अग्नि आलोक
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सवाल आम मतदाता का?

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शशिकांत गुप्ते

देश के एक मतदाता की जिज्ञासा है। मेरे समक्ष प्रश्न है,किसे वोट दु?
पहले मै चुनाव चिन्ह पर मुहर लगता था,अब एक मशीन में बटन दबाना पड़ता है। पांच सालों में एक बार यह कर्तव्य निभाना है। इसे मतदान कहते हैं। मैं आम मतदाता हूँ,अर्थात साधरण आदमी, यह स्पष्ट करना जरूर है, ग़लती से लोग कहीं झाड़ू वाला आदमी तो नहीं समझें,छोड़ो राजनीति की बातें।
मुद्दे की बात यह है कि, मुझे लोकतंत्र में आपने मतदान के अधिकार को निभाना है।
मत देने को दान कहना मेरे गले नहीं उतरता है।
मेरी क्या औकात मैं किसी राजनेता को दान दु? मैने दान शब्द पर बहुत गहराई से सोचा,गुगलबाबा से पता चला मनुस्मृति में लिखा है,”अपनी अनिवार्य आवश्यकताए संतोषजनक रूप से पूर्ण होने के बाद जो अतिरिक्त (Surplus) बचे उसे दान कहतें हैं।
यहाँ तो रोजमर्रा के खर्च की पूर्ति ही नहीं होती है।
मुझे तो किसी भी दल का घोषणा पत्र तो मिलता नहीं है।
यदि मिल भी जाए तो मैं किससे पूछूं,घोषणापत्र में किए गए वादे पूरे क्यों नहीं हुए? चुनाव के दौरान अमूल्य मत प्राप्त करने के लिए किए गए वादे जुमलों में कैसे बदल जातें हैं?
जो प्रचार करने आते हैं वे बेचारे बंधुआ मजदूर होते है,इनमे अधिकांश डेली वेजेस वाले मजदूर ही होतें हैं।
प्रत्याशी से घोषणा पत्र के बारे पूछना व्यर्थ है,कारण चुनाव के दौरान वह मतदाता के पाँव छूता है। मतदाता भाव विभोर हो जाता है। प्रत्याशी तो पाँव छू कर पाँच सालों के लिऐ रफ़ूचक्कर हो जाता है।
मै तो मतदान के महत्व को समझता हूँ। लेकिन मै जिसे मतदान करता हूँ। वह प्रत्याशी चुनाव जीतने के बाद उसी दल में रहेगा यह गारंटी नहीं है।
जीतने वाले प्रत्याशी को मतदाता के अमूल्य मत से ज्यादा दूसरें दल से मिलने वाली गोपनीय कीमत अमूल्य लगती है।
चुनाव जीतने के बाद दलबदल करने प्रक्रिया में पेटी और खोंको की सांकेतिक भाषा का उपयोग होता है। आम मतदाता का मत कितना ही अमूल्य क्यों न हो,पेटियों (लेखों) और खोंको (करोडों) के सौदों के आगे मूल्यहीन हो जाता है।
यह सौदा किसी पर्यटन स्थल पर विलासिता पूर्ण भ्रमण करते हुए, बाकायदा मेहमान नवाजी का लुफ्त उठातें हुए,नाचतें गातें किया जाता है।
लोकतंत्र में कबतक अमूल्य मत का दुरुपयोग होगा?
इनदिनों चुनाव प्रचार के दौरान सभी अन्य दलों से स्वयं की अलग पहचान रखने वाले दल के आजीवन मुखिया का वक्तव्य अमूल्य मत की अवहेलना प्रतीत होता है। इन महाशय का कहना है कि आप यदि अमुक दल को वोट दोगे तो आपका वोट फालतू होगा? अमूल्य वोट के इस अवहेलना वाले वक्तव्य सुनने के बाद मतदाता किसी पालतू उम्मीदवार को कैसे ढूंढेगा?
आम जनता की मूलभूत समस्याएं उपर्युक्त प्रक्रिया में खो जाती है?
युद्ध,प्रेम,खेल और राजनीति में सब जायज़ है। यह कहावत स्वार्थ पूर्ति के लिए पर्याप्त है। कबतक यह अहम सवाल?

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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