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सैम पित्रोदा के बयानों से बढ़ी कांग्रेस की मुश्किलें,सत्यनारायण से सैम बनने का सफ़र

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कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सैम पित्रोदा
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दो सप्ताह के अंदर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सैम पित्रोदा के दो बयानों से ऐसा विवाद उठा कि पार्टी असहज स्थिति में आई और सफ़ाई देनी पड़ी.

सैम पित्रोदा ने पहले एक इंटरव्यू में इनहेरिटेंस टैक्स का ज़िक्र छेड़ते हुए ये कहा कि इस पर भारत में भी चर्चा होनी चाहिए, जिसे बीजेपी ने एक बड़ा चुनावी मुद्दा बना दिया.

इसके बाद बुधवार को उनके इंटरव्यू का एक हिस्सा सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, जो उन्होंने हाल ही में अंग्रेज़ी अख़बार स्टेट्समैन को दिया था.

इस इंटरव्यू में उन्होंने कहा, “हम भारत जैसे विविधता से भरे देश को एकजुट रख सकते हैं, जहाँ पूर्व में रहने वाले लोग चाइनीज़ जैसे दिखते हैं, पश्चिम में रहने वाले अरब जैसे दिखते हैं, उत्तर में रहने वाले मेरे ख़्याल से गोरे लोगों की तरह दिखते हैं, वहीं दक्षिण में रहने वाले अफ़्रीकी जैसे लगते हैं. इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता. हम सब भाई-बहन हैं.”

बीजेपी ने इसे नस्लीय टिप्पणी बताया और ख़ुद पीएम मोदी ने अपने चुनावी भाषण में सैम पित्रोदा के बयान के ज़रिए राहुल गांधी को घेरा.

पीएम मोदी ने कहा, “मैं आज बहुत ग़ुस्से में हूँ. मुझे कोई गाली दे, मुझे ग़ुस्सा नहीं आता. मैं सहन कर लेता हूँ. लेकिन आज शहजादे के फिलॉस्फर (सैम पित्रोदा) ने इतनी बड़ी गाली दी है, जिसने मुझमें ग़ुस्सा भर दिया है. कोई मुझे ये बताए कि क्या मेरे देश में चमड़ी के आधार पर योग्यता तय होगी. संविधान सिर पर लेकर नाचने वाले लोग चमड़ी के रंग के आधार पर मेरे देशवासियों का अपमान कर रहे हैं.”

बढ़ती मुसीबत के बीच कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने सैम पित्रोदा के बयान से किनारा किया और शाम होते-होते उन्होंने पित्रोदा के इंडियन ओवरसीज़ के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने और उसके स्वीकार होने की सूचना भी दे दी.

हालांकि ये पहली बार नहीं है जब सैम पित्रोदा ने अपने बयानों से कांग्रेस को मुश्किल में डाला हो. इससे पहले साल 2019 में उन्होंने 1984 सिख दंगों पर एक बयान दिया था, जिस पर काफी हँगामा हुआ था.

सैम पित्रोदा ने एक सवाल के जवाब में कहा था, “1984 में हुआ तो हुआ पिछले पाँच साल में क्या हुआ इस पर बात करिए.”उसी साल सैम के एक और बयान ने सुर्खियां बटोरी थीं. पुलवामा हमले और फिर भारत की जवाबी कार्रवाई के बाद सैम ने कहा था, “हमले होते रहते हैं. मुंबई में भी हमला हुआ था. हम भी प्रतिक्रिया देते हुए प्लेन भेज सकते थे लेकिन ये सही नहीं होता. मेरे हिसाब से आप दुनिया से ऐसे नहीं निपटते हैं.”

सैम पित्रोदा का शुरुआती जीवन

सैम पित्रोदा तितलागढ़ के अपने पैतृक निवास पर
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साल 2015 में बीबीसी संवाददाता रेहान फ़ज़ल ने सैम पित्रोदा के साथ ख़ास बातचीत की, जिसमें उन्होंने अपने जिंदगी से जुड़े कई अनकहे पहलुओं पर बात की.

