अग्नि आलोक
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*कहानी : कस्तूरी कुंडलि बसे*

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           ~ पुष्पा गुप्ता 

आज दिल्ली आए सुवर्णा को पूरे तीन दिन गुजर गए थे, फिर भी अभी तक न अपने बेटे लोकेश से और न ही अपनी बहू हंसा से ढंग से बातें कर पाई थी. ऐसा नहीं था कि वे दोनों जान-बूझकर उसके साथ बातें नहीं करते थे. दरअसल, उनके अतिव्यस्त जीवन में इतना समय था ही नहीं जिसे वे किसी के साथ शेयर कर सकें. तीन दिन पहले जब वह दिल्ली आई थी, लोकेश उसे लेने रेल्वे स्टेशन पर ज़रूर आया था, पर घर पहुंचते ही उसका सामान अंदर रखते हुए बोला था, “मां, अभी तुरंत वापस मुझे ऑफिस लौटना है इसलिए, आप फ्रेश होकर खाना खा लिजीएगा, हंसा ऑफिस जाने से पहले, आपके लिए खाना बना कर टेबल पर रख गई है. मुझसे पहले वह ऑफिस से आ जाएगी. फिर आपको कोई परेशानी नहीं होगी.”

अपनी बातें समाप्त करते हुए वह जल्दी से घर से बाहर निकल गया था. एक लंबे समय तक सोच-विचार करने के बाद, कितने उत्साह से वह बेटा-बहू के घर गृहस्थी देखने का चाव लिए यहां आई थी और यहां आते ही इस अवांछित अकेलेपन का सामना करना पड़ रहा था. उस दिन तो बहू शाम सात बजे तक वापस आ गई थी और लोकेश के आते-आते रात के नौ बज गए थे, लेकिन तीन-चार दिनों में ही उसका दिल बुझ-सा गया था. कहां तो वह यह सोच कर आई थी कि उसके आने की ख़ुशी में बहू और बेटे पलकें बिछाएं इंतज़ार कर रहे होंगे और यहां उनके व्यस्तता का यह आलम था कि सुबह के निकले दोनों के घर लौटते-लौटते शाम रातों में बदल जाती और वह अकेले इस दमघोटू वातावरण में बैठी पल-पल उनके लौटने का इंतज़ार करती रहती या फ्लैट के डेकोरेशन को निहारती रहती.

अपना फ्लैट दोनों ने काफ़ी अच्छे ढंग से सजाया और संवारा था, शायद इन्होंने किसी इंटीरियर डेकोरेटर की मदद ली थी, क्योंकि रंगों का समायोजन, फर्नीचर की बनावट और लहराते पर्दे सभी फिल्मी अंदाज़ में नज़र आते थे. भौतिक सुख के किसी भी साधन की कमी नहीं थी. बस इन्हें जुटाने वालों के पास समय ही नहीं था, इनका उपयोग करने के लिए.

सुवर्णा के मना करने पर भी रात का खाना हंसा अक्सर ही पैक करवा कर ले आती थी. सुबह में हंसा सबसे पहले उठकर काम में लग जाती. तीन-चार दिन बाद ही जबरदस्ती सुवर्णा ने रसोई की कमान थाम ली थी. रसोई के कामों के बाद भी उसके पास बहुत समय बच जाता. घर में कोई छोटा बच्चा भी नहीं था, जो उसका मन लगा रहता.

उन दोनों के जाने के बाद सुवर्णा अक्सर यही सोचती रहती यह दोनों के काम करने की कौन-सी शैली है, जिसमें न मन को शांति मिलती थी, न ही देह को आराम. वीकेंड पर पहली बार सुवर्णा को उन दोनों से ढंग से बात करने का मौक़ा मिला, जब बेटा-बहू दोनों ही घर में मौजूद थे. पूरे दिन छोटे-छोटे काम निपटाते तीनों आपस में बातें करते रहे. मौक़ा देख उस शाश्‍वत सवाल को उन्होंने पूछ ही लिया, जो कई दिनों से उनके मन पर दस्तक दे रहा था.

“तुम दोनों की शादी को पूरे पांच वर्ष हो गए, लेकिन अभी तक तुम दोनों के दो से तीन होने के आसार नज़र नहीं आ रहे हैं.”

लोकेश ने कहा, “अभी तो मां… आपको पांच वर्ष और इंतज़ार करने पड़ेंगे, क्योंकि तत्काल बच्चे की ज़िम्मेदारियां संभालने के लिए न मेरे पास समय है न ही हंसा के पास. अभी तो जो फ्लैट और कार हमने लिए हैं, उसी की किस्ते भरने में हमारे आय का एक बड़ा हिस्सा निकल जाता है.”

