प्रफुल्ल कोलख्यान
आम चुनाव 2024 के दो चरण के पूरे होने के बाद 07 मई 2024 को आम चुनाव के तीसरे चरण का चुनाव होना है। पहले और दूसरे चरण में मतदान प्रतिशत की गिरावट की विभिन्न व्याख्याएं राजनीतिक विश्लेषणों में हो रही है। आम तौर पर व्याख्याओं में वर्तमान सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी के लिए चिंताजनक संकेत उभर रहे हैं। अभी चुनाव के पांच चरण बाकी है। भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकार मतदान प्रतिशत बढ़ाने और चुनाव में अपनी स्थिति सुधारने की विभिन्न रणनीतियों पर गहन विचार-विमर्श कर रहे हैं। दो को छोड़कर बाकी रणनीतिकारों की ‘गहरी समझ’ में यह बात बार-बार उठ रही है कि सचमुच ‘एक अकेला’ दल पर ‘भारी’ पड़ गया!
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के रणनीतिकारों को अब ज्ञान हो रहा है। ज्ञान तो पहले रहा होगा, ध्यान अब आया है कि पाप सब से भारी होता है, भूमि से भी भारी। अब ध्यान में आ रहा होगा कि ‘न्यायार्थ अपने बंधु को भी दण्ड देना धर्म है’ को भूलकर ‘महाभारत के रण’ में उतरनेवला ‘एक पापी’ कैसे ‘ले डूबता है, नाव को मझधार में’। सब कुछ जानते हुए भी वक्त पर मौन साध लेने की परिणति को रणनीति से बदलना कब किस के लिए संभव हुआ है? यह सब सोचते हुए उन का दिल बैठा जा रहा है। अकेले ‘400 पार’ की यात्रा करने के लिए भ्रमातुर लोगों के मोह में मौन रहे! सुख-सुविधा के सागर में डुब्बी लगाये स्वरग में स्वर्ग का संधान करते खामोश रहे। पता ही नहीं चला कि कब ‘अब की बार मोदी (भाजपा?) सरकार’, ‘मोदी (भाजपा?) की गारंटी’ की पतंग उड़ा दी गई!
संविधान, लोकतंत्र को दरकिनार करते हुए मछली-मटन, मुसलिम लीग, मंगल सूत्र न जाने क्या-क्या मुद्दा उछलता रहा, होश नहीं आया। होश तब आया जब गिरता हुआ मतदान प्रतिशत सपनों में सुराख करने लगा। लेकिन अब क्या हो! हां, अब क्या हो जब ‘आछे दिन पाछे गये, चिड़िया चुग गई खेत’! एक संकेत बिल्कुल साफ-साफ दिखाई दे रहा है कि कुछ राजनीतिक पार्टियों और उन के सम्मानित नेताओं के लिए यह आखिरी चुनाव साबित हो सकता है।
बगल बजानेवालों को छोड़कर शांत मन से सोचना चाहिए कि किन परिस्थितियों में यह चुनाव हो रहा है? किसान आंदोलन कर-करके थक चुके हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते हुए सैकड़ों किसान आंदोलन करते हुए दिल्ली बोर्डर पर जान गंवा बैठे। सत्यपाल मलिक ने यह मुद्दा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने उठाया था। सत्यपाल मलिक के अनुसार पलटकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्यपाल मलिक से ही पूछ लिया कि क्या वे किसान मेरे लिए मरे? लगता है कि संवेदनहीनता की कोई हद ही नहीं है! किसानों की मांग क्या है? न्यूनतम समर्थन मूल्य को कृषि की समग्र लागत के ड्योढ़ा; (सी2+50) को कानूनी बनाये जाने की मांग है। इस मांग में क्या नाजायज है? सरकार को लगता है कि नाजायज मांग है तो बात-चीत के लोकतांत्रिक माध्यम से कोई ऐसा रास्ता खोजा जा सकता था जो किसानों को मान्य होता! सरकार की हठ-शठ शक्ति को किसानों के लिए कोई रास्ता निकालने में पता नहीं अपनी क्या हेठी दिखी! किसानी का इस देश की आर्थिकी में कितना योगदान है किस को मालूम नहीं है? सब से ऊपर खाद्यान्न के मामले में देश को आत्म-निर्भर बनाने में इन किसानों का क्या योगदान है कहने की जरूरत है क्या?