सैम पित्रोदा के सफ़र की शुरुआत ओडिशा के बोलांगीर ज़िले के एक छोटे से गाँव तीतलागढ़ में हुई थी. सैम के दादा बढ़ई और लोहार का काम किया करते थे.

उस ज़माने में सैम का सबसे प्रिय शगल होता था अपने घर के सामने से गुज़रने वाली रेलवे लाइन पर दस पैसे का सिक्का रखना और ट्रेन के गुज़रने के बाद कुचले हुए सिक्के को ढूंढ कर जमा करना.

सैम के पिता चाहते थे कि वो गुजराती और अंग्रेज़ी सीखें. इसलिए उन्होंने उन्हें और उनके बड़े भाई मानेक को पढ़ने के लिए पहले गुजरात में विद्यानगर के शारदा मंदिर बोर्डिंग स्कूल और फिर बड़ौदा विश्वविद्यालय भेजा.

वहाँ से उन्होंने भौतिकी शास्त्र में पहली श्रेणी में एमएससी की परीक्षा पास की.

जब ससुराल में कुत्ते ने काट लिया

सैम पित्रोदा की पत्नी अनु छाया
इमेज कैप्शन,सैम पित्रोदा की पत्नी अनु छाया

बड़ौदा विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए ही सैम पित्रोदा की मुलाकात उनकी भावी पत्नी अनु छाया से हुई. जब उन्होंने अनु को पहली बार देखा तो वो धूप में अपने बाल सुखा रही थीं.

सैम याद करते हैं, “मैंने उसे देखते ही पहली निगाह में अपना दिल दे दिया. उस समय मैं सिर्फ़ बीस साल का था. आज की तरह उस समय भी मेरे पास डायरी हुआ करती थी. उसमें मैंने लिखा कि मैं इस लड़की से शादी करूँगा.”

लेकिन अनु तक अपनी भावना पहुंचाने में सैम को डेढ़ साल लग गए. अमेरिका जाने से पहले वो उनका हाथ मांगने उनके पिता से मिलने गोधरा गए. अभी उन्होंने दरवाज़े पर दस्तक दी ही थी कि उनका कुत्ता दौड़ता हुआ आया और उसने सैम के हाथ में काट खाया.

सैम उससे इतने परेशान हुए कि उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला और अनु का हाथ मांगने की बात उनके दिल में ही रह गई.

जब अमेरिका पहुंचे सैम

सैम पित्रोदा अपनी पत्नी अनु छाया के इलिनॉय यूनिवर्सिटी में.
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भारत में भौतिकी में स्नातकोत्तर करने के बाद इलेक्ट्रॉनिक्स में मास्टर की डिग्री हासिल करने के लिए पित्रोदा शिकागो के इलिनॉय इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी गए.

जब सैम शिकागो पहुंचे तो उन्हें अमेरिकी संस्कृति से सामंजस्य बैठाने में ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी.

सैम याद करते हैं, “वहाँ सब कुछ नया था. हर चीज़ अजीब सी लगती थी… लोग अजीब थे… खाना अजीब था… बातें अजीब थीं.. भाषा अजीब थी. पहली बार मैंने वहाँ डोर नॉब देखा. हमारे यहाँ तो सांकल होती थी. रिवॉल्विंग दरवाज़ा पहली बार मैंने वहाँ देखा. हमारी समझ में आ गया कि ज़िंदगी अब आगे देखने के लिए है, पीछे देखने के लिए नहीं.”

वो बताते हैं, “मेरे लिए सबसे बड़ा साँस्कृतिक झटका ये था कि एक साथ कई लोग बाथरूम में सामूहिक तौर पर नहाया करते थे और वो भी बिल्कुल नंगे होकर और उस पर तुर्रा यह कि नहाते समय वो आपस में बातें भी किया करते थे.”

सैम याद करते हैं, “मुझे ऐसा करते हुए बहुत शर्म आई. इसलिए मैंने उससे बचने के लिए रात के बारह बजे नहाना शुरू कर दिया ताकि हॉस्टल के बाथरूम में कोई शख़्स मौजूद न हो.”

