाज उठाने वालों को दबाने के लिए समान रणनीति का उपयोग कर रही है।

एनआईए उर्फ नेशनल ‘इंप्लीकेटिंग’ एजेंसी

एनआईए आज के दिन लोकतांत्रिक अधिकारों के दमन में सबसे आगे है। एनआईए के बनने से लेकर आज तक, देश के अलग हिस्सों से उसने बहुत सारे सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ आम लोगों को भी आतंकवाद से संबधित मुकदमों में फंसाया है, जो बाद में बरी हो गए। उन पर लगाए गए ज्यादातर आरोप झूठे साबित हुए। झूठी कहानी गढ़ने में एनआईए से बड़ी एजेंसी आज के दिन में कोई नहीं है।

माओवादी लिंक से जुड़े मामलों में एक सामान्य कहानी गढ़ ली गई है, जो इनकी हर प्रेस विज्ञप्ति में नजर आती है। इनका कहना होता है कि उन्होंने एक ‘खूंखार नक्सली’ को गिरफ्तार किया है जो माओवादी पार्टी का पोलित ब्यूरो मेंबर या केंद्रीय कमेटी का सदस्य होता है। पिछले दो सालों में एनआईए ने इस कहानी के आधार पर इतने सारे लोगों को गिरफ्तार किया है, जितने लोग तो शायद माओवादी पार्टी तो क्या, किसी भी राजनीतिक पार्टी के केंद्रीय कमेटी के सदस्य नहीं होंगे।

उसके बाद उस राज्य या उसके आस-पास के सीमावर्ती राज्य में, और आजकल तो उससे आगे बढ़कर देश भर के विभिन्न कार्यकर्ताओं के यहां छापेमारी शुरू हो जाती है। छापेमारी इस आधार पर होती है कि जो ‘खूंखार नक्सली’ पकड़ा गया है उसके पास से उक्त लोगों के नाम की लिस्ट मिली है। आज ‘खूंखार नक्सली’ और विरोध की आवाज दोनों एक ही श्रेणी में आते हैं।

अगर आज आपके आस-पास किसी व्यक्ति को माओवादी होने के आरोप में गिरफ्तार किया जाए, तो समझ जाइयेगा की उस क्षेत्र में नागरिक समाज या किसी भी तरह की विरोध की आवाज को दबाने की तैयारी हो चुकी है। आज के दिन एनआईए नेशनल जांच एजेंसी के बजाय लोगों को झूठे आरोप में फंसाने वाली एजेंसी बन चुकी है जो असहमति की आवाज को ‘आतंकवादी’, ‘माओवादी’ या आजकल का सबसे प्रचलित ‘ओवरग्राउंड वर्कर’ के नाम पर लोगों को गिरफ्तार कर रही है और जनता में आतंक का माहौल बना रही है।

छोटी जेल से बड़ी जेल में

जेल से बाहर आने के बाद दिल्ली में हुई प्रेस वार्ता में बोलते हुए हेम मिश्रा ने कहा कि इतने साल जेल में रहने और उसके बाद अब बाहर आने पर परिस्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। उसी दौरान एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि वह एक छोटी जेल से वापस एक बड़ी जेल में आ गए हैं जिसका दायरा देशव्यापी है, जहां दमन का आतंक फैला हुआ है और असहमति की सज़ा जेल होती है।

इस बात को अभी तक के सबसे महत्वपूर्ण भीमाकोरेगांव षड्यंत्र केस में और भी बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। इस केस में 16 प्रसिद्ध राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को फर्जी मामले में फंसाकर यूएपीए के तहत जेल भेज दिया गया। 2018 से शुरू हुए इस केस का अब तक ट्रायल ही शुरू नहीं हुआ है। इस फर्जी मुकदमे में अब तक केवल सात लोगों को जमानत मिली है। इस केस में न्याय के मूलभूत सिद्धांत ‘जमानत नियम है, जेल अपवाद’ है को उलट कर ‘जेल नियम है, जमानत अपवाद’ है, को लागू किया गया है।

जिन्हें जमानत मिली है, उनकी जमानत की शर्तों को पढ़ें तो हम पाते हैं कि वाकई उन्हें एक छोटी जेल से निकालकर एक बड़ी जेल में ठूंस दिया गया है। इन शर्तों में खुद न्यायपालिका द्वारा निजता के मूलभूत अधिकार की धज्जियां उड़ाई जा रहीं। नागपुर यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी की विभागाध्यक्ष रहीं शोमा सेन को हाल ही में जमानत मिली है। जो पिछले लगभग 6 सालों से जेल में बंद थीं। उनकी जमानत की शर्त इस प्रकार है-

1)            शोमा अपना पासपोर्ट सरेंडर करेंगी और महाराष्ट्र से बाहर कहीं नहीं जाएंगी।

2)            वह अपना निवास एनआईए को सूचित करेंगी।

3)            अपना फोन नंबर एनआईए को बताएंगी, उसे एक्टिव रखेंगी और मोबाइल का जीपीएस हमेशा सक्रिय होना चाहिए उनका मोबाइल हमेशा एनआईए के अधिकारी से जुड़ा होना चाहिए ताकि उनके लोकेशन को पता लगाया जा सके।

ये सभी शर्तें तब हैं जबकि जज ने जमानत देने के आधार में कहा है कि उनके खिलाफ प्रथम दृष्ट्या कोई सुबूत नहीं है।

लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा जो इसी केस में एक आरोपी हैं, चार साल जेल में बंद रखने के बाद खराब स्वास्थ्य के चलते उन्हें नवंबर 2022 से मुंबई में नजरबंद किया गया है। हद तो ये है कि हाल ही में एनआईए ने नजरबंदी में उनकी सुरक्षा में आने वाले खर्च के लिए उनसे 1.64 करोड़ रुपए देने की मांग की। इन दो उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वतंत्रता का दायरा इतना संकुचित हो गया है कि जेल के अंदर और जेल के बाहर की दुनिया में ज्यादा फर्क नहीं रह गया है।

अघोषित आपातकाल और फासीवाद के इस दौर में भारतीय राज्य बुद्धिजीवी तबके से लेकर आम जनता पर क्रूर कानूनों की मदद से दमन कर रहा है। एनआईए और तमाम एजेंसियों ने जो माओवाद और आतंकवाद को लेकर नेरेटिव गढ़े हैं, उनको समझना और उजागर करने के लिए इन मुकदमों से जुड़े तथ्यों को जानना और उन्हें उजागर करना जरूरी है, बेशक ये भी उनकी नजर में अपराध है।

(दीपक कुमार की रिपोर्ट। इसके पहले यह लेख ‘दस्तक’ में प्रकाशित हो चुका है।)

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