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भगवा-वस्त्र में लिपटी रामदेव की धोखाधड़ी के गहरे हैं निहितार्थ

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आलोक राय

रामदेव की ‘‘मूर्खता’’ की नवीनतम खेप के बाजार में आते ही अच्छे डाक्टरों की कसरत शुरू हो गई है- उन्होंने रामदेव पर 1000 करोड़ रुपये का मानहानि का दावा ठोक दिया है। जो भी हो, बार-बार होने वाला यह अत्याचार एक बार फिर उस सवाल को सतह पर ले आया है जो पिछले 7 साल से हम में से बहुतों को परेशान करता रहा है- सरकार की छत्रछाया में और मंत्रियों की मौजूदगी में होने वाले रामदेव के इन प्रसारणों और भगवा-वस्त्रों में लिपटी तमाम तरह की दूसरी धोखाधड़ी का हम क्या करें? क्या इसके पीछे कोई छल योजना है कि आधुनिक विज्ञान और आधुनिक पश्चिमी चिकित्सा पद्धति की शेखी भरी उपलब्धियों की काट के तौर पर मिथकीय ‘‘प्राचीन भारत’’ के पिटारे से वे हर बार मूर्खता की कोई बेशकीमती डली खोज लाते हैं। मोदी का गणेश को प्राचीन शल्य चिकित्सा का प्रमाण बताना इसका महज एक उदाहरण है।

ईमानदारी से बात करें तो हमारे देश में आधुनिक ‘पश्चिमी’ चिकित्सा को संदेह की नजर से देखने का लम्बा इतिहास रहा है जो उपनिवेशवाद विरोधी विचारधारा के साथ गुंथा रहा है। गांधी का टीकाकरण को वर्जित बताना सर्वविदित है। इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि विभिन्न महामारियों के दौरान जब उपनिवेशों की सरकार द्वारा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दवा-इलाज करने की कोशिश की गई तो गुलाम जनता ने उसका प्रतिरोध किया। अतः, एक अर्थ में, रामदेव उस पुरानी अंधविश्वासी और अतार्किक परम्परा के एक प्रवक्ता मात्र हैं। लेकिन उपनिवेशवाद विरोधी प्रतिरोध का संदर्भ भी गुंथा हुआ होना इस प्रवृत्ति को नाहक वैधता प्रदान करता है।

और चिकित्सा की वास्तविक पद्धतियां- आयुर्वेद और अन्य परंपरागत चिकित्सा पद्धतियां जो प्रेक्षण और प्रयोग के जरिये हासिल अनुभवसंगत ज्ञान पर आधारित उत्कृष्ट पद्धतियां हैं- उन रक्षात्मक अंधविश्वासों की कीचड़ में लिथड़ जाती हैं जिनका लम्बे समय से उपेक्षित जनगण सहारा लेने के लिए तब भी बाध्य थे और अब भी हैं। मूलतः, फर्जी ‘‘परम्पराएं’’ प्रामाणिक परंपराओं की बदनामी की वजह बनती हैं। आर्यभट्ट के वारिस विषाणु रूपी भगवान को खुश करने के लिए थाली बजाने लगते हैं।

इसकी सबसे बड़ी वजह अज्ञानता है। अर्द्ध-शिक्षित लोगों के बीच प्रामाणिकता और बुद्धिमत्ता की गारण्टी के लिए लम्बे समय से छद्म-संस्कृत, छद्म-‘‘परंपराओं’’ और ‘‘संस्कृत’’ शब्दकोश के कुछ तत्सम् शब्दों की मदद ली जाती है। इस कड़वी सच्चाई को प्रेमचन्द की ‘सद्गति’ कहानी में देखा जा सकता है जिसमें गांव का एक गरीब ‘परंपरा’ के प्रतीक पंडित जी को अपनी खून पसीने की कमाई पेश कर देता है। लेकिन क्या इन धारावाहिक प्रसारणों के पीछे कुछ और भी है? क्या हमारी समस्या सार्वजनिक मूर्खता है या हमारा समाज मूर्खता का बागीचा है? आखिर, हमारी मौजूदा व्यवस्था के शीर्ष पर बैठी टोली में मात्र क्षमता का आम संकट ही इतना गहरा है कि हर कोई उसे देख सकता है। या फिर मूर्खता का यह दुर्जेय गठजोड़ किसी गहरी साजिश का मोहरा है?