सत्यनारायण से सैम बनने का सफ़र

सैम पित्रोदा

पढ़ाई ख़त्म करने के बाद सैम ने टेलीविज़न ट्यूनर बनाने वाली कंपनी ओक इलेक्ट्रिक में काम करना शुरू कर दिया. तब तक सैम का नाम सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा हुआ करता था.

जब उनको अपनी तनख़्वाह का चेक मिला तो उसमें उनका नाम सैम लिखा हुआ था.

जब वो वेतन का काम देखने वाली महिला के पास इसकी शिकायत लेकर गए तो उसने कहा कि तुम्हारा नाम बहुत लंबा है, इसलिए मैंने इसे बदल दिया.

सैम ने सोचा कि कोई कैसे उनकी मर्ज़ी के बगैर उनका नाम बदल सकता है लेकिन फिर उनको ख़्याल आया कि अगर वो चेक में नाम बदलने पर ज़ोर देंगे तो उन्हें इसे भुनाने में दो हफ़्ते और लग जाएंगे.

ये नाम उनसे चिपक गया और वो सत्यनारायण से सैम हो गए.

भारत में आईटी क्रांति

सैम पित्रोदा, राजीव गांधी और अर्जुन सिंह.
इमेज कैप्शन,सैम पित्रोदा, राजीव गांधी और अर्जुन सिंह

1974 में सैम पित्रोदा दुनिया की सबसे पहली डिजिटल कंपनियों में से एक विस्कॉम स्विचिंग में काम करने लगे.

1980 में रॉकवेल इंटरनेशनल ने इसे ख़रीद लिया. सैम इस कंपनी के वाइस प्रेसिडेंट बन गए और इसमें उनकी हिस्सेदारी भी हो गई.

उन्होंने इसे बेचने का फ़ैसला किया और मुआवज़े में उन्हें चालीस लाख डॉलर मिले. 1980 में वो दिल्ली आए.

इससे पहले वो पंद्रह साल की उम्र में एक कॉलेज टूर पर सिर्फ़ दो दिन के लिए दिल्ली आए थे.

वो उस समय दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ ताज होटल में रुके हुए थे. वहाँ पहुंचते ही उन्होंने अपनी पत्नी अनु को टेलीफ़ोन करने की कोशिश की, लेकिन टेलीफ़ोन लगा ही नहीं.

अगले दिन सुबह जब उन्होंने अपने होटल की खिड़की से झाँका तो देखा कि नीचे सड़क पर डेड फ़ोन की एक सांकेतिक शव यात्रा निकल रही है.

शव की जगह टूटे हुए, काम न करने वाले फ़ोन रखे हुए थे और लोग ज़ोर-ज़ोर से नारे लगा रहे थे. सैम ने उसी समय तय किया कि वो भारत की टेलीफ़ोन व्यवस्था को ठीक करेंगे.

26 अप्रैल, 1984 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सी-डॉट की शुरुआत की मंज़ूरी दी. सैम को एक रुपए वार्षिक वेतन पर सी-डॉट का प्रमुख बनाया गया.

सैम बताते हैं, “रूज़वेल्ट के समय में अमेरिका में लोगों ने देश को अपनी मुफ़्त सेवाएं दी थीं. हमारे जो दोस्त यहाँ थे रजनी कोठारी, आशीष नंदी, धीरू भाई सेठ उन सबने कहा कि अगर तुम्हें देश की सेवा करनी हो तो दिल लगा कर काम करो.”

वो कहते हैं, “मैंने सोचा कि ये समय भारत को देने का है, उससे लेने का नहीं. भारत ने मुझे बहुत कुछ दिया था. मैंने दस डॉलर में यहाँ से मास्टर्स किया फ़िज़िक्स में. उस ज़माने में तनख़्वाह तो बहुत थी नहीं. दस हज़ार रुपए महीने तनख़्वाह ले कर मैं क्या करता?”

इससे पहले सैम ने इंदिरा गाँधी और उनके मंत्रिमंडल के सामने एक घंटे का प्रेज़ेंटेशन दिया.