“हां, मां… सो तो है लेकिन जो फ्लैट हमने लिए हैं वे काफ़ी महंगे हैं. हम दोनों चाहते हैं कि हमारे पास सबकुछ अच्छा हो जाए फिर परिवार बढ़ाने के लिए सोचेंगे.”

सुवर्णा की समझ में नहीं आ रहा था कि उन दोनों को कैसे समझाए कि अच्छा से अच्छा पाने की संतुष्टि कभी पूर्ण नहीं होती, तो क्या अच्छा से अच्छा हासिल करने की धुन में इन दोनों की ज़िंदगी के सबसे सुनहरे पल यूं ही निकल जाएंगे. जिस सुख और समृद्धि को पाकर ये दोनों ऐश करना चाहते हैं और जिसे पाने के लिए ये दोनों बस काम और काम किए जा रहे हैं, और जल्द से जल्द बहुत कुछ पाने की आस में ज़िंदगी के सबसे अच्छे दिनों को पैसा कमाने की होड़ में झोंक रहे हैं. क्या पैसों से उसे वापस पा सकेंगे? इस उम्र में दिल में जो जोश उमंगें और आवेग होती हैं, क्या जीवन के अगले किसी पड़ाव पर उस जोश, उमंग और आवेग को ये दुबारा पा सकेंगे? शायद कभी नहीं, फिर इन्हें इतना पैसा क्यों चाहिए कि इंसान मशीन बन जाए.

अभी तक बहू और बेटा के छह अंकों में मिलने वाले तनख़्वाह का ढिंढोरा पिटती वह अपने आप को गौरवान्वित महसूस करती थी. आज उसका खोखलापन उसे परेशान कर रहा था.

इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद लोकेश ने अपने से एक साल जूनियर एक विजातीय लड़की हंसा से शादी करने की इच्छा ज़ाहिर की थी. उसने बेटे की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी मान कर बिना किसी हिचकिचाहट के दोनों की शादी धूमधाम से करवा दी थी. हंसा पूरी तरह उसके कल्पना के अनुरूप मृदुभाषी, सुंदर, हंसमुख और बड़ों का सम्मान करने वाली थी. मात्र चार-पांच दिनों में ही उसने अपने व्यवहार से घर के सभी सदस्यों का मन जीत लिया था.

इतनी अच्छी बहू पाकर सुवर्णा गदगद थी. वह चाहती थी कि उसकी बहू भी बेटे की तरह जॉब करे, इसलिए नहीं कि वह अर्थ उपार्जन करेगी, बल्कि इसलिए कि उसके अनुसार स्त्री की रचना स़िर्फ सेवा, श्रम और सेक्स के लिए नहीं हुई है. बराबरी की नौकरी उसके व्यक्तित्व को एक नया आयाम देगी. जो मान-सम्मान और बराबरी का दर्जा सुवर्णा नहीं पा सकी वह चाहती थी वो सब उसकी बहू को मिले. यही सोचकर उसने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि वाली बहू की पढ़ाई पूरी करने में काफ़ी मदद की और नौकरी करने के लिए भी उत्साहित किया ताकि वह अपनी तकदीर ख़ुद लिख सके. कभी पति की मोहताज ना रहे. आज उसी का परिणाम था जो बहू भी बेटे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही थी, लेकिन उसने यह कहां चाहा था कि पैसों के पीछे भागती वह यूं पैसा कमाने की मशीन मात्र रह जाए. इस महानगर ने ऐसा क्या जादू कर डाला था कि ये दोनों ही अपना सारा सुख-चैन गंवा कर पैसा कमाने की होड़ में शामिल हो गए थे. तभी लोकेश की आवाज़ ने उसे चौंका दिया.

“मां, जल्दी तैयार हो जाइए, हम लोग कहीं घूमने चलते हैं, खाना भी बाहर ही खा लेंगे.”

तीनों यहां-वहां घूमते, ख़रीददारी करते जब काफ़ी थक गए, तो एक होटल में खाना खाने बैठें. अभी वो खाना शुरू ही किए थे कि लोकेश के ऑफिस से फोन आ गया और उसे बीच में ही खाना छोड़कर जाना पड़ा. सुवर्णा की सारी ख़ुशियां तिरोहित हो गईं. फिर खाने में दिल ही नहीं लगा. किसी तरह खाना समाप्त कर दोनों सास-बहू घर लौट आईं.

