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वैदिक दर्शन एवं विज्ञान में सुषुप्ति और स्वप्न

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       डॉ. विकास मानव 

     निद्रा के आवेश में मनुष्य के अन्दर क्या हो रहा है यह जानना बहुत कठिन है। जागने पर भी कुछ स्मरण नहीं रहता कि रात्रि में क्या-क्या हुआ। केवल कुछ अनुभूति रह जाती है कि नींद सुखद थी या दुःखद, या फिर सपने का कुछ अंश मस्तिष्क में रह जाता है। हां, कभी-कभी स्वप्न हमें झकझोर देता है, और उठने पर भी हमें पूरा याद रहता है। तथापि निद्रा का बहुत छोटा अंश ही हम जान पाते हैं। परन्तु प्राचीन ग्रन्थों में इसका भी खुलासा किया गया है, और अचम्भे की बात यह है कि आधुनिक विज्ञान भी आज कुछ उसी भाषा में बोल रहा है। 

*निद्रा विवेचन :*

      भारत में प्राचीन काल से निद्रावस्था के दो भाग किए गए हैं – सुषुप्ति व स्वप्न। इन दोनों में क्या भेद है, यह भी कई ग्रन्थों में पाया जाता है।

सुषुप्तस्य स्वप्नादर्शने क्लेशाभावादपवर्गः॥

 ~न्यायदर्शनम् (४।१।६३)

     अर्थात् सुषुप्त मनुष्य के स्वप्न न देखने पर क्लेश के अभाव से अपवर्ग (मोक्ष) की सिद्धि होती है। मोक्ष विषय को यहां छोड़ दें, तो यहां बताया जा रहा है कि निद्रा की दो अवस्थाएं हैं – सुषुप्ति और स्वप्न, जिसमें सुषुप्ति के समय में स्वप्न नहीं दीखते और क्लेश (दुःख) नहीं होते। 

     अर्थापत्ति से हम समझ सकते हैं कि एक दूसरी अवस्था होती है जिसमें स्वप्न देखे जाते हैं, और साथ-साथ क्लेश भी होते हैं। इस प्रकार दोनों अवस्थाओं का प्रमाण हमें यहां मिल जाता है।

प्रश्नोपनिषद् इन दो अवस्थाओं का स्पष्टतम वर्णन देता है :

   अत्रैष देवः स्वप्ने महिमानमनुभवति। यद्दृष्टं दृष्टमनुपश्यति श्रुतं श्रुतमेवार्थमनुशृणोति देशदिगन्तरैश्च प्रत्यनुभूतं पुनः पुनः प्रत्यनुभवति। 

दृष्टं चादृष्टं च श्रुतं चाश्रुतं चानुभूतं चाननुभूतं च सच्चासच्च सर्वं पश्यति सर्वः पश्यति॥ 

स यदा तेजसाभिभूतो भवत्यत्रैष देवः स्वप्नान् न पश्त्यथ तदैतस्मिञ्छरीरे एतत् सुखं भवति. ॥४।५-६॥

     प्रकरणानुसार इस अंश का अर्थ इस प्रकार है :

    मनरूपी देव स्वप्नावस्था में महत्त्व को प्राप्त होता है, अर्थात् अन्य देव जो पूर्व काण्डिकाओं में गिनाए गए हैं – पञ्च महाभूत, पञ्च ज्ञानेन्द्रियां, पञ्च कर्मेन्द्रियां व पञ्च प्राण – इन सबसे से बढ़-चढ़ कर हो जाता है। तब, जो-जो दिनभर में, अथवा पूर्व काल में भी, देखा-सुना-अनुभव किया होता है, उसे स्वप्न के माध्यम से पुनः पुनः अनुभव करता है। 

    प्रत्युत जो न भी देखा-सुना-अनुभव किया होता है, जो विद्यमान कभी था भी या नही, सभी को चतुष्कोणीय मन (बुद्धि, मन, चित्त व अहङ्कार वाला) सब बन कर देखता है, अनुभव करता है। फिर जब वह उदान प्राण से अभिभूत हो जाता है तब वह मन स्वप्न नहीं देखता है। तब उसे इस शरीर में निद्रा का सुख प्राप्त होता है।