खेती-बारी के कॉरपोरेटीकरण के भूत के अलावा वह कौन-सी शक्ति है जो न्यूनतम समर्थन मूल्य को कृषि की समग्र लागत के ड्योढ़ा (सी2+50) को कानूनी बनाने की मांग को अनसुना बना देती है! इतने पर भी किसान वर्तमान सत्ताधारी दल और व्यवस्था के प्रति आशा और विश्वास कैसे बनाये रख सकता है? बढ़ती हुई महंगाई और रोजगार के घटते हुए अवसर ने पेट्रोल में माचिस का काम कर रही है। आर्थिक विषमता की खाई इतनी भयावह हो गई है कि बहुत बड़ी आबादी के लिए जिंदा रहना मुश्किल होता चला गया है।
हमारे देश की शासन प्रणाली में मंत्री परिषद जवाबदेह होती है। शासन कम-से-कम और सेवा अधिक-से-अधिक उदार लोकतंत्र का गुण होता है। लेकिन स्थिति पलट जाये यानी शासन अधिक-से-अधिक और सेवा कम-से-कम हो तो निश्चित ही यह लोकतंत्र को अनुदार बनाता है। न मंत्री परिषद के किसी सदस्य ने और न सत्ताधारी दल से जुड़े किसी जनप्रतिनिधि ने जनहित के मामलों पर कभी अपना मुंह खोला। मीडिया को ‘बाइट’ देना या किसी विपक्ष के नेता या दल के बारे में अनाप-शनाप बोलना मुंह खोलने की श्रेणी में नहीं आता है। समय पर मुंह नहीं खोला, चुनाव का समय आया तो मुंह बाये गांव की ओर दौड़े चले आ रहे हैं। कहीं-कहीं किसान कह रहे हैं, हमें दिल्ली में नहीं घुसने दिया, अब हम गांव में नहीं घुसने देंगे। अपनी लोकतांत्रिक सरकार और किसानों या मतदाताओं के बीच विकसित हो रहे ‘प्रतिशोधी रिश्ता’ की स्थिति के बनी रहने में ‘विकसित भारत’ के सपनों का क्या होगा!
कहा जाता रहा है कि जगत में ‘सकल पदार्थ’ होता है, ‘कर्महीन को नहीं मिलता है’! ‘कर्म का अवसर’ यानी रोजगार! ‘कर्म का अवसर’ यानी, रोजगार न मिले तो उसके लिए बाजार में कुछ नहीं होता है! आय के अवसरों की कमी क्रय-क्षमता को कम कर देती है। जब क्रय-क्षमता ही न हो तो सब कुछ दुरुस्त दिखने पर भी व्यक्ति और समुदाय की हालत पचकेजिया मोटरी-गठरी ढोनेवालों की होकर रह जाती है। अचरज की बात यह है कि सत्ताधारी दल को गर्व है कि बहुत बड़ी आबादी को वह पचकेजिया मोटरी-गठरी थमाने में कामयाब है। जब अधिकतर लोगों के पास न रोजी, रोजगार हो और न पर्याप्त क्रय-क्षमता हो तो बाजार और व्यापार में रौनक कहां से आये!
विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के उम्मीदवारों के नामांकन के बाद भी इधर-उधर होने की खबर बीच-बीच में आ जाती है। भारतीय जनता पार्टी के नेता मीडिया में झपटकर चीखते हैं। आशय यह होता है कि, “भारतीय जनता पार्टी बिना चुनाव के कामयाब है, चुनाव की क्या जरूरत”! वे बहुत खुश हैं कि “दल बदलुओं ने किया उनका काम”! फर्जी वीडियो और चुनावी प्रोपगेंडा के बारे में क्या कहने! असली चुनाव सामग्री के ऊपर चुनावी जंजाल का मलवा लद गया है। संविधान और लोकतंत्र की रक्षा की पुकार चीख बनकर आम मतदाताओं की आत्मा में समा चुकी है। भरोसा किया जा सकता है कि ‘गहरी सहानुभूति’ और ‘पूरी समझ’ के साथ ‘चकराव और भटकाव’ में डालने की सारी कोशिशें मतदाताओं की मति और शक्ति के सामने अंततः घुटने टेक देगी। संविधान और लोकतंत्र का प्राण मतदाताओं की मति और शक्ति में बसता है, राजनीतिक दलों के ‘चकराव और भटकाव’ से तो बस सत्यानाश ही होता है।
जाति जनगणना और आर्थिक सर्वेक्षण के मुद्दा पर तरह-तरह का कोलाहल मचा हुआ है। वंचित समुदाय अपना आर्थिक आधार खोज रहा है। विचार पर प्रचार भारी है। असल में जब संकट संविधान और लोकतंत्र पर दिख रहा हो, तो अन्य समस्याओं पर बात करना जरूरी होने पर भी उसे प्राथमिकता नहीं प्राप्त होता है। इतिहास में ‘अभिन्न को भिन्न’ कर देनेवाली और ‘भिन्न को अभिन्न’ बना लेनेवाली दोनों ही प्रवृत्ति काम करती रही है। भारत की संस्कृति मौलिक प्रवृत्ति ‘भिन्न को अभिन्न’ बना लेनेवाली रही है। ‘भिन्न को अभिन्न’ बना लेने की मौलिक प्रवृत्ति ने भारत की संस्कृति के सामासिक चरित्र का गठन किया है। उदाहरण और दृष्टांत की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए, समझा जा सकता है कि महाभारत ‘अभिन्न को भिन्न’ करने की महागाथा है। जबकि रामायण ‘भिन्न को अभिन्न’ बना लेने की महागाथा है। इसलिए भारत की संस्कृति के समझदारों ने ‘राम राज्य’ की आकांक्षा तो की, लेकिन ‘युधिष्ठिर राज्य’ की कभी चर्चा तक नहीं की।