इस ‘‘गहरी साजिश’’ को आमतौर पर जनता के विशालकाय अनपढ़ हिस्से के कल्पित विश्वासों को लेकर इस मान्यता के सन्दर्भ में समझा जा सकता है: लोगों को वही दो जो वे चाहते हैं। अपने लोगों के बारे में मेरी पक्की समझ है कि वे उससे कहीं ज्यादा समझदार और विविधतापूर्ण हैं जैसा आमतौर पर उनके बारे में सोचा जाता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की जानबूझकर की गयी तबाही उन्हें किसी झोला छाप की शरण में जाने को विवश करती है लेकिन उन्हें डाक्टर की योग्यता की परख है, बशर्ते की वह उन्हें नसीब हो। ये ढोंगी बाबा – रामेदव, श्री श्री, जग्गी वासुदेव – सीधे-सरल लोगों को अंधविश्वासों की लोरी गाकर सुला सकते हैं, लेकिन नहीं, इसका कुटिल उद्देश्य दरअसल सवर्ण हिंदू मध्यवर्ग को एक तरह का आश्वासन प्रदान करना है।

सबसे सतही तौर पर, यह उनके सांस्कृतिक दर्प को तुष्ट करता है जो ठीक इस वजह से अभेद्य है क्योंकि इसकी नींव उस ‘‘प्राचीन भारत’’ के बारे में उनके परम अज्ञान पर रखी गयी है, जो उनके इस दिखावटी और खोखले ‘गर्व’ का आधार है। बुद्धिमान ‘ऋषियों’ और कामुक ‘अप्सराओं’ से भरी यह मिथकीय दुनिया तमाम अच्छी चीजों का भंडार घर है। इसके भी आगे और यह महत्वपूर्ण है कि यह वह संदर्भ प्रदान करता है जिसके बल पर ‘‘मुस्लिम’’ मध्यकाल को दर्दनाक ढंग से हमारे इतिहास से तोड़ कर अनंत पाताल में धकेल दिया जाता है – जिसकी हमारी आश्चर्यजनक उपलब्धियों के बारे में हमें अभी हाल ही में पता चल रहा है।

दरअसल, यह बेहद वाहियात बात है लेकिन यह बहुत काम करती है। यह कल्पित ‘‘काला दौर’’ संयोगवश रिचार्ड ईटन का ‘‘फारसी युग’’ भी है और जिसे हम अपनी महान संस्कृति मानते हैं उसका अधिकांश इसी दौर में पैदा हुआ है। पिछले 7 सालों में बार-बार मैंने इस सवाल पर गौर किया है कि क्या ये लोग वास्तव में धूर्त हैं या वे केवल मूर्ख हैं या दरअसल वे मूर्खता और धूर्तता की कोई संकर नस्ल हैं? कोविड महामारी के संदर्भ में हमारे हीरो- डाक्टर और नर्सों को कहे गये अपशब्द और उनका सरासर अपमान – इस अनुपात को ‘‘मूर्खता’’ की ओर झुकाता है। लेकिन अगले ही हफ्ते उनकी लक्ष्यद्वीप में की जा रही पैंतरेबाजी सामने आती है और अचानक पलड़ा ‘‘धूर्तता’’ की ओर झुक जाता है।