      यहां भी निद्रा के दो भाग बताए गए हैं – प्रथम स्वप्नावस्था, द्वितीय सुषुप्ति। सुषुप्ति को नाम से नहीं कहा गया है, परन्तु यही यहां अभिप्रेत है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

      फिर स्वप्नावस्था के वर्णन में बताया गया है कि मन की चित्तरूपी स्मृति में जो भरा हुआ है, उसके कुछ भाग को लेकर, उसमें नए अंश जोड़कर, मन का बुद्धि भाग नई कहानियां बुन देता है, जिसके कुछ पात्रों में अहंभाव (यह मैं हूं, ऐसा जानना) भी होता है।

     इस अहंकार के कारण, मन में संवेदनाएं भी होती हैं – सुख, दुःख, इत्यादि। ये ही वे क्लेश हैं जिनको न्यायदर्शन में कहा गया था। इस पूरी प्रक्रिया में अन्य इन्द्रियां सोई ही पड़ी रहती हैं, उनका कोई योगदान नहीं होता – न तो हम कुछ देखते हैं, न सुनते हैं, न बोलते, न चलते हैं, प्रत्युत ये सब ज्ञान- व कर्म-इन्द्रियां मन में ही समाहित हो जाती है.

 प्रश्नोपनिषद् की पूर्व कण्डिका हमें बताती है :

     एवं ह वै तत् सर्वं परे देवे मनस्येकीभवन्ति। तेन तर्ह्येष पुरुषो न शृणोति न पश्यति न जिघ्रति न रसयते न स्पृशते नाभिवदते नादत्ते नानन्दयते न विसृजते नेयायते स्वपितीत्याचक्षते.॥४।२॥

       यह मन का वह भाग होता है जो कि इन्द्रियों से सम्बद्ध होता है, जिसे भी मन कहते हैं। 

     वस्तुतः, मन का यह भाग प्रसुप्त हो जाता है। मन के अन्य तीन भाग अपने आप ही इन्द्रियों का कार्य भी कर लेते हैं, और उसका अनुभव भी कर लेते हैं। इसीलिए ‘मन महिमा को प्राप्त होता है’, ऐसा पूर्व कण्डिका में कहा गया है।

 महर्षि पिप्पलाद कहते हैं कि सुषुप्ति में वह मन-देव स्वप्न भी देखना बन्द कर देता है, सभी कार्य करना बन्द कर देता है। इस विश्राम से उसको सुख प्राप्त होता है, जिस सुख का ज्ञान हमें निद्रा से उठने पर होता है। यहां कहा जा सकता है कि सुख तो जीवात्मा को होता है, आप मन में सुख बता रही हैं.

     सो, पहले अनुभूति मस्तिष्क में ही होती है। उसको राग = सुख अथवा द्वेष = दुःख से लिप्त करके बुद्धि आत्मा को देती है, जिन ‘रंगों’ को आत्मा फिर अपने में अनुभव करने लगता है। इसीलिए विश्राम करने का सुख आत्मा के ज्ञान में आता है, जबकि आवश्यकता तो वह शरीर की है।

माण्डूक्योपनिषद् में भी इन दो निद्रावस्थाओं का स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है। जबकि इन अवस्थाओं द्वारा ईश्वर की व्याख्या की गई है, परन्तु उस व्याख्या से इन स्थितियों का ज्ञान भी प्रदान किया गया है। स्वप्नावस्था के विषय में ऋषि कहते हैं :

    स्वप्नस्थानो अन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः प्रविविक्तभुक् तैजसो द्वितीय पादः॥

    स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षादुभयत्वाद्वोत्कर्षति ह वै ज्ञानसन्ततिं समानश्च भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति य एवं वेद॥   

    ~माण्डूक्योपनिषद् (४, १०)

     यहां, पहली कण्डिका में स्वप्नावस्था में मन को अन्तःप्रज्ञ अर्थात् अन्तर्मुखी बताया है, जो कि विशेष प्रकार से विभाजित सूक्ष्मांश का भोग (प्रविविक्तभुक्) करता है।