सैम पित्रोदा

सैम कहते हैं, “हमने बंगलौर में हार्डवेयर डिज़ाइन करना शुरू किया. सॉफ़्टवेयर के लिए हमें दिल्ली में जगह नहीं मिल रही थी. राजीव गांधी ने सलाह दी कि आप एशियाड विलेज जाइए. जगह तो अच्छी थी लेकिन वहाँ एयरकंडीशनिंग नहीं थी. दिल्ली की गर्मी में एयरकंडीशनिंग न हो तो सॉफ़्टवेयर का काम नहीं हो सकता था. अकबर होटल में जगह ख़ाली थी. हमने वहाँ दो फ़्लोर ले लिए.”

वो बताते हैं, “शुरू में फ़र्नीचर नहीं था. हमने छह महीने तक खटिया पर बैठ कर काम किया. हमने 400 युवा इंजीनियरों को भर्ती किया. उन्हें ट्रेन किया. पता चला कि इनमें कोई लड़की नहीं है. फिर लड़कियों को लाया गया उसमें.”

कुछ ही महीनों में भारत के हर गली कूचे में पीले रंग के एसटीडी या पीसीओ बूथ दिखाई देने लगे. इस पूरे अभियान में बीस लाख लोगों को रोज़गार मिला, ख़ास तौर पर पिछड़े और शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को.

फ़ोन भारतीय लोगों की सामाजिक गतिविधियों का केंद्र बन गए. बूथ चलाने वाले लोगों ने वहाँ पर सिगरेट, टॉफ़ियाँ और यहाँ तक कि दूध भी बेचना शुरू कर दिया. टेलीफ़ोन अब विलासिता की चीज़ न रह कर रोज़मर्रा की ज़रूरत की चीज़ बन गया.

सैम बताते हैं, “हमने पहले ग्रामीण एक्सचेंज बनाया. फिर बड़ा डिजिटल एक्सचेंज बनाया. फिर तो दूर संचार क्रांति शुरू हो गई क्योंकि लोग कुशल हो गए. वो बीज था जो हमने बोया. हर शख्स जिसने कभी सी-डॉट में काम किया, वो आज या तो कोई बड़ा मैनेजर है, प्रोफ़ेसर है या उद्यमी है. हमने एक दक्षता पैदा की और फिर मल्टीप्लायर प्रभाव शुरू हो गया.”

सॉफ़्टवेयर कंसल्टिंग को भारत में शुरू किया

पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह के साथ सैम पित्रोदा.
इमेज कैप्शन,पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह के साथ सैम पित्रोदा.

इस बीच सैम को ‘टेलीकॉम आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया. उस दौरान मशहूर कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक के अध्यक्ष जैक वेल्च भारत आए. वो राजीव गांधी से मिलने वाले थे लेकिन वो किसी ज़रूरी काम में व्यस्त थे.

उन्होंने सैम को उनसे मिलने भेजा. सैम ने उन्हें नाश्ते पर आमंत्रित किया. वेल्च ने पहला सवाल किया, “हमारे लिए आपके पास क्या प्रस्ताव है?”

सैम ने कहा, “हम आपको सॉफ़्टवेयर बेचना चाहते हैं.” वेल्च बोले, “लेकिन हम तो यहाँ सॉफ़्टवेयर ख़रीदने नहीं आए हैं. हमारी मंशा तो आपको इंजन बेचने की है.”

सैम ने कहा कि हमारा आपसे इंजन ख़रीदने का कोई इरादा नहीं है. वेल्च ने कहा कि हम इतनी दूर से जिस काम के लिए आए हैं, आप उस पर बात तक करने के लिए तैयार नहीं हैं. अब क्या किया जाए?

सैम ने कहा आइए नाश्ता करते हैं. लंबी चुप्पी के बाद वेल्च ने कहा, “बताइए आप सॉफ़्टवेयर के बारे में कुछ कह रहे थे.” सैम ने 35 एमएम की स्लाइड पर अपना प्रेजेंटेशन शुरू किया.