लेकिन इस सांस्कृतिक एजेण्डा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा जिसे इस बकवास के जरिये हासिल करने की कोशिश की जाती है वह है जादू और अंधविश्वास के पृष्ठपेषण के लिए तर्क और विवेक का सनक भरा विनाश। यह अज्ञान है पर अज्ञान को हथियार बना दिया गया है। सदियों के सांस्कृतिक विमर्श के परिणामस्वरूप सवर्ण हिंदू समाज-व्यवस्था की वैधता छीजती जा रही थी। भक्ति आंदोलन ने इसे जो चोट पहुंचायी उसे औपनिवेशिक सरपरस्ती में आधुनिकता की ताकतों ने – समानता, निजता  और तार्किकता के विचारों ने – और गहरा किया और स्थायी बनाया। पीछे हटती हुई हिंदू सवर्ण जातियां, जो अपने वर्चस्व की वैधता खो चुकी थीं, आत्मरक्षा के लिए मजबूरन अतार्किकता की ओर मुड़ीं – भले ही वे आधुनिकता और विज्ञान द्वारा सामने लायी गयी तुच्छतम चीजें ही क्यों न हों। परिणामस्वरूप बुरी आस्था के लिए स्थायी परिस्थितियां पैदा होने लगीं जिसे मनोवैज्ञानिक ‘संज्ञानात्मक मतभेद की सहिष्णुता’ के रूप में चिन्हित करते हैं – परमाणु वैज्ञानिकों द्वारा अग्निदेवता की मनुहार करना और ऐसी तमाम दूसरी बातें। परस्पर-विरोधी और बेमेल विश्वासों को मन में रखने की इस क्षमता का दूसरा पहलू है एक गहरी अनैतिकता – जो इस खुल्लम खुल्ला अन्याय पर आधारित समाज-व्यवस्था का फायदा उठाने वालों की आवश्यक अनुक्रिया (response) है।

‘‘बुरी आस्था’’ किन बातों से बनती है इसका ब्योरा बेहद उलझा हुआ है। लेकिन बुरी आस्था का सार यह है कि इसमें फंसकर आदमी को वह सब करना पड़ता है जिसे वह गलत मानता है। इस तरह यह ‘‘अच्छी आस्था’’ के एकदम उलट है – जहां गलती मासूम होती है और भूलें सच्ची। और शायद इसीलिए हमारी मौजूदा भारतीय परिस्थिति से उबरने की एकमात्र कुंजी है उन अकाट्य और अकल्पनीय प्रश्नों को पूछना – मसलन बुरी आस्था को लम्बे समय तक जीने और उसके अनुरूप व्यवहार करने के दूरगामी परिणाम क्या हैं? चतुर टिप्पणीकारों ने पहले ही हमें इस संभावना – या यथार्थ? – के बारे में चेताया था – एक ऐसी परिस्थिति के बारे में जो बुरी आस्था के भी आगे बढ़ जाती है।

इस परिस्थिति में, जिसे अभी कोई नाम नहीं दिया गया है, सही-गलत का विवेक ही कमजोर पड़ जाता है – और अगर कोई उसे वापस पाने की कोशिश करता है तो उसे दुख और तकलीफ से दो-चार होना पड़ता है – ठीक एक फिजियोथेरेपिस्ट की तरह जिसे मरीज की शारीरिक क्षमताओं को बहाल करने की प्रक्रिया में उसको ऐसे ‘‘व्यायाम’’ करवाने पड़ते हैं जो उसके लिए बेहद तकलीफदेह भी हो सकते हैं। रामदेव इत्यादि के खोखले दावों का पृष्ठपेषण करते समय वर्तमान सत्ता-प्रतिष्ठान महज अपने केंद्रीय हिंदू-सवर्ण आधार को यह संकेत देना चाहता है कि अन्याय पर आधारित इस अरक्षणीय समाज व्यवस्था के बचाव के लिए जरूरी तमाम सनक भरे तीर उसके तरकश में मौजूद हैं।

(आलोक राय दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में पढ़ाते हैं। 3 जून को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित और साभार लिए गए इस लेख का हिंदी अनुवाद ज्ञानेंद्र ने किया है।)

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