      इस ‘प्रविविक्तभुक्’ से मन/चित्त में स्थित स्मृतियों को इंगित किया गया है जिनको उलट-पलट के और नए अंश को जोड़कर बुद्धि भोग करती है । मन की इन ‘तेजपूर्ण’ प्रक्रियाओं के कारण ही इस स्थिति को ‘तैजस’ कहा गया है, ऐसा प्रतीत होता है। यहां तक प्रश्न ने भी हमको बता दिया था। 

     दूसरी कण्डिका में कुछ नया है. वहां ‘उभयत्वात्’ से मन को द्विमुखी बताया गया है। सो, यह मन एक ओर तो चित्त से स्मृतियों को निकालता है, तो दूसरी ओर उनको काल्पनिक ढंग से एक कथा के रूप में जोड़ देता है। यह इसके जैसे दो मुख होते हैं। फिर एक अचम्भित करने वाली बात लिखी गई है – इस अवस्था में “मन ज्ञानसन्तति को समान कर देता है”।

      इस कथन का अर्थ कोई भी नहीं कर पाया है, परन्तु आधुनिक विज्ञान इस विषय में हमें दिशा दिखाता है। कैसे, यह मैं आगे समझाऊंगी। यहां ‘सप्ताङ्ग’ व ‘ एकोनविंशतिमुखः’ लोकों व इन्द्रिय-प्राण के अर्थों में लिया गया है, वह सही नहीं है, और मुझे भी उसका सही अर्थ ज्ञात नहीं हो पाया है। अवश्य ही यहां भी कुछ गूढ़ अर्थ छिपे हैं, जो कि अन्वेषणीय हैं।

    इसी प्रकार सुषुप्त्यावस्था के विषय में माण्डूक्य कहता है :

    यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत् सुषुप्तम्। सुषुप्तस्थान एकीभूतः  प्रज्ञानघन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः॥

    सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा मिनोति ह वा इदं सर्वमपीतिश्च भवति य एवं वेद॥    

     (माण्डूक्योपनिषद् ५, ११)

    अर्थात् जब सोया हुआ व्यक्ति कोई कामना नहीं करता, कोई स्वप्न नहीं देखता, तब वह सुषुप्ति की अवस्था होती है। उस सुषुप्तस्थान में मन जीवात्मा से एकीभूत हो जाता है, वह जीवात्मा जो ज्ञान का भण्डार है, आनन्दमय है। उससे मिलकर, मन भी आनन्दित हो जाता है। वह ‘प्राज्ञ’ बुलाया गया है क्योंकि उस समय वह बाह्य विषयों को छोड़कर, जीवात्मा में स्थित होता है। यहां भी अर्थापत्ति से यह निष्कर्ष निकलता है कि स्वप्नावस्था में मन कामना करता है। यह विज्ञान भी आज कह रहा है।

 उपर्युक्त दूसरी कण्डिका में मन के जीवात्मा में विलीन होने का कथन है। यही प्रश्नोपनिषद् ने भी कहा था।

    अब यदि हम योगदर्शन देखें, तो पाते हैं कि वहां इन दो स्थितियों को अलग-अलग नहीं पढ़ा गया है.

    अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा॥   

         ~योगदर्शनम् (१।१०)

 अर्थात् इन्द्रियों से ग्राह्य बाह्य विषयों के ज्ञान से जो हीन है, वह मानसिक स्थिति निद्रा कहाती है। 

     अब यह वर्णन तो दोनों सुषुप्ति व स्वप्न के लिए सही है। सो, इसको ऐसे समझना चाहिए कि पतञ्जलि को इन दो अवस्थाओं में भेद करने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि योगदर्शन का जो लक्ष्य है, वह है समाधि, और समाध्यवस्था में दोनों ही प्रकार की निद्राओं का अभाव होना ही है, वहां नींद को अवकाश नहीं है।

मनुस्मृति में कुछ और ज्ञान उपलब्ध होता है – लोभः स्वप्नः … तामसं गुणलक्षणम् ॥मनुस्मृतिः १२।३३॥ 