एक दिन सुवर्णा सब्ज़ी लेकर घर लौट रही थी कि तेज़ी से आती एक मोटरसायकिल जिसे 20-25 वर्ष का एक लड़का चला रहा था, सड़क के किनारे से जा टकराया. उस लड़के को काफ़ी चोट आई थी. उसके सिर से काफी ख़ून निकल रहा था. आस-पास से गुज़रती गाड़ियां और लोग उसके बगल से तेज़ी से गुज़र रहे थे, पर कोई उसकी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा था. सुवर्णा के समझ में नहीं आ रहा था कि इतने विकसित शहर के लोग इतने हृदयहीन कैसे हो सकते हैं? उससे दर्द से छटपटाते उस युवक का दर्द देखा नहीं गया. एक ऑटोरिक्शा रोककर उसे पास के एक अस्पताल में ले गई.

अर्धबेहोशी की अवस्था में पड़े उस युवक से किसी तरह फोन नंबर लेकर उसने उसके घरवालों को सूचित कर दिया. उचित समय पर डॉक्टरी सहायता मिलने से उस युवक की जान बच गई. उसके घरवालों के आने के बाद ही वह अपने घर लौट पाई. जब तक वह घर पहुंची, बेटा-बहू दोनों ही घर लौट आए थे और उसे घर में न पाकर काफ़ी परेशान थे, क्योंकि सुवर्णा का फोन भी घर पर ही था.

जब सुवर्णा ने उन्हें सारी बातें बताई, तो ख़ुश होने के बदले लोकेश नाराज़ हो उठा,

“मां आप ऐसे पचड़े में क्यों पड़ती हैं? वहां से इतने लोग गुज़र रहे थे, किसी को फिक्र नहीं हुई, तो फिर आपको क्या पड़ी थी इस उम्र में इतनी भागदौड़ करने की? ज़्यादा-से-ज़्यादा पुलिस को सूचित कर देतीं.”

सुवर्णा ठगी-सी खड़ी बेटे की बातें सुन रही थी. सुख-समृद्धि और वैभव की तलाश में भागती ये आधुनिक पीढ़ी क्या इतनी संवेदन शून्य हो गई है कि दूसरे के दुख-दर्द इनकी आत्मा को छू ही नहीं पाते? आस-पास की घटनाओं से बेख़बर हर परिस्थिति में इनकी नज़रें स़िर्फ अपनी जीत पर टिकी रहती हैं. ये भूल गए हैं कि समाज हो या परिवार संवेदनहीनता आदमी को मशीन में बदल कर रख देती है. तब उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय सभी उनके जीवन में गौण होने लगता है.

बेटे की बात सुन आज वह चुप नहीं रह सकी.

“बेटा, मुझे लगता है कि अति व्यस्तता के कारण तुम लोगों के जैसे संवेदना के स्रोत ही सूख गए हैं. आदमी इतना कठोर कैसे हो सकता है कि किसी की पीड़ा का एहसास ही न हो? तुम लोगों का एक बड़ा तबका पैसा कमाने की धुन में ऐसा व्यस्त हो गया कि वे न किसी के सुख-दुख में शामिल हो पाते हैं और न ही अपना सुख-दुख बांट पाते हैं. जिससे अपने जीवन में ख़ुद-ब-ख़ुद अकेले पड़ते जा रहे हैं. कभी छोटे-मोटे सुख-दुख में भी आस-पड़ोस के लोग परिवार की तरह शामिल होते थे. तब हमारे पास भले ही पैसा कम था, सुख-सुविधा के साधन कम थे, पर हम जीवन को भरपूर जीते थे.”

अब तो पश्‍चिमी भौतिकता के दीवाने उसी रंग में रंगते लोगों के लिए रिश्ते, प्यार और सामाजिकता सबके मायने बदलते जा रहे हैं. आज लोग नैतिकता को ताक पर रख, अपनी जीत के लिए कुछ भी ग़लत-सही करने को तैयार बैठे हैं. हर बात में कॉम्पटीशन और कॉम्पटीशन, होड़ लगी है एक- दूसरे से आगे निकल जाने की. समय से तालमेल बैठा कर चलना अच्छी बात है, पैसा कमाना भी अच्छी बात है, लेकिन किसी बात की अति बुरी होती है. तुम्हीं सोचो लोकेश जायदाद और पैसा जमा करने की भला आज तक कोई सीमा तय कर पाया है?