वेल्च ने उसके एक-एक शब्द को ग़ौर से सुना और कहा, “आप हमसे क्या चाहते हैं?”

सैम का जवाब था, “एक करोड़ डॉलर का सॉफ़्टवेयर का ऑर्डर.” वेल्च ने कहा, “मैं अपनी कंपनी के चोटी के ग्यारह लोगों को आपके पास भेजूँगा. आप उन्हें कनविंस करिए कि आपके प्रस्ताव में दम है.”

एक महीने बाद जीई के चोटी के अधिकारी दिल्ली पहुंचे. सैम ने उस समय नई-नई बनी कंपनी इंफ़ोसिस के साथ उनकी बैठक तय की. इंफ़ोसिस ने कहा कि उनका तो कोई दफ़्तर भी नहीं है.

सैम ने कहा आप जीई वालों को ये बात मत बताइए और उनसे किसी पांच सितारा होटल में मिलिए. वो बैठक हुई और जीई ने एक करोड़ डॉलर का सॉफ़्टवेयर का पहला ऑर्डर दिया और यहीं से भारत के सॉफ़्टवेयर कंसल्टिंग उद्योग की नींव रखी गई.

राजीव की मौत और अमेरिका वापसी

राजीव गांधी
इमेज कैप्शन,पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी

21, मई, 1991 को अचानक राजीव गाँधी की हत्या हो गई. इसके बाद सैम का भारत में मन नहीं लगा.

सैम याद करते हैं, “हमने सिर्फ़ एक प्रधानमंत्री ही नहीं खोया, मैंने अपना सबसे प्यारा दोस्त खो दिया. ये एक इच्छा और एक सपने का अंत था. मैंने अपनी नागरिकता तक बदल दी थी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए.”

“मेरे सामने अंधेरा ही अंधेरा था और तभी मैंने पाया कि तब तक मेरे सारे पैसे ख़त्म हो गए थे. मैंने पिछले दस साल से कोई वेतन नहीं लिया था. मैंने सोचा कि अब समय आ गया है वापस अमेरिका जाने का.”

ये बात सुनने में थोड़ी अजीब सा लग सकती है कि सैम पित्रोदा ने काम करने की धुन में 1965 के बाद से कोई फिल्म नहीं देखी थी.

उनके नज़दीकी दोस्त और पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी बताते हैं, “सैम पित्रोदा न तो शॉपिंग करने जाते हैं, न ही किसी जन्मदिन पार्टी में जाते हैं और न ही कभी फ़िल्म देखने जाते हैं. एक बार वो मेरे घर पर रुके हुए थे. उनकी पत्नी अनु भी उनके साथ थीं. मैंने उनसे कहा, चलिए फ़िल्म देखी जाए. सैम ने कहा फ़िल्म और मेरा दूर-दूर का वास्ता नहीं है. लेकिन मैं उन्हें ज़बरदस्ती थ्री ईडियट्स फ़िल्म दिखाने ले गया.”

“जब हम फ़िल्म देख कर बाहर निकले तो अनु ने कहा आप का बहुत-बहुत धन्यवाद. मैंने कहा धन्यवाद देने की क्या ज़रूरत है. अनु ने कहा कि चालीस साल की वैवाहिक ज़िंदगी में हमने पहली बार साथ में कोई फ़िल्म देखी है.”

सैम पित्रोदा बचपन से तबला बजाते हैं, चित्रकारी करते हैं और बेहतरीन संगीत सुनते हैं. ग़जलें सुनना उन्हें बेहद पसंद है.

इकोनॉमिस्ट और वॉल स्ट्रीट जर्नल पढ़ना उन्हें पसंद है. कुछ साल पहले वियना में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी. संगीत सुनने का उन्हें बहुत शौक है ख़ासतौर से ड्राइव करते हुए.

बचपन में उन्होंने जो फ़िल्में देखीं थीं पचास के दशक में ‘बरसात’, ‘नागिन’, ‘काग़ज़ के फूल’… ‘प्यासा’ और जब भी इन फ़िल्मों के गीत वो सुनते हैं, अपने आप को गुनगुनाने से नहीं रोक पाते.

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