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रवि मिश्रा का पहला काव्य संग्रह ‘अधूरे से पूरे’….तमाम आयामों को अभिव्यक्त भी किया है बहुत बारीकी से अपनी पंक्तियों में

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आतुल सिन्हा

कविताएं तो खूब लिखी जाती हैं – हर रंग की, हर मूड की और जीवन के हर पहलू पर। लेकिन अगर आप युवा कवि रवि मिश्रा के रचना संसार को देखेंगे तो आपको उनके पहले ही संग्रह ‘अधूरे से पूरे’ में बहुत व्यापकता नजर आएगी। एक टीवी एंकर होते हुए भी रवि मिश्रा की खासियत है कि उन्होंने अपने भीतर के संवेदनशील रचनाकार को न सिर्फ जीवित रखा है, बाकायदा तमाम आयामों को बहुत बारीकी से अपनी पंक्तियों में अभिव्यक्त भी किया है।

संग्रह पर बात करने से पहले ज़रा रवि मिश्रा की कुछ पंक्तियों पर नज़र डालते हैं

झूठ के बाज़ार में देखो कितना शोर है
मेरे ही कातिल का मातम चारों ओर है

झूठ को ही सच कहना है
यही अब सबका गहना है

मंदिरों-मस्जिदों में मेरा दर कहां
जहां बसे इनसान मेरा तो घर वहां

वैसे तो रवि ने अपने संग्रह को दस हिस्सों में बांटा है लेकिन इसके आखिरी हिस्से में उनके कुछ शेर आपको प्रभावित करेंगे। हालांकि अभी इस विधा में रवि को और काम करने की ज़रूरत है। संग्रह में प्रेम कविताएं हैं, कुछ आत्मकथ्य हैं, शहर और गांव का फर्क है, कुदरत से बातें हैं तो मौजूदा सामाजिक राजनीतिक स्थितियों पर चोट करती और कुछ नई उम्मीद पालती कविताएं भी हैं।

रवि की प्रेम कविताएं कुछ अलग हैं, यहां नायिका नहीं है और प्रेम की एक बेहतर और व्यापक परिभाषा गढ़ने की कोशिश है।

अकसर,
सबसे प्यारे मन,
सबसे निश्छल भाव,
सबसे समर्पित प्रेम,
सबसे ज्यादा ठुकराए जाते हैं…

या फिर हमारी प्रेम कहानी, तेरे बिन शायद, हृदय को तब छलोगे, तुम कह रही हो जैसी कविताओं में भी आपको कुछ गहरे भाव नजर आएंगे। खुद से खुद की बात के तहत कुछ बेहतरीन कविताएं हैं जो मन के भीतर के अकेलेपन के साथ एक खास किस्म के आध्यात्मिक दर्शन को भी सामने लाने की कोशिश करती हैं। इंतजार कबतक, छूटी हुई बातें, दौड़ता हूं रेत पर, मन की यात्रा या फिर एक दिन तो मर जाना है.. ऐसी तमाम कविताएं हैं जो आपको किसी और दुनिया में ले जाती हैं।

रवि मिश्रा ने अपने एक ही संग्रह में अपने भीतर छुपे तमाम रचनात्मक आयामों को सामने लाने की कोशिश की है। खासकर कुछ क्लासिक अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद करके। इनमें स्वामी विवेकानंद की चर्चीत कविता- द कप. रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता – वेयर द माइंड इज विदाउट फियर (भयमुक्त मन हो जहां), रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता – स्टॉपिंग बाई वुड्स आन अ स्नोइंग इवनिंग, जिसे रवि ने शीर्षक दिया है – ये जंगल ठहरने को कहता है और एलेग्जेंडर पोप की कविता – एक शांत जीवन। बेशक इन कविताओं के भावों को हिन्दी में अभिव्यक्त करना एक संवेदनशील कवि के बस की ही बात है।

और जो सबसे अहम खंड है वह है भोजपुरी कविताओं का। छपरा में जन्में रवि बेशक कामकाज के सिलसिले में हैदराबाद या दिल्ली में रहे और एक लंबा वक्त इन महानगरों को देखते समझते गुजारा, लेकिन उनके भीतर वही जमीन और वही सांसे अब भी हैं जिसकी बुनियाद भोजपुरी है। इस खंड का नाम भी है – भोजपुरी में त प्राण बसेला। इसकी पंद्रह कविताओं में हर रंग है। भोजपुरी पर लिखी कविता – भोजपुरी का ह इस भाषा में छुपे अपनेपन का एहसास कराती है। वहीं फिर लौट आव तू, अबकी फगुनवा में, बात बनत जाई हो या फिर संसद और मशाल जलत रहे भाई जैसी कविता में रवि की व्यापक दृष्टि नजर आती है।

जाहिर है आज के दौर में जिस तरह की कविताएं लिखी जा रही हैं और जिस तरह के संग्रह आ रहे हैं उस भीड़ में रवि मिश्रा का संग्रह ‘अधूरे से पूरे’ एक नई जगह बनाता है और नई पीढ़ी के कवियों में इस युवा कवि को स्थापित करने की उम्मीद जगाता है।

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