 जहां पर ‘स्वप्न’ अर्थात् निद्रा को तामसिक बताया गया है । तो सही ज्ञान के अभाव को तामसिक मानना सम्यक् ही है। यहां भी ‘स्वप्न’ से दोनों प्रकार की निद्राओं को समझना चाहिए।

भारतीय ग्रन्थों के कुछ विश्लेषण के उपरान्त, अब हम आधुनिक विज्ञान की ओर रुख करते हैं।

     *आधुनिक विज्ञान में निद्रा-सम्बन्धी मान्यताएं :*

      आज के विज्ञान में अनेक ऐसे यन्त्र हैं जिनसे मन की गतिविधियों को बाहर से ही पढ़ा जा सकता है। 

    इनमें से एक यन्त्र है ई०ई०जी० (EEG) जिससे मानसिक तरंगों द्वारा मानसिक क्रिया का स्तर जाना जा सकता है।

     इसके आधार पर निद्रा के स्पष्टतः दो भिन्न भाग उभर कर आए – स्वप्न या आर०ई०एम्० स्थिति (REM, dreaming state), और सुषुप्ति या नौन्-आर०ई०एम्० स्थिति (non-REM/NREM, deep sleep)। 

   तो यह तो हुआ पहला अनोखा समन्वय.

     आगे वैज्ञानिकों ने पाया कि स्वप्न निद्रा उतनी गहरी नहीं होती जितनी कि सुषुप्ति। सुषुप्ति में मानसिक क्रियाएं जैसे ढीली पड़ जाती हैं और बहुत कम हो जाती हैं, जबकि स्वप्न में ये जागृत अवस्था से कुछ ही कम होती हैं। 

यही हमने अपने ग्रन्थों से समझा।

     स्वप्नावस्था में अपने पुराने अनुभवों को नए अंशों से जोड़कर मस्तिष्क कुछ अपनी कहानियां जो बुनता है, उनमें छिपी या दबी मनोकामनाओं को जैसे क्रियान्वित करता है। दूसरी ओर, कभी-कभी इस निद्रा में मन की उलझने सुलझ भी जाती हैं और कभी कष्ट देती हैं। 

    यह बात हमने न्याय व माण्डूक्य से अर्थापत्ति से समझी थी। सुषुप्ति में विचार ही नहीं उठते, तो कामनाओं के लिए अवकाश ही नहीं रहता।

     पुनः, स्वप्न-निद्रा में स्मरण रखने और ज्ञान का समन्वय करने में लाभ होता है। लगता है इसी बात को माण्डूक्य के “ज्ञानसन्ततिं समानश्च भवति” में कहा गया था।

     इस स्थिति में मस्तिष्क अंगों की क्रिया को बन्द कर देता है जिसको निद्रा पक्षाघात (sleep paralysis) कहा जाता है। इससे स्वप्न के अंशों को हम केवल पलकों के नीचे आंखे घुमा-घुमा कर देखते हैं, हाथ-पैर चला कर उसको वास्तव में नहीं करते। ‘प्रविविक्तभुक्’ से इस अंश को भी समझना चाहिए, यह आधुनिक विज्ञान प्रमाणित कर रहा है।

    आज का विज्ञान आत्मा की सत्ता को नहीं मानता, इसलिए आत्मा से सम्बद्ध अंश वहां विद्यमान नहीं है। इस विद्या को ऋषि जन ही दे सकते हैं, क्योंकि इसके लिए अन्तर्नेत्रों की आवश्यकता है.

      आधुनिक विज्ञान ने प्राचीन भारतीय दर्शन व अन्य शास्त्रों में बताए तथ्यों का पूर्णतया अनुमोदन किया है, और कुछ अतिरिक्त ज्ञान भी प्रदान किया है। तथापि शास्त्रों में कुछ अंश शेष बचते हैं जिनसे आधुनिक विज्ञान लाभान्वित हो सकता है। अवश्य ही, यन्त्रों के इन प्रमाणों से हमें अपनी प्राचीन परम्पराओं पर विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है, जिससे कि जो अंश आज हम नहीं मानते हैं, उन पर भी दूसरी दृष्टि दौड़ाना अनिवार्य हो जाता है।

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