मुश्किल यह है कि राम राज्य के लिए कर्तव्य पर जोर का भाव होता है, न कि अधिकार पर। ‘कर्तव्य पर अधिक जोर’ राजतंत्र का लक्षण है। लोकतंत्र की आकांक्षा में ‘अधिकार पर जोर’ देते हुए अधिकार और कर्तव्य में संतोषजनक संतुलन कायम रहने का भाव होता है। जो भी हो, पारिस्थितिक और ऐतिहासिक त्रुटियों को कम करते हुए ‘भिन्न को अभिन्न’ बनाने की युक्तियों से संपन्न भारत का संविधान भारत के लिए सब से बड़ी और प्रासंगिक महागाथा है। इस अर्थ में भारत का संविधान भारत की जीवंत संस्कृति का प्राण है। इसलिए आज ‘संविधान राज’ ही हमारी संस्कृति के अनुकूल है। संविधान का बुनियादी चरित्र ‘भिन्न को अभिन्न’ बना लेने की प्रवृत्ति में है, इसका तिरस्कार करना प्रणघाती है।
भारतीय जनता पार्टी और उसका पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारत के संविधान में बुनियादी तौर पर निहित ‘भिन्न को अभिन्न’ बना लेने की प्रवृत्ति का शुरू से तिरस्कार करती रही है। शुरू से संविधान पर इस या उस आधार पर सवाल उठाती रही है। आज राजनीतिक रूप से अपने को शक्तिशाली समझकर संविधान को बदलने की उस की मचलती हुई आकांक्षा बलवती हो गई है। भारतीय जनता पार्टी भूल गई है कि संसदीय शक्ति ‘मूलतः प्रातिनिधिक शक्ति’ होती है, ‘पूर्णतः राजनीतिक शक्ति’ नहीं होती है। चुनाव के माध्यम से किसी भी राष्ट्र की सिर्फ प्रातिनिधिक शक्ति की संरचना में ही बदलाव होता है। राष्ट्र की राजनीतिक शक्ति संरचना में कोई मौलिक बदलाव ऐतिहासिक प्रक्रिया में ही हो सकती है। फिर कहें, किसी राष्ट्र की राजनीतिक शक्ति में कोई मौलिक बदलाव चुनावी प्रक्रिया से नहीं होती है। अगर ऐसा होता तो बहुत ही क्षीण संसदीय या प्रातिनिधिक शक्तिवाली भारतीय जनता पार्टी आज इतनी शक्तिशाली नहीं होती और न शक्तिशाली कांग्रेस आज इतनी शक्तिहीन होती!
यह समझना हर किसी के लिए जरूरी है कि भारत के संविधान में निहित सकारात्मक भेद-भाव यानी ‘आरक्षण व्यवस्था’ सहित कई समकारक (Equalizer) उपायों का लक्ष्य ‘भिन्न बना दी गई बहुत बड़ी आबादी’ को ‘अभिन्न बनाने के प्रयास’ को सफल करना है। यह ‘अभिन्न बनाने का प्रयास’ न सिर्फ भारत की जीवंत संस्कृति और संविधान की मूल प्रवृत्ति के अनुकूल है, बल्कि जीवंत संस्कृति और संविधान की आत्मा की करुण पुकार है। अब यह मतदाताओं और आम नागरिकों पर है कि संस्कृति और संविधान की करुण पुकार का उन पर क्या और कैसा असर होता है। देखना दिलचस्प होगा कि संविधान और लोकतंत्र बचाने के मुद्दे का, आम मतदाताओं के बन रहे रुख और रुझान का, मतदान पर क्या और कैसा प्रभाव पड़ता है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारत की आबादी की संरचना न सिर्फ पुरानी है, बल्कि जटिल भी है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि एक राष्ट्र के रूप “हम भारत के लोगों” के अस्तित्व का आधार सहमति-असहमति के साथ सह-अस्तित्व की स्थिति को जीवंत और सक्रिय बनाये रखने में है। निश्चित ही इसके लिए मिलनसारी मिजाज और ‘भिन्न को अभिन्न’ करने और समझने की निश्छल समझदारी और कारगर सामाजिक दक्षता (Social competence) जरूरी है।
संविधान के आईने में एक बात बिल्कुल साफ है कि चुनाव प्रचार में झलक रहा वर्तमान का कलुषीकरण और भविष्य का भ्रामक वर्णन, लोकतंत्र का लक्षण नहीं है! सत्ता परिवर्तन की संभावना और आशंका के सामने भारत का लोकतंत्र अगली यात्रा के लिए तैयार है। पलड़ा अभी सत्ता परिवर्तन की संभावना की तरफ झुकता हुआ दिख रहा है। लेकिन इस घड़ी, जब तक चुनाव परिणाम घोषित नहीं हो जाता है, सत्ता परिवर्तन की संभावना और आशंका के बीच ‘लोकतंत्र का सच’ ‘कपालभाति’ करता रहेगा। अभी, मतदाताओं के फैसले का इंतजार है।