तुमने शादी कर परिवार बनाया है तो उसके प्रति भी तुम्हारा दायित्व है, जिसे निभाने के लिए तुम्हें परिवार के प्रति अनासक्त से आसक्त होना ही पड़ेगा. परिवार और अपनी ख़ुशी को ही अपना पहला लक्ष्य बनाना होगा न कि संपत्ति और वैभव जुटाने को. मैं मानती हूं कि हर आदमी की एक अपनी स्वतंत्र अस्मिता होती है फिर भी अगर हर व्यक्ति को अपने तरी़के से जीने के लिए छोड़ दिया जाए, तो परिवार बिखर जाएगा. पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए पति-पत्नी दोनों को आपस में तालमेल बिठाकर, अपने स्नेह और अधिकारों से एक-दूसरे को बांधकर परिवार को बचाना और आगे बढ़ाना ही पड़ता है.

मैं इस घर की बड़ी हूं इसलिए मेरा फ़र्ज़ बनता है कि तुम दोनों को सही दिशा में ले जाऊं. एक आदमी की कितनी ज़रूरतें होती हैं? सबको पता है, फिर इतनी ज़्यादा पैसों की हवस क्यों? इसलिए एक बार ठंडे दिमाग़ से सोचो और भौतिकता के पीछे भागने की अपनी गति को धीमी करो.” हंसा और लोकेश बिना जवाब दिए चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे. सब कुछ कह देने से सुवर्णा का मन भी हल्का हो गया था. एक महीना बेटे-बहू के साथ बिताकर वह पटना वापस लौट आई थी.

पटना लौटने के कुछ ही दिनों बाद हंसा और लोकेश अमेरिका चले गए. अब बेटा-बहू को कुछ भी सलाह देने के बदले वह पूर्णतः मौन साध ली. ख़ुद से कभी फोन भी नहीं करती थी.

कभी-कभी एक मौन वह सब कुछ समझा जाता है जिसे शब्द नहीं प्रकट कर पाते हैं. उन दोनों को अमेरिका गए अभी एक वर्ष भी नहीं गुज़रा था कि अचानक ही दोनों ने भारत वापस आने का मन बना लिया. वे दोनों जल्द ही भारत आ गए. यहीं पर अपने लिए नौकरी ढूंढकर अपनी पोस्टिंग उन्होंने पटना में ही करवा ली. सुवर्णा की समझ में नहीं आ रहा था, चमत्कार हुआ कैसे? फिर भी चुप रही. एक दिन बहू ख़ुद ही सब कुछ बयान करती चली गई थी.

“मां, आपकी नसीहतों को नज़रअंदाज़ कर हम पैसों के पीछे भागते सात समंदर पार चले तो गए थे, अच्छे पैसे मिल भी रहे थे, पर पल-पल महसूस होता परायापन का दर्द और मशीन-सी बन गई ज़िंदगी ने आपकी बातों और विचारों पर दोबारा सोचने पर मजबूर कर दिया था. तब भौतिकवादी युग में मन में बेलगाम इच्छा और आवश्यकता को समझना हमारे लिए बहुत ज़रूरी हो गया था. रोटी, कपड़ा और मकान के बाद जो कुछ धन हमारे पास बचता था वह हमारे लिए जमा करने की इच्छा मात्र ही तो थी जिसकी कोई सीमा नहीं थी. इस अतिरिक्त धन की इच्छा ने ही हमें हमारी जन्मभूमि और जन्मदाता से अलग कर रखा था. उसके साथ ही वहां विदेशियों की हिकारत भरी नज़रों का सामना भी करना पड़ रहा था.

धीरे-धीरे आंखों से स्वार्थ का परदा हटते ही समझ में आ गया कि हमारी पढ़ाई और विद्या का महत्व और उसकी उपयोगिता और सार्थकता जितना अपने वतन में है उतनी ज़रूरत किसी और देश को नहीं. साथ ही यह भी समझ में आ गया था कि जिस सुख की तलाश में हम देश-विदेश की खाक छान रहे थे, वह तो अपने ही वतन में अपनों के बीच छुपा था, ख़ासकर आपके प्यार में. वो कहते हैं न अपने में ही छुपे कस्तूरी को मृग कहां-कहां नहीं ढूंढ़ता है वही हाल हमारा था. यह बात समझ में आते ही हमने यहां लौट आने का फ़ैसला कर लिया और यहां आकर ऐसा लगा मानो हमारी ख़ुशियां वापस लौट आई हैं. कितने दिनों बाद आप भी पहले की तरह ख़ुश दिखीं. इस बीच आप भी काफ़ी मायूस और उदास रहने लगी थीं. आज आपके मन में शेष बची उदासियों को भी मैं यह कहकर दूर किए देती हूं कि आप दादी बनने वाली हैं.”

सुवर्णा हंसकर हंसा को गले से लगाते हुए बोली, “ईश्‍वर जब देना चाहता है सारी ख़ुशियां छप्पर फाड़ कर देता है.”

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